Monthly Archives: September 2012

तश्तरी में खाना ना छोड़ क्या पेट पर अत्याचार कर लें ?

    आज सुबह नाश्ता करने गये थे तो ऐसे ही बात चल रही थी, एक मित्र ने कहा कि फ़लाना व्यक्ति नाश्ते में या खाने की तश्तरी में कुछ भी छोड़ना पसंद नहीं करते और यहाँ तक कि अपने टिफ़िन में भी कुछ छोड़ते नहीं हैं। वैसे हमने इस प्रकार के कई लोग देखे हैं जो इन साहब की तरह ही होते हैं जो कि अपने तश्तरी में कुछ छोड़ना पसंद नहीं करते। शायद कुछ लोग अपनी लुगाई के डर से नहीं छोड़ते, नहीं तो घर में महासंग्राम हो जायेगा, “अच्छा तो अब हमारे हाथ का खाना भी ठीक नहीं लगता जो तश्तरी में खाना छोड़ा जा रहा है।”

    हमारा मत थोड़ा अलग है, हम सोचते हैं कि तश्तरी में खाना छोड़ना, न छोड़ना अपने अपने व्यक्तिगत विचार हैं, जिस पर किसी और व्यक्ति का अपने विचार थोपना ठीक नहीं है। अब अगर कोई किसी होटल में खा रहा है और खाने का समान ज्यादा है तो इसका मतलब यह तो नहीं कि खाते नहीं बने फ़िर भी बस भकोस लिया जाये । छोड़ने से होटल वाला किसी गरीब को भी नहीं देने वाला है, क्योंकि वह तो फ़ेंकेगा ही।

    जो लोग ऐसे उपदेश देते हैं, वे कहते हैं कि हम अन्न की कीमत जानते हैं, भई अन्न की कीमत तो हम भी जानते हैं, परंतु वे खुद ही सोचें क्या व्यवहारिकता में यह संभव है। हम तो सोचते हैं कि रोजमर्रा के व्यवहार में यह संभव नहीं है। आदमी कितना ही गरीब हो वह इज्जत की रोटी खाना चाहता है, जो आदमी ये खाना खाता भी होगा, क्या कभी उसके मन को पढ़ने की कोशिश की है, कि वो किस दर्द से गुजर रहा होगा। अगर पढ़ने की कोशिश की होती और आपका मन उसकी मदद करने को होगा तो आप कम से कम उसे खाना नहीं देंगे उसे किसी और तरह से मदद कर देंगे, जैसे कि कोई छोटा काम दे दें, मेहनत के पैसे कमाने से उसे भी खुशी होगी।

    हाँ कुछ ढीट होते हैं जो कि काम करना ही नहीं चाहते और मुफ़्त में ही माल खाना चाहते हैं, तो मैं कहता हूँ कि अगर हम ऐसे ही उन लोगों के लिये सोचते रहेंगे तो वो लोग भी कभी सुधरने वाले नहीं हैं। बल्कि हम उन लोगों को बढ़ावा ही दे रहे हैं।

    हाँ आप अगर बफ़ेट में खा रहे हैं तो आप खाना उतना ले सकते हैं जितना आप खा सकते हैं, परंतु अगर कहीं पूरी प्लेट ही आपको ऑर्डर करनी है तो यह संभव नहीं है कि आप पूरा खा लें और अपने पेट पर अत्याचार करें। मैं तो खाने की तश्तरी में छोड़ना या ना छोड़ने के बारे में ज्यादा सोचता नहीं, क्योंकि यह निजता है और हम अपनी निजता का उल्लंघन नहीं होने देना चाहते, सबके अपने व्यक्तिगत विचार होते हैं, उनका सम्मान करना चाहिये।

    पेट पर अत्याचार (हमारे मित्र विनित जी द्वारा बहुतायत में उपयोग किया जाने वाला वाक्य है ।)

