उलझनें जिंदगी की बढ़ती जा रही हैं …. मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

इन उलझनों से निकलना चाहता हूँ,

तुम्हारे पास आकर तुम्हें महसूस करना चाहता हूँ,

उलझनें जिंदगी की बढ़ती जा रही हैं,

उलझनों में जिंदगी फ़ँसती जा रही है,

ये तो बिल्कुल मकड़जालों सी हैं,

जितना निकलने की कोशिश करो,

उतने ही जाल कसते जा रहा हैं,

जहर की तासीर बढ़ती जा रही है,

जलन महसूस कर रहा हूँ,

पर इससे निकलने की राह,

कठिन नजर आ रही है,

ऐसे दौर जीवन में आयेंगे ही,

और आते ही रहेंगे,

इन दौरों से सब अपने अपने तरीके से,

निपटते ही रहेंगे,

पर उलझनें कभी कम न होंगी,

जहर की तासीर कम न होगी,

बड़ती हुई तपन कम न होगी,

जीवन की कठिनाई कम न होगी,

उलझनों से उलझ कर ही सुलझा जा सकता है,

जहर के तासीर को कम किया जा सकता है,

तपन को शीतलता में बदला जा सकता है,

कठिनाईयाँ जीवन की सरल हो सकती हैं,

बस अगर तुम पास हो तो,

ये सब अपने आप सुलझ सकता है।

12 thoughts on “उलझनें जिंदगी की बढ़ती जा रही हैं …. मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

  1. भाई जल्दी से जल्दी काम निबटाओ और मुम्बई का टिकट कटाओ. ज्यदा अमय बाहर हो तो सभी के साथ ऐसा होता है.

  2. sab samajh mein aa raha hai Vivek ji, ghar se door, ghar waalon se door aisa hi prateet hota hai, lekin ghabdaaiye nahi sab kuch ekdam theek ho jaayega …aapki mehnat aur aapka tyaag vyarth nahi jaayega, vishwaas kijiye,,,
    aapki kavita bemisaal ban gayi hai..apne manobhavon ko aapne bahut hi saralta se vyakt kar diya..
    bahoot khoob..

  3. जहर के तासीर को कम किया जा सकता है,
    तपन को शीतलता में बदला जा सकता है,
    कठिनाईयाँ जीवन की सरल हो सकती हैं,
    बस अगर तुम पास हो तो,
    ये सब अपने आप सुलझ सकता है।
    सच है कुछ लोगों के पास रहने से बहुत सारी समस्यायों का हल सहज ही हो जाता है।
    धूमउ तजई सएज करूआई ।
    अगरू प्रसंग सुगंध बसाई । ।
    धुआं भी अगर के संग से सुगन्धित होकर अपने स्‍वाभाविक कडु़वेपन को छोड़ देता है ।

  4. तपन को शीतलता में बदला जा सकता है,
    कठिनाईयाँ जीवन की सरल हो सकती हैं,
    बस अगर तुम पास हो तो,
    वाह !! लाजवाब….. भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए आभार !

  5. अजी एक सिरे से शुरु करो धीरे धीरे सब सुलझ जायेगी, ओर अगर सब एक दम सुळझाअओ गे तो उलझने ओर भी उलझ जायेगी

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