Monthly Archives: December 2009

हिन्दी समाचार पत्र “नवभारत टाईम्स” की आंग्लभाषा के प्रति प्रेम की बानगी देखिये कि पूरा एक पेज ही आंग्लभाषा में शुरु कर दिया…

    आज सुबह हिन्दी समाचार पत्र “नवभारत टाईम्स” जब अपने फ़्लेट का दरवाजा खोल कर उठाया तो कुछ अलग लगा। साईड में एक विज्ञापन टाईप का बक्सा मुँह चिढ़ा रहा था, जिसका शीर्षक था – trendz2day. और क्या लिखा था आप भी पढ़िये –

“बदलते जमाने के साथ निखरती जिंदगी में सबसे खुशगवार महक है नई-नई सुविधाओं से लैस गैजेट्स, टेक्नोलॉजी और ट्रेंड्स की उतनी ही तेजी से बदलती दुनिया। इसी दुनिया की विविधताभरी दिलचस्प झलक अब आपको हम लगातार दिखाते रहेंगे, अपनी नई पहल trendz 2 day के जरिये । चूंकि इस दुनिया की सुविधाजनक भाषा इंग्लिश ही है, इसलिए इस हिस्से का किस्सा भी इंग्लिश में – खास आपके लिए।”

    अब भला इन टाईम्स ग्रुप वालों को कौन समझाये कि भले ही आंग्लभाषा दुनिया की सुविधाजन भाषा है तो क्या हम भी उसे ही अपना लें अपनी मातृभाषा छोड़कर। अगर हिन्दी का समाचार पत्र है तो सभी चीजें केवल हिन्दी भाषियों के लिये ही होनी चाहिये, यहाँ सुविधा का ध्यान नहीं रखना चाहिये। जिसे इस तरह की चीजें पढ़ने का शौक होगा उसके लिये इस प्रकार का बहुत सारी सामग्री मौजूद है “दुनिया की सुविधाजनक भाषा में”। हाँ अगर टाईम्स यही पेज हिन्दी में शुरु करता तो एक सार्थक पहल होती कि हिन्दी भाषियों के लिये “दुनिया की सुविधाजनक भाषा” की सामग्री वह हिन्दी भाषा में उपलब्ध करवाता। शायद इसमें उसे बहुत मेहनत लगती और जो आदमी बेकार बैठे थे उनसे काम नहीं ले पाते और नये आदमियों को काम के लिये लेना नहीं पड़ा हो। पता नहीं क्या सोच है इसके पीछे।

    हिन्दी समाचार पत्र प्रेमियों के लिये तो यह एक तमाचे से कम नहीं है, और मैं इसका विरोध करता हूँ।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ४२ [चम्पानगरी जाते हुए प्रकृति का सुन्दर चित्रण… ]

    दूसरे दिन ही मैं और शोण दोनों हस्तिनापुर से चल दिये। यात्रा बहुत लम्बी थी इसलिए हमने श्वेत घोड़े लिये। हम दोनों को ही अब अश्वारोहण का अच्छा अभ्यास हो गया था। मुझे तो सब प्राणियों मॆं अश्व बहुत ही अच्छा लगता था। वह कभी नीचे नहीं बैठता है । सोते समय भी वह खड़े-खड़े ही एक पैर के खुर को मोड़कर नींद ले लेता है। अश्वों के सभी स्वाभाव का मैंने बड़ा सूक्ष्म निरीक्षण किया था। कितना ही उच्छश्रंखल क्यों न हो, उसको वश में कैसे किया जाता है, यह मैं अब अच्छी तरह जान गया था। और फ़िर वह हमारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आता हुआ व्यवसाय था। प्रत्येक को अपने व्यवसाय में प्रवीण होना ही चाहिए – संजय काका ने सारथी के रुप में यह जो उपदेश दिया था, उसको मैं कैसे भूल सकता था।