विचारों के प्रस्फ़ुटन से एक नई सृष्टि का निर्माण होता है।

    कई बार सोचा इस क्षितिज से दूर कहीं चला जाऊँ और कुछ विशेष अपने लिये सबके लिये कुछ कर जाऊँ, परंतु ये जो दिमाग है ना मंदगति से चलता है, इसे पता ही नहीं है कि कब द्रुतगति से चलना है और कब मंदगति से चलना है। दिमाग के रफ़्तार की चाबी पता नहीं कहाँ है। और ये भी नहीं पता कि मंदगति से एकदम द्रुतगति पर कैसे ले जाया जाये।

    विचारसप्ताहांत में पाँचसितारा होटल में अकेला कमरे में दिनभर दिमाग दौड़ाने की कोशिश करता हूँ, परंतु दिमाग भी वातानुकुलन से प्रभावित हो चुका है और एक अजीब तरह का अहसास दिमाग में कुलबुलाने लगता है। शायद दिमाग इस होटल के कमरे की दीवारों की मजबूती देखना चाहता हो, हजारों विचार छिटक के इधर उधर निकल पड़ते हैं, दीवारों से टकराकर नष्ट होने की कोशिश करते हैं परंतु एक विचार के टूटने से चार नये खड़े हो जाते हैं। ज्यादा हो जाता है तो खिड़की के पास जाकर बाहर को देख लेता हूँ, सोचता हूँ कि शायद कुछ विचार इस खिड़की से बाहर गिर पड़ें और यह कमरा थोड़ा भारहीन हो जाये।

    खिड़की के पास जाकर शीतलता का अहसास कम हो जाता है और तपन लगने लगती है, जब शीतलता से तपन में जाते हैं तो तपन अच्छी लगती है और ऐसे ही जब तपन से शीतलता में आते हैं तो शीतलता अच्छी लगती है। मानव को कौन समझ पाया है, पता नहीं जब मानव फ़ैसला लेता है तो वह दिमाग से लेता है या दिल से लेता है।

    मानव को अपने आप को समझने की प्रवृत्ति ही मानव को अपने अंदर के प्रकाश की और धकेलती है, उसे समझने की कोशिश में ही मानव बाहरी ज्ञान को भूल अंतरतम में झांकने की कोशिश करता है, कभी यह कोशिश नाकाम होती है तो कभी यह कोशिश सफ़ल होती है।

    रफ़्तार की भी अपनी गति होती है और स्थिरता के स्थिर में भी एक गति होती है, शून्य में कुछ भी नहीं है, जब विचार अपने पूर्ण वेगों से प्रस्फ़ुटित होते हैं, पूर्ण आवेग में आते हैं तो विचार अंगारित हो जाते हैं और विचारों के प्रस्फ़ुटन से एक नई सृष्टि का निर्माण होता है। कई बार गति आवेग और वेग सब जाने पहचाने से लगते हैं, अपने से लगते हैं। किंतु यह भी सर्वथा सार्वभौमिक सत्य है ‘गति, आवेग और वेग’ कभी किसी की साँखल से नहीं बँधा है। सब पूर्व नियत है, सब पूर्व नियोजित है।

शब्द-शक्ति के भेद (३) व्यंजना – 2 – रस अलंकार पिंगल

(१) शाब्दी व्यंजना – शाब्दी व्यंजना वहाँ होती है, जहाँ व्यंग्यार्थ शब्द के प्रयोग पर आश्रित रहता है। इसके दो भेद किये गये हैं – (अ) अभिधामूला और लक्षणामूला ।

(अ) अभिधामूला – एक शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं लेकिन जब अनेक अर्थ वाले शब्द को संयोग, वियोग साहचर्य आदि के प्रतिबन्ध द्वारा एक ही अर्थ में नियन्त्रित कर दिया जाता है, तब जिस शक्ति द्वारा उसके अन्य अर्थ का भी बोध होता है तब वहाँ अभिधा मूला शाब्दी व्यंजना मानी जाती है।

