Monthly Archives: June 2011

लड़कियों का सिगरेट पीना और शराब पीना समाज को स्वीकार करना चाहिये, समाज को बदलना होगा

    जब मैंने पहली बार प्रगति मैदान और राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के बाहर सिगरेट पीती हुई लड़कियों को देखा था, बड़ा अजीब लगा था कि लड़कियाँ भी सिगरेट पीती हैं। यह बात लगभग १४-१५ वर्ष पुरानी है। अब जब आज अपने आसपास देखता हूँ तो स्थितियाँ बहुत ही तेजी से बदलती जा रही हैं।
    अधिकतर स्मोकिंग जोन लंच के बाद भरेपूरे पाये जाते हैं, और इतने खचाखच होते हैं कि पैर रखने की जगह नहीं होती, अगर वहाँ कोई पैसिव स्मोकर हो तो पैसिव रहने से अच्छा है कि उसे खुद स्मोक शुरु कर देना चाहिये।
    लगभग पिछले ६ वर्षों से महानगरीय स्वरूप देख रहा हूँ। पहले दिल्ली में जहाँ कनॉट प्लेस, करोल बाग, इंडिया गेट हो या लाजपत नगर, डिफ़ेंस कॉलोनी, साऊथ एक्स. कोई भी जगह ले लो, लड़कियाँ समूह में खड़ी देख जायेंगी और उनको मजे से छल्ले उड़ाते हुए देखा जा सकता है।
    वैसे ही मुंबई में हालात ऐसे हैं कि वहाँ पर तो जहाँ मेरा कार्यालय था वहाँ लड़कों से ज्यादा स्मोकर लड़कियाँ थीं, और अगर समूह भी होते तो लड़कियाँ ज्यादा और लड़के कम और शेयर करके सिगरेट पीते हुए देखा जा सकता है। लड़कियाँ यहाँ शराब की दुकान से शराब भी खरीदते हुए देखी जा सकती हैं।
    अब आये बैंगलोर तो यहाँ तो ७०% जनता जवान है और उनकी जवानियों की अंगड़ाईयाँ यत्र तत्र सर्वत्र देखी जा सकती है, अभी जहाँ मेरा कार्यालय है वहाँ दोपहर में स्थिती देखने लायक होती है, सिक्योरिटी वाले बेचारे स्मोकर्स को चेताते चेताते परेशान हो जाते हैं, कि ये कृप्या यहाँ स्मोक न करें यह वर्जित क्षैत्र है, परंतु मजाल कि कोई सुन ले, और एक बात कि बैंगलोर में लगभग ७०% लोग कन्नड़ भाषा नहीं जानते क्योंकि वे सब उत्तर भारत से हैं। मैंने यहाँ बहुत सी लड़कियाँ देखी हैं जो कि चैन स्मोकर्स हैं। और अधिकतर स्मोकर्स लड़कियाँ वही हैं जो कि घर से बाहर रहती हैं।
    अभी थोड़े दिन पहले ही शुक्रवार को  देखा जब हम हायपर सिटी में हमारे आगे कुछ लड़कियाँ बिलिंग करवा रही थीं, व्हिस्की रम और वोद्का ले जा रही थीं और पेप्सी और कंडोम्स की बिलिंग करवा रही थीं, हमने अपनी घरवाली से कहा देखो इन लड़कियों ने सप्ताहांत पर रिलेक्स होने का पूरा इंतजाम कर लिया है, उनको भी कोई फ़र्क नहीं पड़ा क्योंकि महानगर में रहकर सोच बदल ही जाती है, खैर हमें भी अपनी सोच बदलनी होगी।
    आखिर लड़कियाँ भी कमा रही हैं आजाद हैं, स्वतंत्र हैं, घर से बाहर रहते हुए वे अपनी स्वतंत्रता का पूरा फ़ायदा उठाती हैं। यह आधुनिक सोच है और हम तो इसे मान चुके हैं कि जिसे जैसा रहना है वैसा रहे इसलिये अब कहीं कोई लड़की सिगरेट या शराब पीती हुई दिखती भी है तो हमें सामान्य जैसा ही लगता है, समाज को अब बदलना चाहिये वक्त आ गया है कि समाज को यह सच भी स्वीकार करना चाहिये कि लड़कियाँ भी लड़कों की तरह ही स्वतंत्र हैं और उनके यह अधिकार हैं अगर लड़कों के पास सारे अधिकार हैं तो। क्या हमें अपनी पुरातन मानसिकता की बेढ़ी से बाहर नहीं निकलना होगा ?

रेलयात्रा में अनजाने लोगों से यादगार मुलाकातें और उनकी ही सुनाई गई एक कहानी… (My Railway Journey..)