    हम लोग हस्तिनापुर की सीमा से बाहर निकले। वसन्त ऋतु के दिन थे वे। चारों ओर भिन्न-भिन्न रंगों के फ़ूल सुशोभित थे। बावा के वृक्ष छोटे-छोटे पीले फ़ूलों से लदे हुए थे। खैर के वृक्ष हलके लाल फ़ूलों से भरे हुए थे। अंजनी के वृक्षों पर नील कुसुम सुशोभित हो रहे थे। उन समस्त वृक्षों पर प्रकृति-देवता की इतनी कृपादृष्टि देखकर पलाश शायद अत्यधिक क्रुद्ध हो उठा था। उसका सम्पूर्ण शरीर रक्तवर्णी लाल सुमनों से आच्छादित था। यही कारण था कि सभी वृक्षों में वह अकेला ही अत्यधिक आकर्षक दिख रहा था।

    उन समस्त पुष्पों की एक सम्मिश्रित सुगन्ध वातावरण में तैर रही थी। श्येन, क्रौंच, भारद्वाज, कोकिल, कपोत आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के पक्षियों के सम्मेलन का तो यह समय था ही। अपने-अपने गीत वे पंचम स्वर में गा रहे थे। वसन्त ! वसन्त का अर्थ है – प्रकृति-देवता की स्वच्छन्द रंगपंचमी ! वसन्त अर्थात एक-दूसरे का हाथ पकड़े खड़े हुए सप्तस्वरों के खिलाड़ियों का कबड्डी-संघ ! वसन्त है – काल के बाड़े में अटका हुआ निसर्ग देवता के अतलसी वस्त्र का एक सुन्दर धागा। अथवा वर्षाऋतु में चंचल वर्षा ने अपनी निरन्तर गिरती धाराओं की उँगलियों से वर्षाऋतु को जो गुदगुदी की थी, उससे हँसी आने के कारण इधर-उधर पैर पटकते समय नीचे गिरा हुआ उसके पैर का सुन्दर नूपुर ! छि:, किसी तरह भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वसन्त तो बस वसन्त ही है!

    निसर्ग देवता के मनोहर रुपों को देखते हुए हम अपनी यात्रा कर रहे थे। रात होने पर समीप ही किसी नगर में ठहर जाते थे। इसी प्रकार आठ दिन बीत गये। अनेक नदियाँ और पर्वत पार कर हम नौवें दिन प्रयाग पहुँचे। प्रयाग ! यहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती इन तीन नदियों का संगम था। यहाँ से चम्पानगरी अब केवल पचीस योजन दूर रह गयी थी।

अपने ग्राहक को पहचानो, एक मजेदार घटना कोका कोला के साथ (Know your customer….)

कोका कोला का एक सेल्समैन अपने मिडिल ईस्ट के काम निराश होकर लौट रहा था।

एक मित्र ने उससे पूछा, “तुम अरब में कोका कोला बेचने में क्यों सफ़ल नहीं हुए ?”

सेल्समैन ने अपने मित्र को समझाया

“जब मैं मिडिल ईस्ट में आया तो मुझे विश्वास था कि मैं अच्छी सेल्स कर पाऊँगा क्योंकि कोका कोला वहाँ कोई जानता ही नहीं था, लेकिन एक समस्या थी कि मैं अरबी भाषा नहीं जानता था। तो मैंने तीन पोस्टरों के माध्यम से अपने संदेश को लोगों तक पहुँचाने की योजना बनाई..”

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पहला पोस्टर : एक आदमी रेगिस्तान की गर्म रेत में थक कर बेहोशी की हालत में पड़ा हुआ है।

दूसरा पोस्टर : अब वह आदमी हमारा कोका कोला पेय पी रहा है।

तीसरा पोस्टर : कोका कोला पीने के बाद अब उसमें ताजगी आ गई है।

और इन तीनों पोस्टरों को जगह जगह चिपका दिया गया।

मित्र बोला, “फ़िर तो तुम्हारा काम बन गया होगा !!”