उदाहरणार्थ –

चिर-जीवौ जोरी जुरै क्यों न स्नेह गम्भीर।

को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के वीर॥

इस उदाहरण में ‘वृषभानुजा’ और ‘हलधर’ शब्दों के दो-दो अर्थ हैं लेकिन यहाँ ‘वृषभानुजा’ का ‘राधा’ (वृषभदेव की पुत्री) और ‘हलधर’ के ‘वीर’ को श्रीकृष्ण (बलराम के भाई) के एक ही अर्थ में नियन्त्रित कर दिया गया है, किन्तु इन अर्थों के साथ ‘गाय’ और ‘बैल’ का व्यंग्यार्थ भी निकलता है और यही अर्थ इस दोहे को सुन्दर बनाये हुए है।

शब्द के अनेक अर्थों को नियन्त्रित करने के लिये भारतीय आचार्यों ने संयोग, वियोग आदि १३ प्रतिबन्धों का विवेचन किया है।

(१) संयोग – अनेकार्थी शब्द के किसी एक ही अर्ह्त के साथ प्रसिद्ध सम्बन्ध को संयोग कहते हैं।

(२) वियोग – अनेकार्थी शब्द के एक अर्थ का निश्चय जब किसी प्रसिद्ध वस्तु सम्बन्ध के अभाव से होता है तब बहाँ वियोग माना जाता है।

(३) साहचर्य – प्रसिद्ध साहचर्य सम्बन्ध से अर्थ बोध होने पर साहचर्य होता है।

(४) विरोध – प्रसिद्ध विरोध के आधार पर जब अर्थ का निर्णय होता है तब वहाँ विरोध होता है।

(५) अर्थ – प्रयोजन के कारण जब अनेकार्थी शब्द का एक ही अर्थ निश्चित हो।

(६) प्रकरण – किसी विशेष प्रसंग के कारण जब बक्ता अथवा स्रोता की बुद्धिमानी से एक अर्थ निश्चित हो।

पहले के भाग यहाँ पढ़ सकते हैं –

“रस अलंकार पिंगल [रस, अलंकार, छन्द काव्यदोष एवं शब्द शक्ति का सम्यक विवेचन]”

काव्य में शब्द शक्ति का महत्व – रस अलंकार पिंगल

शब्द शक्ति क्या है ? रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा– 2 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 3 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (३) व्यंजना – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (३) व्यंजना – 1 – रस अलंकार पिंगल

(३) व्यंजना – कवि महत्व की दृष्टि से व्यंजना का महत्व सर्वाधिक माना गया है। वही काव्य श्रेष्ठ माना जाता है जिसमें व्यंजना शक्ति या व्यंग्य मुख्य हो। जब वाच्यार्थ या लक्ष्यार्थ के अभाव में अन्य अर्थ ग्रहण किया जाता है, तब वहाँ व्यंजना शक्ति मानी जाती है। उदाहरणार्थ –
सूर की निम्न पंक्तियों में व्यंजना शक्ति का चमत्कार है-
‘हम सौ कहि लई सो सुनि कै जिय गुन लेहु अपाने।
कहँ अबला कहँ दसा दिगम्बर समुख करौ पहिचानै॥’
कहाँ तो अबला ( युवती स्त्रियाँ और कहाँ योगियों की भाँति नग्न रहना, भला इन दोनों में कोई समानता है ? हे उद्धव ! इस बात को तुम हृदय में अच्छी प्रकार जमा लो कि तुमने जो कुछ (हे युवतियों ! नग्न रहो, यह बहुत अच्छा कार्य है) हमसे (अपने घनिष्ठतम मित्र कृष्ण प्रेमिकाओं से कहा है जबकि तुम्हें ऐसी बात नहीं करनी चाहिए थी) कहा उसको हमने (कृष्ण के सखा समझकर क्षमा करते हुए) शान्ति से मौन होकर सुन लिया (किन्तु यदि तुमने किसी अन्य स्थान पर युवती स्त्रियों को नग्न रहने का उपदेश दिया तो वह तुमको पाखण्डी समझेंगी और आश्चर्य नहीं कि वे तुमको मक्कार समझकर पीट भी दें।)
उक्त अर्थ में जो कुछ कोष्ठक में लिखा है वह व्यंग्यार्थ है। यह अर्थ शब्दों का वाच्यार्थ नहीं है, अपितु पके हुए अंगूरों के गुच्छे में भरे हुए रस की तरह स्पष्ट झलकता है जिसे सहृदय व्यक्ति ही ग्रहण कर सकते हैं।
 