    रेलयात्रा करते हुए अधिकतर अनजाने लोगों से अलग ही तरह की बातें होती हैं, जिसमें सब बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं, और लगभग हर बार नयी तरह की जानकारी मिलती है।

    इस बार कर्नाटक एक्सप्रेस से जाते समय एक स्टेशन मास्टर से मुलाकात हुई जो कि अपने परिवार के साथ ७ दिन की छुट्टी के लिये अपने गाँव जा रहे थे। घर में सबसे बड़े हैं और अपने चचेरे भाईयों को उनके भविष्य के बारे में महत्वपूर्ण राय देते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि उनके भाई उनके मार्गदर्शन को मानते भी हैं और उनके मार्गदर्शन पर चलते हुए दो भाई सरकारी नौकरी में भी लग गये हैं, अब उन्हें तीसरे की चिंता है।

    ऐसे ही बातें चल रहीं थीं तो उन्होंने एक बहुत ही अच्छी छोटी सी कहानी सुनाई, कि अच्छे लोगों के साथ ही हमेशा बुरा क्यों होता है और हम यह भी सोचते हैं कि फ़लाना कितने बुरे काम करता है परंतु भगवान उसको कभी सजा नहीं देते।

    एक गाँव में दो दोस्त रहते थे और शाम के समय पगडंडी पर घूम रहे थे, पहला वाला दोस्त बहुत ईमानदार और नेक था और दूसरा दोस्त बेहद बदमाश और बुरी संगत वाला व्यक्ति था। तभी एक मोटर साईकिल से एक आदमी निकला तो उसकी जेब से एक १००० रूपये का नोट गिर गया। तो पहला दोस्त दूसरे से बोला कि चलो जिसका नोट गिरा है उसे मैं जानता हूँ, उसे दे आते हैं। दूसरा दोस्त बोला कि अरे नहीं बिल्कुल भी नहीं ये हमारी किस्मत का है इसलिये यहाँ उस आदमी की जेब से गिरा है, यह नोट उस आदमी की किस्मत में नहीं था, हमारी किस्मत में था, चल दोनों आधा आधा कर लेते हैं, ५०० रूपये तुम रखो और ५०० रूपये मैं रखता हूँ।

    पहले दोस्त ने मना कर दिया कि मैं तो ऐसे पैसे नहीं रखता तो दूसरा दोस्त बोला कि चल छोड़ मेरी ही किस्मत में पूरे १००० रूपये लिखे हैं, पर फ़िर भी पहला दोस्त उसे समझाता रहा कि देखो ये रूपये हमारे नहीं हैं, हम उसे वापिस लौटा देते हैं। परंतु दूसरा दोस्त मानने को तैयार ही नहीं होता है।

    चलते चलते अचानक पहले वाले दोस्त को पैर में कांटा लग जाता है और वह दर्द से बिलबिला उठता है। और दूसरा दुष्ट दोस्त १००० रूपये का नोट हाथ में लेकर नाचता रहता है।

    पार्वती जी शिव जी के साथ यह सब देखती रहती हैं। और शिव जी से शिकायत करती हैं कि यह कैसा न्याय है प्रभु, जो सीधा साधा ईमानदार है उसको मिला कांटा और जो दुष्ट और पापी है उसे मिला १००० रूपया। शिव जी पार्वती जी को बोलते हैं, ये सब मेरे हाथ में नहीं है, इसका हिसाब किताब तो चित्रगुप्त के पास रहता है। पार्वती जी कहती है कि प्रभु मुझे इनके बारे में जानना है आप चित्रगुप्त को बुलवाईये। चित्रगुप्त को बुलाया जाता है, और प्रभु उनसे कहते हैं, बताओ चित्रगुप्त इन दोनों दोस्तों के बारे में पार्वती जी को बताओ।

    चित्रगुप्त कहते हैं पहला दोस्त जो कि इस जन्म में पुण्यात्मा ईमानदार है, पिछले जन्म में महापापी दुष्ट था, इसकी तो बचपन में ही अकालमृत्यु लिखी थी, परंतु अपने कर्मों के कारण इसके बुरे कर्मों के फ़लों का नाश हो गया और आज जो इसे कांटा चुभा है वह इसके पिछले जन्मों में किये गये बुरे कर्मों का अंत था, अब इसके पुण्य इसके साथ ही रहेंगे।

    पार्वती जी बोलीं – चित्रगुप्त जी दूसरे दोस्त के बारे में बताईये। चित्रगुप्त कहते हैं दूसरा दोस्त पिछले जन्म में बहुत पुण्यात्मा और ईमानदार था परंतु इस जन्म में महापापी दुष्टात्मा है, अगर यह इस जन्म में भी पुण्यात्मा होता तो इसे तो राजगद्दी पर बैठना था, परंतु दुष्ट है इसलिये आज इसका पिछले जन्मों का पुण्य खत्म हो गया और इसे राजगद्दी की जगह १००० रूपयों से ही संतोष करना पड़ रहा है। और अब इसके पाप इसके खाते में लिखे जायेंगे।

रेल्वे द्वारा तकनीक के इस्तेमाल और कुछ खामियाँ सेवाओं में.. (Technology used by Railway… some problems in services)