“क्या खाक काम बन गया था”, सेल्समैन बोला “मुझे यह नहीं पता था कि अरब लोग उलटी और से पढ़ते हैं (Right to Left)”

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ४१ [कर्ण के गुरु और चम्पानगरी जाने की उत्कण्ठा… ]

   बहुत दिन हो गये थे। मैं जब से हस्तिनापुर आया था, तब से केवल एक बार ही चम्पानगरी गया था। वह भी उस समय जब गुरुदेव द्रोण ने अपने शिष्यों की परीक्षा ली थी। उसके बाद पाँच वर्ष बीत गये थे। इच्छा होने पर भी इन पाँच वर्षों में मैं एक भी बार चम्पानगरी को नहीं जा पाया था। क्योंकि यहाँ मैं एक विद्यार्थी के रुप में आया था।

    सौभाग्य से मुझको अपने गुरु बहुत अच्छे मिले थे। जिनको गुरुओं का गुरु कहा जाता है, ऐसे ही थे वे। साक्षात सूर्यदेव मेरे गुरु थे। हस्तिनापुर के अखाड़े में पत्थर के चबूतरे पर खड़े होकर मन ही मन निश्चय कर मैंने उनका शिष्यत्व अंगीकार किया था। उन्होंने भी अबतक मेरे साथ अपने प्रिय शिष्य का सा व्यवहार किया था। छह वर्षों के इस कालखण्ड में उन्होंने कितने दुर्लभ रहस्य मुझको बताये थे, वे किस भाषा में बताते थे, यह तो मैं कह नहीं सकता। परन्तु उन्होंने मुझसे जो कुछ कहा था, वह मैंने तुरन्त ही ग्रहण कर लिया था। क्या नहीं सिखाया था उन्होंने मुझको ! बाणों के दुष्कर प्रक्षेप, द्वन्द्व के कठिन हाथ; घोड़ा, हाथी और ऊँटों की उच्छ्श्रंखल प्रवृत्तियों को वश करने की कलाएँ। सब बातें उन्होंने मेरे कानों में कही थीं। चुपचाप ! मौन-भाषा में।

    प्रतिदिन प्रात: अपनी कोमल किरणों से असंख्य कलियों के मुँदे पलक खोलते हुए वे मुझसे कहते थे, “कर्ण, तुझको भी ऐसा ही बनना चाहिए। अपना सर्वस्व मुक्त-हस्त से जो कोई माँगे उसको देकर अपने सम्पर्क में आने वाले सभी लोगों का जीवन तुमको ऐसे ही खिलाना चाहिए।“

    कितने श्रेष्ठ थे मेरे गुरु ! संसार के किसी गुरु ने अपने शिष्य को इतनी छोटी-छोटी बातों से इतना उदात्त उपदेश कभी क्या दिया है ? अब एक बार चम्पानगरी में जाकर उन गुरु के चरण गंगा के स्वच्छ जल से अवश्य धोने चाहिए। अब मैं गंगामाता नहीं कहता हूँ, गंगा कहता हूँ। क्योंकि शैशवावस्था की श्रद्धा व्यावहारिकता के पाषाण से भोंथरी हो गयी थी। माँ एक ही होती है। जो जन्म देती है और पालन-पोषण करती है वह। नदी तो नदी है। वह माता कैसे हो सकती है ? मेरी माता एक ही थी – राधामाता ! उससे मिले भी बहुत दिन हो गये थे। वह अब मुझको देखेगी तो क्या सोचेगी, मुझको पूरा विश्वास था कि मेरे जाने पर वह सबसे पहले मुझसे यही पूछेगी, “कितना लट गया है रे वसु तू ? और तू गंगा के पानी में तो नहीं गया न कभी ?” क्योंकि पुत्र कितना भी बड़ा क्यों न हो जाये, माता की दृष्टि में वह सदैव बालक ही रहता है। माता ही विश्व में एकमात्र ऐसा व्यक्ति है, जिसके प्रेम को व्यवहार की तुला का बिलकुल ज्ञान ही नहीं होता। वह जानती है अपने पुत्र पर केवल वास्तविक प्रेम करना।