व्यंजना के भेद – व्यंजना के दो प्रमुख भेद – (१) शाब्दी और (२) आर्थी किये गये हैं। शाब्दी के पुन: दो भेद – (१) अभिधा मूला और (२) लक्षणा मूला किये गए हैं। अभिधा मूला शाब्दी व्यंजना के वक्ता, वाक्य आदि की विशेषता के आधार पर १० भेद किये गए हैं। व्यंजना के इन सभी भेदों को अग्रलिखित सारणी के द्वारा समझाया गया है –
Vyanjana Chart
व्यंजन के भेद
सारणी बड़ी देखने के लिये चित्र पर क्लिक करें, और बड़ा करना हो तो कृप्या Ctrl + का उपयोग करें ।
पहले के भाग यहाँ पढ़ सकते हैं –

“रस अलंकार पिंगल [रस, अलंकार, छन्द काव्यदोष एवं शब्द शक्ति का सम्यक विवेचन]”

काव्य में शब्द शक्ति का महत्व – रस अलंकार पिंगल

शब्द शक्ति क्या है ? रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा– 2 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 3 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (३) व्यंजना – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (३) व्यंजना – 2 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 3 – रस अलंकार पिंगल

(२) उपादान लक्षणा या अजहतस्वार्था – लक्षण-लक्षणा में मुख्यार्थ को बिल्कुल तिरस्कृत कर दिया जाता है, लेकिन उपादान लक्षणा में लक्ष्यार्थ के साथ मुख्यार्थ का सम्बन्ध भी रहता है; उदाहरणार्थ –

’बढ़ी आ रही हैं तोपें तेजी से किले की ओर।’

तोपों के साथ तोपों के चालक भी किले के ओर आ रहे हैं – यह स्वयं सिद्ध बात है अत: तोपें आने (मुख्यार्थ) के साथ तोप चालक (लक्ष्यार्थ) का भी सम्बन्ध स्पष्ट है।

(अ) सारोपा शुद्धा उपादान लक्षणा – निम्न उदाहरण से स्पष्ट हो जायेगा –

कर सोलह श्रंगार चली तुम कहाँ परी-सी?’

उक्त पंक्ति में ‘तुम’ पर ‘परी’ होने का आरोप होने के कारण सारोपा और ‘परी’ में मुख्यार्थ भी सुरक्षित होने और उसका ‘श्रेष्ठतम सुन्दरी’ लक्ष्यार्थ से सम्बन्ध होने के कारण उपादान लक्षणा है।

(ब) साध्यवसाना शुद्धा उपादान लक्षणा –

‘अरे हृदय को थाम महल के लिए झोपड़ी बलि होती है।’

‘महल’ और ‘झोपड़ी’ आरोप्यमाण का ही कथन होने के कारण यहाँ साध्यवसाना है, साथ में ‘महल’ और ‘झोपड़ी’ अपना मुख्यार्थ भी सुरक्षित रखते हैं तथा महलों के वासी अमीरों तथा झोपड़ी में रहने वाले गरीबों के लक्ष्यार्थ को भी स्पष्ट करने के कारण यहाँ उपादान लक्षणा भी है।

मम्मट ने ‘काव्यप्रकाश’ में इन्हीं भेदों का वर्णन किया है।

पहले के भाग यहाँ पढ़ सकते हैं –

“रस अलंकार पिंगल [रस, अलंकार, छन्द काव्यदोष एवं शब्द शक्ति का सम्यक विवेचन]”

काव्य में शब्द शक्ति का महत्व – रस अलंकार पिंगल

शब्द शक्ति क्या है ? रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा– 2 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 3 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (३) व्यंजना – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा– 2 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद –

(2) शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा – जहाँ गुण सादृश्य के अतिरिक्त अन्य किसी सादृश्य से लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाये, वहाँ शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा होती है। सादृश्य सम्बन्ध निम्न प्रकार से हो सकते हैं –