    पिछले महीने हमने अपनी पूरी यात्रा रेल से की और विभिन्न तरह के अनुभव रहे कुछ अच्छे और कुछ बुरे। कई वर्षों बाद बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर गये थे, हमारा आरक्षण कर्नाटक एक्सप्रेस से था और सीट नंबर भी कन्फ़र्म हो गया था। तब भी मन की तसल्ली के लिये हम आरक्षण चार्ट में देखना उचित समझते हैं, इसलिये आरक्षण चार्ट ढूँढ़ने लगे, तो कहीं भी आरक्षण चार्ट नहीं दिखा। ५-६ बड़े बड़े टीवी स्क्रीन लगे दिखे जिसपर लोग टूट पड़े थे, हमने सोचा चलो देखें कि क्या माजरा है। पता चला कि आरक्षण चार्ट टीवी स्क्रीन पर दिखाये जा रहे हैं, हमने तो सपने में भी नहीं सोचा था कि रेल्वे तकनीक का इतना अच्छा इस्तेमाल भी कर सकता है। बहुत ही अच्छा लगा कि रेल्वे ने तकनीक का उपयोग बहुत अच्छे से किया जिससे कितने ही कागजों की बर्बादी बच गई।

    बैंगलोर रेल्वे स्टेशन पर तकनीक का रूप देखकर रेल्वे के बदलते चेहरे का अहसास हुआ। बस थोड़ी तकलीफ़ हुई कि ट्रेन कौन से प्लेटफ़ॉर्म पर आयेगी यह कहीं भी नहीं पता चल रहा था, हालांकि टीवी पर आने और जाने वाली गाड़ियों का समय के साथ प्लेटफ़ार्म नंबर दिखाया जा रहा था, परंतु हमारी गाड़ी के बारे में कहीं कोई जानकारी नहीं थी। खैर पूछताछ करके पता चला कि ट्रेन एक नंबर प्लेटफ़ार्म पर आने वाली है। पूछताछ खिड़्की भी केवल एक ही थी, जिस पर लंबी लाईन लगी हुई थी और लोग परेशान हो रहे थे। हम चल दिये एक नंबर प्लेटफ़ार्म की और, जैसे ही घुसे ट्रेन सामने ही थी अब डब्बे का पता नहीं चल रहा था क्योंकि पूरी ट्रेन की लोकेशन बाहर नहीं लगी थी, तो वहीं प्रवेश द्वार पर बैठे टी.सी. महोदय से पूछा कि डिब्बा किधर आयेगा, और उन्होंने तत्परता से बता भी दिया ( जो कि हमारी उम्मीद के विपरीत था )।

    खैर डब्बे में पहुँचे तो तप रहा था क्योंकि ए.सी. चालू नहीं किया गया था, थोड़ी देर बाद ए.सी. चालू किया तब जाकर राहत मिली। हमने सोचा कि द्वितिय वातानुकुलित यान में पहले के जैसी अच्छी सुविधाएँ मौजूद होंगी और पॉवर बैकअप होता ही है, तो बहुत दिनों से छूटे हुए ब्लॉग पोस्ट पढ़ लिये जायेंगे । पहले तो हमने अपना जरूरी काम किया तो अपने लेपटॉप की बैटरी नमस्ते हो ली, अब चाहिये था बैटरी चार्ज करने के लिये पॉवर, बस यहीं से हमारा दुख शुरु हो गया। १० मिनिट बाद ही पॉवर गायब हो गया, तो इलेक्ट्रीशियन को पकड़ा गया उसने वापस से रिसेट किया परंतु फ़िर वही कहानी १० मिनिट मॆं फ़िर पॉवर गायब हो गया। उसके बाद जब हम फ़िर से इलेक्ट्रीशियन को ढूँढ़ते हुए पहुँचे तो हमें बताया गया कि इससे आप लेपटॉप नहीं चला पायेंगे केवल मोबाईल रिचार्ज कर पायेंगे। लोड ज्यादा होने पर डिप मार जाती है। कोच नया सा लग रहा था तो पता चला कि रेल्वे ने पुराने कोच को ही नया बनाकर लगा दिया है। खैर यह समस्या हमने मालवा एक्सप्रेस में भी देखी परंतु आते समय राजधानी एक्सप्रेस में यह समस्या नहीं थी। अब क्या समस्या है यह तो रेल्वे विभाग ही जाने। परंतु लंबी दूरी की गाड़ियों में यह सुविधा तो होनी ही चाहिये, आजकल सबके पास लेपटॉप होते हैं और सभी बेतार सुविधा का लाभ लेते हुए अपना काम करते रहते हैं।

    द्वितिय वातानुकुलन यान की खासियत हमें यह अच्छी लगती है कि केबिन में सीटें अच्छी चौड़ी होती हैं, परंतु इस बार देखा तो पता चला कि सीटें साधारण चौडाई की थीं। और यह हमने तीनों गाड़ियों में देखा।