    मैंने शोण को बुलाकर कहा, “शोण ! यात्रा की तैयारी करो। कल चम्पानगरी चलना है।“ उसका चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा। शाल वृक्ष की तरह लम्बे-तड़ंगे होकर अनेक वर्षों के बाद, पहली बार हम चम्पानगरी की ओर जा रहे थे। अपनी जन्मभूमि की ओर ।

चीते के सिगरेट, हाथी की अफ़ीम, शेर की व्हिस्की और चूहे की दौड़…

एक चीता सिगरेट का सुट्टा लगाने ही वाला था कि अचानक एक चूहा वहाँ आया और बोला – “मेरे भाई छोड़ दो नशा, आओ मेरे साथ भागो, देखो ये जंगल कितना खूबसूरत है, आप मेरे साथ दुनिया देखो”

चीते ने एक लम्हा सोचा फ़िर चूहे के साथ दौड़ने लगा।

आगे एक हाथी अफ़ीम पी रहा था, चूहा फ़िर बोला – “हाथी मेरे भाई छोड़  दो नशा, आओ मेरे साथ भागो, देखो ये जंगल कितना खूबसूरत है, आओ मेरे साथ दुनिया देखो”

हाथी भी साथ दौड़ने लगा।

आगे शेर व्हिस्की पीने की तैयारी कर रहा था, चूहे ने उसे भी वही कहा।

शेर ने ग्लास साईड पर रखा और चूहे को ५-६ थप्पड़ मारे, हाथी बोला, “अरे ये तो तुम्हें जिंदगी की तरफ़ ले जा रहा था, क्यों मार रहे हो इस बेचारे को ?”

शेर बोला, “यह कमीना पिछली बार भी कोकीन पी कर मुझे ३ घंटे जंगल में घुमाता रहा”।

माँ-बाप को एक ही बेटे या बेटी से ज्यादा लगाव क्यों होता है…. क्यों ? यह प्रश्न है, जिसका उत्तर मैं ढूँढ़ रहा हूँ……..?

  यह एक ज्वलंत प्रश्न है पारिवारिक मुद्दों में,  माँ बाप को एक ही बेटे या बेटी से ज्यादा लगाव क्यों होता है।
  माँ-बाप के लिये तो सभी बच्चे एक समान होने चाहिये परंतु मैंने लगभग सभी घरों में देखा है कि किसी एक बेटे या बेटी से उन्हें ज्यादा लगाव होता है और वह भी काफ़ी हद तक अलग ही दिखता है कि उसकी सारी गलतियों पर परदा करते हैं और दूसरे बच्चों से ज्यादा उसका ध्यान रखते हैं, भले ही वो उद्दंड, सिद्धांन्तहीन हो, मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि इसके पीछे क्या भावना कार्य करती है, जो कि इस हद तक किसी एक बेटे या बेटी से भावनात्मक लगाव की स्थिती बन जाती है। भले ही वह उनकी सेवा न करे, उन्हें बोझ माने, उन्हें अपने सामाजिक स्थिती के अनुरुप न माने।
  माँ-बाप के लिये तो हर बच्चा एक समान होना चाहिये, बड़ा या छोटा बच्चा होना तो विधि का विधान है, उसमें माँ-बाप या बच्चे का कोई श्रेय नहीं होता है। जब विधि अपने विधान में अन्तर नहीं करती है, सबको बराबार शारीरिक सम्पन्नता देती है, फ़िर इस भौतिक जीवन में यह अन्तर क्यों होता है। जैसे शरीर के लिये दो आँखें बराबर होती हैं वैसे ही माँ-बाप के लिये अपने सारे बेटे-बेटी बराबर होना चाहिये, परन्तु बिड्म्बना है कि ऐसा नहीं होता है, कहीं बेटा या कहीं बेटी किसी एक से ज्यादा भावनात्मक लगाव होता है।