(१) सामीप्य सम्बन्ध – ‘अरूण’ शब्द का मुख्यार्थ ‘सूर्य का सारथी’ है किन्तु ‘अरूण’ का लक्ष्यार्थ ‘सूर्य’ ही ग्रहण किया जाता है। सामीप्य सम्बन्ध के कारण ही यह लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है, क्योंकि सूर्य अरूण (सूर के सारथी) के समीप रहता है।

(२) आधार-आधेय सम्बन्ध – ‘फ़ुटबाल के मैच में भारत इंग्लैण्ड से जीत गया’ – इस कथन में आधार-आधेय सम्बन्ध से ही अर्थ ग्रहण किया जायेगा अर्थात भारत के खिलाडी इंग्लैण्ड के खिलाड़ियों से जीत गये।

(३) कारण-कार्य-सम्बन्ध – ‘नियमित भोजन स्वास्थ्य है’ – इस कथन में कारण-कार्य-सम्बन्ध है, क्योंकि भोजन ही स्वास्थ्य (कार्य) का कारण है।

(४) अंगागिभाव सम्बन्ध – इसके अनुसार अंग से अंगी का लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है। उदाहरणार्थ किसी मनुष्य के हाथ की उँगली दब जाने पर यदि वह व्यक्ति कहे – ‘मेरा हाथ दब रहा है’ तो इसमें हाथ का लक्ष्यार्थ हाथ की उँगली होगा।

(५) तात्कर्म्य सम्बन्ध – कर्म-सादृश्य के आधार पर लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है । जैसे –

‘एरे मतिमंद चन्द आवत न तोहि लाज,

ह्वैके द्विजराज काज करत कसाई के।’

यहाँ चन्द्रमा को कसाई इसलिए कथित किया गया है कि वह भी विरहणियों को कसाई के समान कर्म करने वाला प्रतीत होता है।

(६) तादर्थ्य सम्बन्ध – ‘रमेश ब्रजेश के गुरूदेव हैं’  – इस पंक्ति में रमेश को देवता के समान पूज्य बताना ही लक्ष्यार्थ है।

शुद्धा प्रयोजनवती लक्षणा के भी दो भेद हैं – (१) लक्षण-लक्षणा या जहतस्वार्था और (२) उपादान लक्षणा या अजह्त्स्वार्था, इनके भी दो-दो भेद हैं – सारोपा और साध्यवसाना।

(१) लक्षण-लक्षणा या जहतस्वार्था – जहाँ मुख्यार्थ अथवा वाच्यार्थ का लगभग बिल्कुल त्याग कर दिया जाता है, वहाँ लक्षण-लक्षणा या जहतस्वार्था लक्षणा होती है। उदाहरण – ‘पेट में चूहे कूद रहे हैं’ यह वाक्य अपना अभीष्ट अर्थ रखता है लेकिन इसके मुख्यार्थ या वाच्यार्थ में पूर्ण रूप से बाधा मालूम पड़ती है, क्योंकि पेट में चूहों का कूदना सर्वथा असम्भव है। इसमें चूहे कूदना का वाच्यार्थ बिल्कुल त्याग दिया जाता है और लक्ष्यार्थ ‘तेज भूख लगी है’ ग्रहण किया जाता है।

(अ) सारोपा शुद्धा लक्षण-लक्षणा – जब आरोप के विषय और आरोप्यमाण में अभेद हो; जैसे –

आज भुजड्गों से बैठे हैं वे कंचन के घड़े दबाये – इस काव्य में आरोप का विषय (पूँजीपति) और आरोप्यमाण (भुजड़्ग) में अभेद कथित किया गया है।

(ब) साध्यवसाना शुद्ध लक्षण-लक्षणा – आरोप के कथित न होने पर यह लक्षणा होती है। जैसे –

‘दिल का टुकड़ा कहाँ गया’

उक्त वाक्य में आरोप का विषय लुप्त है और केवल आरोप्यमाण (दिल के टुकड़े) का ही कथन है। ‘दिल का टुकड़ा’ अपना मुख्यार्थ बिल्कुल छोड़ देता है और ‘पुत्र’ लक्ष्यार्थ को बिल्कुल तिरस्कृत करके लगाया जाता है।