    जब आगरा में थकेहारे रेल्वे स्टेशन पर पहुँचे तो गर्मी अपने पूरे शबाब पर थी, और ट्रेन आने में लगभग १ घंटा बाकी था, हमने वहाँ उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय ढ़ूँढ़ा तो मिल भी गया और ऊपर से सबसे बड़ी खुशी की बात कि ए.सी. भी चल रहे थे, मन प्रसन्न था कि चलो रेल्वे अपने यात्रियों को कुछ सुविधा तो देता है। बस सोफ़े नहीं थे उनकी जगह स्टील की बैंचे डाल रखी थीं जिस पर यात्री ज्यादा देर तक तो बैठकर प्रतीक्षा नहीं कर सकता। आते समय भोपाल में भी हमने रात को ४ घंटे प्रतीक्षालय में बिताये वहाँ पर भी सुविधा अच्छी थी।

    जाते समय कर्नाटक एक्सप्रेस का खाना निहायत ही खराब था, केवल खाना था इसलिये खाया, ऐसा लग रहा था जैसे कि रूपये देकर जेल में मिलने वाला खाना खरीद कर खा रहे हैं (वैसे अभी तक जेल का खाना चखा नहीं है), वैसे हमें ऐसा लग रहा था तो हम अपने साथ बहुत सारा माल मत्ता अपने साथ लेकर ही चले थे, तो सब ठीक था। आते समय राजधानी एक्स. का खाना भी कोई बहुत अच्छा नहीं था, पहले जो क्वालिटी खाने की राजधानी एक्स. में मिलती थी अब नहीं मिलती। आते समय तो दाल कम पड़ गई होगी तो उसमें ठंडा पानी मिलाकर परोस दिया गया, लगभग सभी यात्रियों ने इसकी शिकायत की, टी.सी. को बोलो तो वो कहते हैं यह अपनी जिम्मेदारी नहीं और पूछो कि किसकी जिम्मेदारी है तो बस बगलें झांकते नजर आते ।

    खैर अब सभी चीजें तो अच्छी नहीं मिल सकतीं, पर कुल मिलाकर सफ़र अच्छा रहा और अब आगे रेल्वे की सुविधा का उपयोग केवल मजबूरी में ही किया जा सकेगा क्योंकि एक तो ३६-३९ घंटे की यात्रा थकावट से भरपूर होती है और उतना समय घर पर रहने के लिय भी कम हो जाता है। अगर रेल्वे थोड़े सी इन जरूरी चीजों पर ध्यान दे तो यात्रियों को बहुत सुविधा होगी।

    अगर पाठकों को पता हो कि इन खामियों की शिकायत कहाँ की जाये, जहाँ कम से कम सुनवाई तो हो, तो बताने का कष्ट करें।

बच्चों के शार्टब्रेक मॆं खाने के लिये क्या दिया जाये, स्कूल ने नोटिस निकाला

    बेटेलाल ने जब से स्कूल जाना शुरु किया है तब से उनके शार्ट ब्रेक और लंच के नाटक फ़िर से शुरु हो गये हैं। रोज जिद की जाती है कि मैगी, पास्ता, पिज्जा या बर्गर दो। हम बेटेलाल को रोज मना करते हैं, मगर कई बार तो जिद पर अड़ लेते हैं, सब बच्चे लाते हैं, और एक आप हैं कि मुझे इन चीजों के लिये मना करते हैं। हमने कितनी ही बार समझाया कि बेटा मैगी, पास्ता, पिज्जा ठंडे हो जाने पर बुल्कुल अच्छे नहीं लगते और स्वास्थ्य के लिये हानिकारक भी होते हैं। इस तरह से लगभग रोज की कहानी हो चली थी। और इस बात से लगभग सभी अभिभावक परेशान रहते हैं।
    शार्ट ब्रेक में अलग अलग चीजें दिया करते हैं अलग तरह के बिस्किट तो कभी उनकी कोई मनपसंदीदा नमकीन या मिठाई और खाने में रोटी सब्जी या परांठा सब्जी। पर बेटेलाल हैं कि कहते हैं उन्हें रोटी सब्जी नहीं मैगी दिया करें, पास्ता दिया करें। पैरेंट्स टीचर मीटिंग के दौरान स्कूल में उनकी मैडम ने हमें पहले ही मना कर दिया था कि बच्चों को यह सब चीजें नहीं दिया करें। परंतु बच्चे हैं कि मानते ही नहीं, घर पर इतनी जिद करते हैं और आसमान सिर पर उठा लेते हैं।
    दो दिन पहले बेटेलाल की स्कूल की वेबसाईट पर नोटिस में शार्ट ब्रेक में मेनू आ गया, जिसमें हर दिन का मेन्यू निश्चित है। अब बेटेलाल को समझा रहे हैं कि बेटा अभी भी मान जाओ नहीं तो स्कूल वाले अब लंच का भी मेन्यू दे देंगे फ़िर क्या करोगे ?
    हमेशा लंच बॉक्स में सब्जी बची हुई आती है, अब देखते हैं कि इस सबका क्या असर होता है। अभिभावक कितना भी समझा लें परंतु बच्चों को समझ में नहीं आता, अगर शिक्षक स्कूल में बोले तो वह बच्चों के लिये पत्थर की लकीर होता है।
    पहले कक्षा में ही लंच करना होता था, अब थोड़ी बड़ी कक्षा में आ गये हैं तो उनकी क्लॉस टीचर बच्चों को स्कूल के छोटे बगीचे में लंच करने ले जाती हैं और लंच करने के बाद टिफ़िन वापिस अपनी क्लॉस में रखकर फ़िर से बच्चे बगीचे में खेलने आ जाते हैं। बेटेलाल के मुँह से यह सब बातें सुनने के बाद अपने स्कूल के दिन याद आ जाते हैं।