क्यों ? यह प्रश्न है, जिसका उत्तर मैं ढूँढ़ रहा हूँ……..?
  यह एक स्वस्थ्य बहस है, और अगर कोई भी आपत्तिजनक या व्यक्तिगत टिप्पणी पाई जाती है तो मोडरेट कर दिया जायेगा। शब्द विचारों को प्रकट करने का सशक्त माध्यम है कृप्या उसका उपयोग करें।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ४० [यज्ञ के लिए गुरु द्रोणाचार्य द्वारा मेरे लाये गये चीते को यज्ञ के लिए निषिद्ध बताना….]

    वह झपटकर दूर हट गया। अब मैंने उसपर भयंकर आक्रमण करना प्रारम्भ किया। एक के बाद एक। बँधी हुई मुट्ठी के सशक्त प्रहार उसकी पीठ पर, पेट पर, गरदन पर, जहाँ स्थान मिला वहीं पर करने लगा। वह अब पहले से अधिक बौखलाया हुआ-सा मुझपर आक्रमण करने लगा। लगभग दो घड़ी तक हम दोनों में द्वन्द्व होता रहा। अन्त में वह थक गया। मेरे रक्त की एक बूँद तक उसकी जीभ को प्राप्त नहीं हो सकी थी। थोड़ी देर पहले गरजनेवाला वह चीता अब भीतर ही भीतर गुर्राने लगा। भय से उसने अपनी पूँछ दोनों पैरों के बीच कर ली थी। मैं उसकी छाती पर बैठ गया। आस-पास पन्द्रह-बीस हाथ के घेरे में घास बुरी तरह कुचल गयी थी। पास की झाड़ी से एक वन्य लता मेरे पैरों तक आ गयी थी। एक हाथ से मैंने उसको खींच लिया। जोर से एक झटका मारते ही पन्द्रह-बीस हाथ लम्बी वह दृढ़ लता जड़ से उखड़कर मेरे हाथ में आ गयी। उस लता से मैंने उस चीते के दो-दो पैर एक जगह कसकर बाँध दिये। हाड़-मांस की सफ़ेद-काली एक भारी गठरी तैयार हो गयी।

    अन्धकार घिरने लगा था। उस विशाल प्राणी को कन्धे पर रखकर चन्द्रकला के धूमिल प्रकाश में मैं नगर की ओर मुड़ा । नगर में मैं जिस समय पहुँचा उस समय अर्धरात्रि हो गयी थी। अत्यन्त शीतल पवन शरीर को सुन्न किये दे रहा था। अपने उत्तरीय को मैं बहुदा नदी के पानी में भूल आया था। देह पर भीगे वस्त्र धूल से लथपथ हो गये थे। सम्पूर्ण नगर निद्राधीन था। केवल बादलों की गड़गड़ाहट-सी चीते के गुर्राने की आवाज ही आ रही थी। मैं युद्धशाला में आया। अन्य समस्त शिष्य वन-वन भटककर जिन प्राणियों को लाये थे, वे सब लकड़ी के एक घर में बन्द कर दिये गये थे। उन्हीं में मैंने अपने कन्धे पर रखा हुआ वह चीता फ़ेंक दिया जो अपनी मूँछों के बालों से मेरी गरदन पर अबतक गुदगुदी करता रहा था। उस घर के सभी प्राणी भय से किकियाने लगे। मैं जल्दी-जल्दी अपने कक्ष में गया और वस्त्र बदलकर सोने चला गया।

    प्रात:काल विधिवत यज्ञ प्रारम्भ हुआ। अन्त में वेदी पर बलि देने का अवसर आया। बलि लाने के लिए सभी लकड़ी के घर की ओर दौड़े । उनमें से एक शिष्य भीतर जाकर घबराकर, उलटे पैरों लौटकर यज्ञकुण्ड के पास आया। उसने गुरु द्रोण से कहा, “गुरुदेव, बलि के लिए कोई चीता ले आया है।“