पहले के भाग यहाँ पढ़ सकते हैं –

“रस अलंकार पिंगल [रस, अलंकार, छन्द काव्यदोष एवं शब्द शक्ति का सम्यक विवेचन]”

काव्य में शब्द शक्ति का महत्व – रस अलंकार पिंगल

शब्द शक्ति क्या है ? रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा– 2 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 3 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (३) व्यंजना – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 1 – रस अलंकार पिंगल

(१) रूढ़ि लक्षणा – जहाँ किसी शब्द के मुख्यार्थ को छोड़कर उससे सम्बन्धित अन्य अर्थ परस्पर अथवा रूढ़ि द्वारा निश्चित होता है। जैसे – ‘बम्बई फ़ैशनिबल है’, इस पंक्ति में बम्बई नगर अभीष्ट या लक्ष्यार्थ नहीं है, अपितु ‘बम्बई नगर के निवासी’ इसका लक्ष्यार्थ है। बम्बई नगर के निवासियों के लिए ‘बम्बई’ कहना रूढ़ हो गया है। रूढ़ि लक्षणा के भी दो भेद – (अ) गौणी और (ब) शुद्धा – किये गए हैं ।

(अ) गौणी रूढ़ि लक्षणा – परम्परानुसार गुणबोधक लक्ष्यार्थ ग्रहण करने से गौणी रूढ़ि लक्षणा होती है।

(ब) शुद्धा रूढ़ि लक्षणा – परम्परा अथवा रूढ़ि के आधार पर जब वाच्यार्थ से सम्बन्धित लक्ष्यार्थ भी ग्रहण किया जाता है, तब वहाँ शुद्धा रूढ़ि लक्षणा मानी जायेगी।

(२) प्रयोजनवती लक्षणा – मुख्यार्थ में बाधा होने पर किसी विशेष प्रयोजन से लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है, वहाँ प्रयोजनवती लक्षणा होती है। प्रयोजनवती लक्षणा के दो प्रमुख भेद हैं –

१ – गौणी और

२ – शुद्धा

(१) गौणी प्रयोजनवती लक्षणा – जहाँ उपमा और उपमेय में गुण की समानता के कारण लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाये, वहां गौणी प्रयोजनवती लक्षणा होती है, यथा –

‘चन्द्र-मुख को देखकर मन हो गया प्रफ़ुल्ल’

चन्द्रमा और मुख परस्पर भिन्न है अत: यहाँ मुख्यार्थ में बाधा है लेकिन दोनों के गुण में पर्याप्त सादृश्य है। जिस प्रकार चन्द्रमा को देखकर मन प्रफ़ुल्लित हो जाता है, उसी प्रकार मुख को देखकर मन प्रफ़ुल्लता से भर उठता है, अत: इस गुण सादृश्य के कारण यह लक्ष्यार्थ ग्रहण किया जाता है। गौणी प्रयोजनवती लक्षणा के भी दो भेद – (अ) सारोपा और (ब) साध्यवसाना किये गये हैं।

(अ) सारोपा  गौणी प्रयोजनवती लक्षणा – जहाँ उपमान और उपमेय दोनों का आरोप हो वहाँ सारोपा गौणी प्रयोजनवती लक्षणा होती है। ‘चन्द्र-मुख को देखकर मन हो गया प्रफ़ुल्ल’ इसका उदाहरण है, क्योंकि इसमें चन्द्र (उपमान) और मुख (उपमेय) दोनों का आरोप है।

(ब) साध्यवसाना  गौणी प्रयोजनवती लक्षणा – जहाँ केवल उपमान ( आरोप्यमाण) का वर्णन हो और उपमेय (आरोप का विषय) लुप्त हो वहाँ साध्यवसाना गौणि प्रयोजनवती लक्षणा होती है। उदाहरणार्थ –

‘बाँधा था बिधु को किसने’

यहाँ उपमेय ‘मुख’ का कथन नहीं है केवल आरोप्यमाण ‘विधु’ (उपमान) का कथन है।

पहले के भाग यहाँ पढ़ सकते हैं –

“रस अलंकार पिंगल [रस, अलंकार, छन्द काव्यदोष एवं शब्द शक्ति का सम्यक विवेचन]”