बैंगलोर की वोल्वो परिवहन व्यवस्था (Bangalore’s Volvo Bus Transportation Facility)

    रोज सुबह ऑफ़िस जाना और वापिस आना, सब अपने सुविधानुसार करते हैं। वैसे ही हम भी सरकार की वोल्वो बस का उपयोग करते हैं, बैंगलोर में सरकार ने वोल्वो की बस सुविधा इतनी अच्छी है कि अपनी गाड़ी लेने का मन ही नहीं करता है। यहाँ वोल्वो का नाम “वज्र” दे रखा है। चूँकि हम मुंबई में लंबे समय रह चुके हैं तो २०-२५ मिनिट चलना अपने लिये कोई बड़ी बात नहीं और वह भी मुंबईया रफ़्तार से, इसलिये कहीं भी आने जाने के लिये वोल्वो का ही उपयोग करते हैं।

    वोल्वो बसों की निरंतरता भी अच्छी है लगभग हर ५-१० मिनिट में व्यस्त रूट की वोल्वो बस उपलब्ध है, कुछ रूट ऐसे भी हैं जहाँ निरंतरता ३० मिनिट से १ घंटे तक की है। टिकट की कीमत भी कम से कम १० रूपये और अधिकतम ४५ रूपये है, यदि दिन भर में ज्यादा यात्रा करनी है तो ८५ रुपये का दिन भर का पास खरीद सकते हैं, जिसमें वोल्वो समेत लगभग सभी बैंगलोर लोकल वाली बसों में यात्रा कर सकते हैं। इस पास से केवल वायु वज्र और बैंगलोर राऊँड बसों में यात्रा नहीं कर सकते हैं। पूरे महीने का पास भी है, जो कि बहुत ही सस्ता पड़ता है, लगभग १३५० रूपयों का, जिसमें किसी भी रूट पर कितनी भी बार पूरे महीने में यात्रा की जा सकती है।

    आरामदायक सीट होने के साथ ही वातानुकुलित होना इस वोल्वो बस की विशेषता है, और अगर आप अपने साथ अपना सूटकेस या बैग भी ले जा रहे हैं तो उसके लिये अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया जाता है। इसमें दोनों दरवाजों पर चालक का नियंत्रण रहता है, टिकट देने के लिये कुछ कंडक्टरों के पास हैंडहैल्ड मशीन होती है, जिस पर टिकट कहाँ से कहाँ तक के लिये दिया जा रहा है और उसका शुल्क टंकित रहता है। ज्यादातर चालक परंपरागत टिकट देते हैं, वोल्वो के स्टॉप कम होते हैं, और बहुत ही कम समय में अधिक गति पकड़ना इसकी विशेषता है। सड़कें अच्छी होने की वजह से झटके नहीं लगते और अगर कहीं सड़क ठीक ना भी हो तो भी इसके शॉक अप अच्छॆ हैं, झटके नहीं लगते हैं।

    गंतव्य बोर्ड पर लिखा होता है जो कि इलेक्ट्रॉनिक होता है, जिस पर बस का नंबर और स्थान लिखा होता है, यह कन्न्ड़ और आंग्ल भाषा मॆं होता है। वोल्वो में एक चौंकाने वाली बात हमॆं पता चली कि इसमॆं गियर आटोमेटिक होते हैं, केवल एक्सीलेटर और ब्रेक होता है। बिल्कुल बड़ी लेडीज टूव्हीलर जैसी, बस यह चार पहियों की होती है। इसलिये जब चालक ब्रेक मारता है तो जोर का झटका लगता है, जो कि गियर वाली गाड़ियों में बहुत कम लगता है।

    वैसे वोल्वो बस चालक कहीं पर भी रोक लेते हैं, अगर यात्री चढ़ाने होते हैं पर उतारने के लिये केवल बस स्टॉप पर ही रोकते हैं। सबसे अच्छी बात कि इन बसों में सीटों के लिये कोई आरक्षण नहीं होता। वोल्वो बस से जितनी ज्यादा कमाई होगी उतना ही ज्यादा कमीशन कंडक्टर और चालक को मिलता है, इसलिये चालक और कंडक्टर दोनों ही ज्यादा यात्रियों को लेने के चक्कर में रहते हैं। जिससे बेहतरीन सेवा तो मिलती ही है अपितु यात्री अपने गंतव्य पर जल्दी पहुँच जाते हैं।

