फ़िर चले अपने घर मुंबई, चैन्नई से वापिस शाम की फ़्लाईट है, सफ़र पर जाने के पहले पेट में जाने कैसा कैसा महसूस होता है, वह मैं अभी साफ़ साफ़ महसूस कर रहा हूँ, हाँ यात्रा रोमांचक होती है पर केवल तब जब आप कभी कभी यात्राएँ कर रहे होते हैं, परंतु अगर यात्राएँ जीवन का अंग बन जायें तो वह रोमांच खत्म ही हो जाता है, पूरा जीवन यायावर हो जाता है।
बस अंतर केवल हममें और साधुओं में यही है कि वो नगरी नगरी बिना किसी लालच के ज्ञान बांटते हुए घूमते थे और हम घूमते हैं अपनी रोजी रोटी के लिये, बहुत पहले एक एस.एम.एस. आया था पहले जो लोग घर छोड़ कर दूर रहते थे अपने घरों से और कभी कभी घर आते थे, पहले उन्हें साधु कहते थे और अब उन्हें सॉफ़्टवेयर इंजीनियर कहते हैं।
घर पर बता दिया है पर बेटे को नहीं बताने का बोला है, उसे बोला है कि डैडी जल्दी घर पर चाहिये तो भगवान से प्रार्थना करो कि भगवान डैडी को जल्दी घर पर भेज दो, मैं उनके बिना नहीं रह पाता हूँ। कल तो भगवान से प्रार्थना करते हुए बहुत रो रहा था बोल रहा था “भगवान जी डैडी को जल्दी भेज दो मैं सबका कहना मानूँगा, कोई शैतानी नहीं करुँगा” तो मैंने बेटेलाल की मम्मी से पूछा कि अब क्या कर रहे हैं, पता चला कि कबका आँसू पोंछकर नीचे बगीचे में बच्चों की टोली में खेलने निकल गये हैं, सब नाटकबाजी है। हमें भी मन ही मन बहुत आनंद आया।
बस इस सफ़र का आनंद अपने बेटे के पास जाकर ही खत्म होगा, हमेशा की तरह मैं जैसे ही घंटी बजाऊँगा, वो दरवाजा खोलेगा और बोलेगा अरे डैडी आ गये, और फ़िर एक पल के लिये शरमा जायेगा और फ़िर अपना समान भी ढंग से नहीं रख पाता हूँ कि मेरे ऊपर सवार हो जाता है, और प्यार करते हुए कहता है, तुतलाते हुए “डैडी, डैडी मैं आपके बिना नहीं रह पाता हूँ, मुझे आपकी बहुत याद आ रही थी, और मैं रोया भी था, आप मेरे लिये क्या लाये हो !!!” फ़िर “अच्छा नहीं लाये हो तो कोई बात नहीं, मुझे चाकलेट खानी है, आईसक्रीम खानी है !!” और इसी आनंद में अपनी सारी थकान उतर जाती है।