काव्य में शब्द शक्ति का महत्व – रस अलंकार पिंगल

शब्द शक्ति क्या है ? रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा– 2 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 3 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (३) व्यंजना – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद

(२) लक्षणा

आचार्य मम्मट ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘काव्य-प्रकाश’ में लक्षणा की व्याख्या इस प्रकार की है –

’मुख्यार्थबाधेतद्योगे रूढ़ितोऽथ प्रयोजनात ।

अन्योर्थो लक्ष्यते यत्सा लक्षणारोपिता क्रिया॥’

अर्थ यह हुआ – मुख्यार्थ में बाधा होने पर रूढि या प्रयोजन के आधार पर अभिधेयार्थ से सम्बन्धित अन्य अर्थ को व्यक्त करने वाली शक्ति लक्षणा शक्ति कहलाती है। एक और प्रसिद्ध विद्वान ने लक्षणा के लक्षण में यही बात कही है –

‘मुख्यार्थबाधे तद्युक्तो ययाऽन्योऽर्थ: प्रतीयते।

रूढ़े प्रयोजनाद्वासौ लक्षणा शक्तिरर्पिता॥’

अर्थात – मुख्यार्थ मे ंबाधा होने पर रूढ़ि या प्रयोजन को लेकर जिस शक्ति द्वारा मुख्यार्थ से सम्बन्धित अन्य अर्थ का बोध हो उसे लक्षणा शक्ति कह सकते हैं। प्रसिद्ध आचार्य का कथन है कि लक्षणा में वक्ता के तात्पर्य को ही प्रधानता दी जाती है। लक्षणा की उत्पत्ति के सम्बन्ध में विद्वानों ने तीन प्रमुख कारण बताये हैं –

(१) मुख्यार्थ में बाधा,

(२) मुख्यार्थ में कुछ-न-कुछ सम्बन्ध और

(३) रूढ़ि या प्रयोजन द्वारा अन्य अर्थ का बोध

(१) जब शब्दों के वाच्यार्थ से वांछित अर्थ की उपलब्धि न हो तो मुख्यार्थ में बाधा मानी जायेगी। उदाहरणार्थ – यदि कहा जाये कि ‘घनश्याम गधा है’ तो इसमें पशु रूप गधा के मुख्यार्थ में बाधा है, क्योंकि घनश्याम गधे के समान चार पैर वाली आकृति वाला नहीं है।

(२) मुख्यार्थ में बाधा होने पर जो अन्य अर्थ लगाया जाता है उसका मुख्यार्थ से थोड़ा-बहुत सम्बन्ध अवश्य होता है। जैसे – घनश्याम यद्यपि गधे के समान आकृति वाला नहीं है, लेकिन एक बात में सम्बन्ध अवश्य है कि उसकी मूर्खता गधे से समानता रखती है अत: इस मुख्यार्थ में किंचित सम्बन्ध अवश्य है।

(३) ‘गधा’ मूर्खता के लिये रूढ़ हो गया है, इसलिए ‘मूर्खता’ प्रयोजन के लिए ‘गधा’ शब्द का प्रयोग किया जाता है।

लक्षणा के भेद – आचार्यों ने लक्षणा के अनेक भेद माने हैं। लक्षणा के प्रमुख भेद निम्न प्रकार हैं –

लक्षणा

(१) रूढ़ि –

गौणी

शुद्धा

(२) प्रयोजनवती

गौणी

          सारोपा

          साध्यवसाना

शुद्धा

           लक्षण लक्षणा ( जहत स्वार्था)

                    सारोपा

                    साध्यवसाना

           उपादान लक्षणा (अजहत स्वार्था)

                     सरोपा

                    साध्यवसाना

पहले के भाग यहाँ पढ़ सकते हैं –

“रस अलंकार पिंगल [रस, अलंकार, छन्द काव्यदोष एवं शब्द शक्ति का सम्यक विवेचन]”