    ऐसे ही हवाईअड्डा बैंगलोर से लगभग ४५ कि.मी. दूर स्थित है, और वायुवज्र वोल्वो सेवा लगभग बैंगलोर के हर हिस्से को जोड़ती है और इसका अधिकतम किराया १८० रुपये है, समान रखने के लिये अलग से स्टैंड बनाये गये हैं, इन बसों की निरंतरता कम है और लगभग हर रूट पर १ घंटे का अंतराल है। हवाई अड्डे से बैंगलोर आने के लिये टैक्सियों की सुविधा भी है, जो कि १५ रुपये कि.मी. से मीटर से चलती हैं, इनमें रात्रि के लिये कोई अतिरिक्त शुल्क नहीं लिया जाता है। अगर बस टर्मिनल तक आयें तो कुछ टैक्सियाँ जो कि बैंगलोर जा रही होती हैं, उनसे मोलभाव किया जा सकता है और अधिकतम ३५० रूपये में बैंगलोर पहुँचा जा सकता है, जबकि मीटर वाली टैक्सी मॆं मीटर से किराया देना होता है जो कि दूरी पर निर्भर करता है अगर आप ४५ कि.मी. जा रहे हैं तो लगभग ७५० रूपयों का मीटर बनता है।

    ऑफ़िस जाने के लिये बहुत सारी कंपनियों में कैब / बस की सुविधा भी रहती है, और अगर आपको कहीं जाना है तो कंपनी की कैब / बस को हाथ देने में बुराई नहीं है वे लंबी दूरी के भी केवल १० रूपये लेती हैं, क्योंकि वे अपने कंपनी के कर्मियों को छोड़कर वापिस जा रही होती हैं।

    बैंगलोर के यातायात परिवहन के बारे में इतनी जानकारी शायद बहुत है। एक बात और गूगल मैप पर जब आप Get Direction by Public Transport ढूँढ़ते हैं तो यह वज्र और वायु वज्र बसों की जानकारी देती है, जिससे आपको पता चलता है कि उस रूट पर कौन सी बस से आप सफ़र कर सकते हैं। बैंगलोर की सभी बसों के बारे में अधिक जानकारी www.bmtcinfo.com पर Route Search से भी ले सकते हैं।

बच्चों के साथ कार्टून देखिये, कि आखिर कार्टून में परोसा क्या जा रहा है। (Must Watch Cartoon Channels with your Child…? Check what is there… ?)

    कल बेटेलाल के साथ बुद्धुबक्से को देख रहे थे और उनके कार्टून चैनल निक्स पर डोरीमोन आ रहा था, हालांकि हमने अपने बचपन में कभी कार्टून नहीं देखे, उस समय आते भी थे तो केवल विदेशी कार्टून स्पाईडरमैन या फ़िर रामायण देख लो।

    आजकल तो बुद्धुबक्से पर करीबन १०-१२ चैनल कार्टून के लिये ही हैं, जिस पर २४ घंटे कार्टून परोसे जाते हैं, जिसमें कुछ डिज्नी के हैं, कुछ जापानी और कुछ भारतीय। हालांकि इन चैनलों पर आजकल डिजनी के प्रसिद्ध कार्टून डोनाल्ड डक और मिकी माऊस कम ही देखने को मिलते हैं ।

    बच्चों के साथ कार्टून देखने का अपना अलग मजा है, वापिस से हम बचपन के युग में पहुँच जाते हैं, और बच्चों की सायकोलोजी भी समझने का मौका मिलता है, बहुत से वाक्य जो हमारे बेटेलाल बोलते हैं, पता चला कि कार्टून चैनल्स की देन है। कुछ कार्टूनों में तो वाकई हिन्दी में गजब अनुवाद किया गया है, परंतु कुछ कार्टूनों को तो बैन कर देना चाहिये। यहाँ तक कि कार्टून में आवाजें भी हिन्दी फ़िल्म अभिनेताओं से मिलती होती हैं, जो कि सुनने पर आसानी से पहचानी जा सकती हैं।

    वैसे आजकल भारतीय कार्टून भी बहुतायत में उपलब्ध हैं और अच्छे शिक्षाप्रद एपीसोड आते हैं, परंतु अच्छे विचार और अच्छे संस्कार केवल कार्टून से नहीं डाले जा सकते हैं, क्योंकि इस तरह के कार्टून केवल १०-१५% ही होते हैं, बाकी के तो बकवास ही होते हैं।

    जैसे हमारे बेटेलाल कल हमसे कह रहे थे “डैडी ये डोरीमोन कहाँ मिलता है, अपन भी एक डोरीमोन ले आते हैं, जो कि मुझे ढेर सारे गेजेड्ट्स लाकर देगा।”

    मूल केवल यह है कि बच्चे कार्टून जरूर देख रहे हैं, परंतु कार्टून में क्या परोसा जा रहा है उसे नजरअंदाज मत कीजिये और आप भी कार्टून देखिये और बच्चों को स्वच्छ और अच्छॆ कार्टून देखने को प्रेरित कीजिये।