   “चीता ! चलो देखें ।“ आश्चर्य से उनकी सफ़ेद भौंहें तन गयीं। गुरु द्रोणाचार्य के साथ हम सब लोग उस घर के पास आये। मुझको आशा थी कि उस चीते को देखते ही गुरुदेव पूछताछ करेंगे और मेरी पीठ ठोकेंगे। परन्तु मस्तक को अत्यधिक संकुचित करते हुए वे बोले, “इस चीते को कोई क्यों लाया है ? अरे यज्ञ तो शान्ति के लिये किया जाता है। यज्ञ में चीते की बलि देना निषिद्ध माना गया है। छोड़ दो इस चीते को।“

   परन्तु उसको छोड़ने के लिए कोई आगे ही नहीं बढ़ रहा था। अन्त में अकेला भीम आगे आया। मेरी बाँधी हुई बेलें उसने खोलीं। जो कुछ हुआ था, उससे वह चीता अत्यन्त भयभीत हो गया था। अपने प्राणों के डर से वह लकड़ी के घर की चहारदीवारी पर बहुत ऊँची छलाँग लगाकर क्षण-भर में अदृश्य हो गया।

    मेरी आशा खण्ड-खण्ड हो गयी। उसक दुख तो मुझको हुआ ही। परन्तु सच पूछो तो मुझे गुरुदेव द्रोण के उस निकम्मे जीवन-दर्शन से चिढ़-सी लगी। यज्ञ में क्रूर और हिंसक पशुओं की बलि क्यों न दी जाये ? निरपराध बकरे की अपेक्षा वास्तव में चीते-जैसे पशुओं की बलि ही दी जानी चाहिए।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३९ [यज्ञ के लिए गुरु द्रोणाचार्य की एक विचित्र प्रथा और मेरा बाघ को लाने का प्रण.. ]

    प्रत्येक वर्ष के अन्त में युद्धशाला में एक विशाल यज्ञ हुआ करता था। उस यज्ञ के लिए गुरु द्रोणाचार्य ने एक विचित्र प्रथा चला रखी थी। युद्धशाला के प्रत्येक शिष्य को यज्ञ में बलो देने के लिए एक-एक जीवित प्राणी अरण्य से पकड़कर लाकर अर्पण करना पड़ता था। किसी ने उनसे उस प्रथा के सम्बन्ध में पूछा था। उसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था कि इससे विद्यार्थी स्वावलम्बी और साहसी बनता है।

   एक बार वार्षिक यज्ञ के समय एक अविस्मरणीय घटना घटी। हम सभी लोग जीवित प्राणी लाने के लिए राजनगर से अरण्य की ओर चले। अरण्य प्रारम्भ होते ही सभी लोग भिन्न-भिन्न दिशाओं में फ़ैल गये। मैंने पूर्व दिशा को पकड़ा। चलते-चलते मन में विचार आया कि इससे पहले हरिण, साँभर, वन्य शूकर आदि प्राणी मैं अर्पण कर चुका हूँ। इस वर्ष इनसे बलवान कोई प्राणी मुझको अर्पण करना चाहिए। इनसे अधिक बलवान प्राणी कौन-सा है ? हाथी ? छि:, लकड़ियाँ तोड़नेवाला भारी-भरकम और कुडौल प्राणी है वह तो ! अश्व ? नहीं जी, अश्व को पड़ा तो जा सकेगा। फ़िर कौन-सा प्राणी ? चित्रमृग, वृक, तरस ? छि: सबसे अधिक सामर्थ्यवान प्राणी कौन-सा है? बाघ ! बस, इस वर्ष में बाघ ही अर्पण करुँगा। उसके लिए घोर अरण्य में जाना पड़ेगा। कोई चिन्ता नहीं। अवश्य जाऊँगा। सीमा पार करते हुए ही मैंने निश्चय किया।

    लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ, चौकन्नी दृष्टि से चारों ओर देखता हुआ मैं आगे बढ़ने लगा। दिन-भर घनघोर अरण्य में भटका। अनेक प्राणी मिले, प्रन्तु बाघ दिखाई ही नहीं दिया। दिन-भर भटकने के कारण प्यास बड़ी जोर की लग रही थी। सन्ध्या घिरती जा रही थी। विहग नीड़ों की ओर लौट रहे थे। मुँह का पसीना पोंछता हुआ मैं बहुदा नदी के किनारे पर आया। वहाँ खड़े होकर मैंने सूर्यदेव को वन्दन किया और मन ही मन कहा, “आज आपके शिष्य का संकल्प व्यर्थ हो रहा है।“

    एक काले पत्थर पर बैठकर मैंने अंजलि में पानी लिया। उस पानी को मुँह से लगाने ही जा रहा था कि एक प्रचण्ड भारी-भरकम पशु पीछे से मेरे ऊपर आ गिरा। मेरा सन्तुलन बिगड़ गया और मैं आगे बहुदा नदी के पानी में गिर पड़ा। मेरे साथ ही वह पशु भी पानी में आ गिरा। बहुदा का जल खबीला हो गया। मैंने उस पशु की ओर देखा। श्वेत और काले धब्बोंवाला वह एक चीता था। सन्ध्या होने के कारण वह पानी पीने के लिए घाट पर आया था। उसका मुख कुम्हड़ा-जैसा गोलमटोल था। उसकी आँखें गुंजा की तरह लाल थीं।

    मेरी आँखें आनन्द से चमकने लगीं। मैं पानी में हूँ, मेरे वस्त्र भीग गये हैं – इन बातों का मुझको बिलकुल भान नहीं रहा। मुझको मारने के लिए उसने अपना पंजा उठाया, उसे मैंने अपने हाथ से ऊपर का ऊपर ही पकड़ लिया और उसको खींचता हुआ एकदम पानी के बाहर ले आया। परन्तु पानी के बाहर आते ही चीते की और अधिक आवेश आ गया। मेरे हाथ से झटका देकर उसने अपना पंजा छुड़ा लिया। जल के स्पर्श से तथा मेरे विरोध से वह बौखला गया था। उसकी क्रुद्ध आँखों से आग बरसने लगी। जोर-जोर से गर्जना करता हुआ वह बार-बार मुझपर भयानक आक्रमण करने लगा। कभी-कभी वह पाँच-छह हाथ ऊँची छलाँग लगाता। उसकी रक्तवर्ण जीभ मेरा रक्त पीने के लिए निरन्तर लपलपाने लगी। जबड़ा फ़ाड़कर वह मेरे ऊपर झपटा। मैं उसके आक्रमणों का प्रत्युत्तर देने लगा। आधी घड़ी तक मैं अपनी रक्षा करने का प्रयत्न करता रहा। लेकिन मैं उसको रोक नहीं पा रहा था। मैंने अपनी देह की ओर देखा। उस क्रूर वन्य पशु ने सैकड़ों बार झपट्टे मारे होंगे, परंतु फ़िर भी उसके तीक्ष्ण दाँतों की अथवा नाखूनों की जरा-सी नोंक भी मेरी देह में घुसी नहीं थी। मेरी त्वचा अभेद्य है। यह अकेला ही क्या, ऐसे दस चीते मुझको नींद में भी नहीं खा सकते। विद्युत की एक तरंग-सी मेरी देह में सनसनाती चली गयी। क्षण-भर में ही मेरा शरीर रथ की तप्त हाल की तरह जलने लगा। मेरी सम्पूर्ण त्वचा अभेद्य है – केवल इस प्रतीति मात्र से ही मेरा शरीर अंगारे की तरह फ़ूल उठा। अकस्मात मैंने उस क्रूर पशु के मुँह पर कसकर तमाचा मारा।