आगरा में ताजमहल जूते खरीदने के लिये जाना.. (Purchased Shoes from Tajmahal, Agra)

    वृन्दावन से मथुरा होते हुए सीधे आगरा निकल पड़े और सोचा गया कि पहले ताजमहल पर अपनी खरीदारी कर फ़िर परिचित के घर मिलने जायेंगे।

    दोपहर में सूर्य देवता अपने पूरे क्रोध पर थे और ताजमहल पहुँचकर तो उनका प्रकोप देखते ही बनता था, दोपहर के २ बजे थे फ़िर भी पर्यटकों का तांता लगा हुआ था।

    जी हाँ हम ताजमहल खरीदारी करने गये थे ना कि ताजमहल देखने, ताजमहल बहुत बार देख चुके हैं और इतनी कड़ी धूप में इतनी चलने की भी श्रद्धा नहीं थी। गाड़ी पार्किग के पास मीना बाजार है और उसके आगे जायें तो एक और बाजार पड़ता है जो कि उत्तरप्रदेश हैंडलूम्स का है, जहाँ सरकारी दुकानें हैं, संगमरमर से बने समानों की, बिस्तर,  चमड़े के जूते यहाँ की विशेषता है।  दो वर्ष पूर्व हमने यहाँ से चमड़े का एक जूता लिया था जो कि हमने लगभग हर मौसम में पहना और जितनी बुरी तरह से उपयोग कर सकते थे किया, परंतु मजाल उस जूते को कुछ हुआ हो, वह अब भी वैसा ही है, जैसे कि नया ही लिया हो।

    जूते की खासियत है कि यहाँ केवल भेड़ और ऊँट के चमड़े के ही जूते मिलते हैं, और टिकाऊ इतने कि अच्छी अच्छी कंपनियाँ भी शर्मा जायें। और जब मन भर जाये तो इन जूतों को वापिस कर दीजिये और कीमत का ५०% आपको वापिस मिल जायेगा।

तांगे में (आगरा) ऊँट गाड़ी आगरा

    इस बार हमने बिना लैस के जूते खरीदे और एक जोधपुरी चप्पल भी खरीदी, जब एक बार समान उपयोग कर लिया तो फ़िर विश्वास जम ही जाता है। जब हम जूते खरीद रहे थे तो और भी लोग जूते देख रहे थे, परंतु वही विश्वास वाली बात है कि इतनी जल्दी कोई थोड़े ज्यादा रुपयों की चीजें खरीदने की हिम्मत नहीं करता । खैर पिछली बार हमने २५५० रुपये के जूते लिये थे इस बार १५५० रुपये के जूते और ९५० रुपये की जोधपुरी चप्पल खरीदी। जो कि वुड्लैंड जैसी कंपनी के जूते चप्पलों से सस्ती और टिकाऊ है, आराम के मामले में बीस ही है। अच्छी बात यह है कि आप पैमेन्ट क्रेडिट कार्ड से भी कर सकते हैं।

    गर्मी के मारे बुरा हाल था तो आने जाने का तांगा कर लिया गया और वापिस पार्किंग पर आने पर कंचे वाली बोतल का सोडा गटागट पिया गया, थोड़ा तरोताजगी लगी तो फ़िर चल दिये परिचित के यहाँ, उसके पहले उपहार खरीदने निकल पड़े सदर की और, वहाँ पहुँचकर घरवाली तो चल दी उपहार खरीदने और हम चल दिये कुछ ठंडा पीने और खाने, हमने और बेटेलाल ने मिलकर ठंडा खा पीकर गर्मी भगाने की कोशिश की।

    शाम को परिचित के घर से मिलकर फ़िर एक बार आगरा बाजार में आये और गमछा खरीदा, फ़िर शाम के भोजन के लिये डोमिनोस पिज्जा गये, इच्छा तो रामबाबू के परांठे खाने की थी, परंतु समय की कमी के चलते पिज्जा से काम चलाया गया और फ़िर फ़टाफ़ट चल दिये आगरा कैंट रेल्वे स्टेशन।

यमुना नदी जो अब नाले में तब्दील हो चुकी है। आगरा का पुराना लोहे का पुल

आगरा के बाजार का एक दृश्य और बैनर ग्राहकों से निवेदन

जामा मस्जिद आगरा यह पूर्व के लगभग हर प्रदेश में देखने को मिलेगा।

    आगरा कैंट रेल्वे स्टॆशन पर हमारी गाड़ी के ड्राईवर बोले कि बाहर ही उतार देता हूँ अंदर पार्किंग शुल्क ले लेते हैं, हमने कहा ऐसे कैसे ले लेंगे चलो हम देखते हैं, क्या किसी को छोड़ने भी नहीं आ सकते, अपना समान उतारा और जब ड्राइवर गाड़ी चलाने को हुआ तो पार्किंग शुल्क देने को कहा गया, हमने कहा चलो यह बताओ कि तुम्हारा पार्किंग का एरिया क्या है और उसके क्या नियम हैं, चलो पुलिस थाने वहाँ जाकर बात करते हैं। पार्किंग वाला बंदा चुपचाप खिसक लिया।

    आगरा कैंट पहुँचे तो देखा कि अभी तो ट्रेन आने में १ घंटे का समय है और बाहर तो गर्मी के मारे हलकान हुए जा रहे हैं, तो समान एक जगह रख अपने परिवार को कहा कि हम देखकर आते हैं अगर उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय मिलता है तो देखते हैं, और अच्छी बात यह हुई कि उच्चश्रेणी प्रतीक्षालय मिल भी गया और वातानुकुलन भी काम कर रहा था, रेल्वे की इतनी अच्छी सुविधाएँ देखकर बहुत अच्छा लगा।

खैर ट्रेन आई और लगभग ३० मिनिट लेट, हम चल दिये उज्जैन की और ।

ब्रजक्षैत्र के भोजन का आनंद और बच के रहें ब्रज के ठगों से भी..

    वृन्दावन में चाट और लस्सी का स्वाद अद्वितिय है, और ब्रजक्षैत्र का भोजन आज भी बेहद स्वादिष्ट होता है। हमने तकरीबन ३-४ बार लस्सी पी, जिसमें ऊपर से मलाई भी डाली जाती है और वह भी कुल्हड़ के गिलास में।

    जब निधिवन की ओर जाते हैं तो वहीं गोल चक्कर पर बहुत से गाईडनुमा लोग मिलते हैं, जो कि आपको बोलते हुए मिलेंगे कि आपको ३० रुपये मॆं ४ मंदिरों के दर्शन करवायेंगे, जिसमें से एक मंदिर में ये ठग ले जाते हैं। टाईल्स और चारों धाम के पुण्यों के नाम पर नकली रसीद और मीरा के भजनों के नाम पर लूटते हैं, इनसे सावधान रहें। हमसे भी यही कहा गया तो हमने १०० रुपये में अपना पीछा छुड़ाया, नहीं तो उनका तो कम से कम भाव ही १५००-१६०० रुपये का है, और कहते हैं कि जीवनभर एक घंटा आपके नाम का भजन होता रहेगा, यहाँ लगभग ३००० से ज्यादा मीराबाईयाँ रहती हैं, जो गाईड हमें मिला था वह तीन मंदिरों में दर्शन के बाद हमसे पैसा मांगकर भागने के चक्कर में था तो हमने उससे कहा कि भई चार मंदिर का बोला है, और जब तक चौथे मंदिर के दर्शन नहीं करवाते हम पैसे नहीं देंगे, ऐसे धार्मिक आस्था के खिलवाड़ करने वाले लुटेरों को उज्जैन मॆं भी देखते आ रहे हैं।

दक्षिण भारतीय शैली में मंदिरसेठ द्वारा बनवाया गया मंदिर का लकड़ी नक्काशी जैसा द्वार

परकोटे में मंदिरनक्काशी द्वार पर

बैकुण्ड द्वारमंदिर का लंबा गलियारा

मंदिर का बड़ा सा गलियारायह खंबा भी सोने का है

यह भी सोने का हैये भी सोने का है

विष्णुजी के दर्शन के पश्चातसोने का हाथी

हर्ष की कुछ शैतानियाँ

    हाँ यहाँ के बात और हर बात के बाद ये लोग बोलेंगे ताली बजाकर हँसिये तो जीवन भर हँसेंगे।

    जब मंदिरों के दर्शन हो गये और वक्त लगभग ११.३० हो चुका था, दोपहर की गर्मी से बेहाल थे, इतने बेहाल थे कि पैदल चलने की सोच भी नहीं पा रहे थे। इसलिये फ़िर से रिक्शे का सवारी के तौर पर उपयोग किया गया। पूरे वृन्दावन में बंदरों से सतर्क रहें, वे जूते, चप्पल, घड़ी, चश्मा, प्रसाद किसी पर भी हमला करके उसका भरपूर आनंद लेते हैं।

    एक ढ़ाबे पर चना मसाला, दाल और तंदूरी रोटियों का आनंद लिया गया, बहुत वर्षों बाद बाहर कहीं इतना स्वादिष्ट खाना खाया था। और उसके बाद फ़िर एक एक लस्सी का आनंद लिया गया। वक्त लगभग हो चला था दोपहर के १२ । हमारा मन मथुरा में कृष्ण जन्मभूमि के दर्शन करने का भी था पर १२ बजे से २ बजे तक जन्मभूमि के दर्शन बंद रहते हैं, और हमें आगरा में खरीदारी भी करनी थी और पारिवारिक मित्र के साथ मिलना भी था, तो हमने सोचा कि चलो अब सीधे आगरा चला जाये।

    गर्मी अपने भरपूर उफ़ान पर थी, और रास्ते में ऐसे बहुत सारे यातायात के साधन देखने को मिले जो वर्षों बाद देखे, जैसे कि जुगाड़, बैलगाड़ी, भैंसागाड़ी।