काव्य में शब्द शक्ति का महत्व – रस अलंकार पिंगल

शब्द शक्ति क्या है ? रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा– 2 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 3 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (३) व्यंजना – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द शक्ति क्या है ? रस अलंकार पिंगल

शब्द शक्ति क्या है ? – बहुत पहले ही सुप्रसिद्ध आचार्य भामह ने ‘शब्दार्थों काव्यम’ कहकर काव्य में शब्द और अर्थ की महत्ता तथा उनके परस्पर सम्बन्ध में प्रकाश डाला था। वास्तव में शब्द और अर्थ भिन्न-भिन्न नहीं हैं। श्रेष्ठ काव्य में शब्द और अर्थ की सत्ता अभिन्न रहती है। महाकवि तुलसीदास ने शब्द और अर्थ की इसी अभीन्नता पर निम्न पंक्तियों में बड़ा सुन्दर संकेत किया है –

‘गिरा अर्थ जल-बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न ।’

वास्तव में शब्द और अर्थ मिलकर ही काव्य की सृष्टि करते हैं। दोनों में परस्पर बहुत दृढ़ सम्बन्ध है और इस सम्बन्ध को जिस शक्ति द्वारा जाना जा सकते हैं, उसे ही ‘शब्द-शक्ति’ कहते हैं। चूंकि काव्य में प्रयुक्त शब्दों के अर्थ से ही काव्य बोधगम्य होता है, अत: शब्द के अर्थ को समझने में सहायक-शक्ति ही ‘शब्द-शक्ति’ कहलाती है।

शब्द-शक्ति के भेद – शब्द-शक्ति के तीन भेद माने जाते हैं –

(१) शक्ति, (२) लक्षणा और (३) व्यंजना ।

एक अन्य विद्वान ने भी शब्द-शक्ति के तीन भेद – (१) अभिधा, (२) लक्षणा और (३) व्यंजना – माने हैं। प्राय: सभी आचार्य शब्द-शक्ति के उपर्युक्त तीन भेद ही मानते हैं।

(१) अभिधा

अभिधा शक्ति द्वारा शब्दों के मुख्यार्थ अथवा अप्रत्यक्ष संकेतिक अर्थ का बोध होता है। एक विद्वान अभिधा की व्याख्या इस प्रकार करते हैं –

‘संक्तितार्थस्य वोधनार्दाग्रमाभिधा ।’

अर्थात साक्षात सांकेतिक अर्थ की बोध शक्ति को ‘अभिधा’ कहा जाता है। साक्षात सांकेतिक अर्थ से तात्पर्य सामान्यत: लोक में प्रसिद्ध कोशसम्मत अर्थ से है। लोग अथवा कोश में एक शब्द के एक से अधिक अर्थ भी प्रचलित होते हैं, उन सबको वाच्यार्थ (अभिधा-युक्त) कहा जाता है। एक से अधिक अर्थ वाले शब्द का कौन-सा अर्थ लिया जायेगा, यह प्रसंग पर निर्भर करता है। जैसे –

‘कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।

वा खाये बौराय जग या पाये बौराय ॥’

इन पंक्तियों में ‘कनक’ (धतुरा), कनक (सोना), मादकता (नशा आदि) सभी शब्दों का कोश-सम्मत एवं लोक में प्रचलित अर्थ लिया जाता है, इसीलिए यहाँ पर अभिधा शक्ति मानी जायेगी। अभिधा शक्ति से युक्त बाधक शब्द के तीन भेद आचार्य नागेश आदि विद्वानों ने माने हैं –

(१) रूढ़ि शब्द,

(२) यौगिक शब्द और

(३) योगारूढ़ि शब्द ।

१ – रूढ़ियुक्त शब्द वे हैं जिनसे पूरे शब्द से केवल एक अर्थ का बोध होता हो। इनके अवयव नहीं किये जा सकते, वे व्युत्पत्ति रहित और अभेद्य होते हैं। जैसे पैर, घोड़ा आदि ।

२ – यौगिक शब्दों का प्रकृति और अवयवों की सहायता से अर्थ का बोध होता है। जैसे – ‘भूपति’ शब्द में ‘भू’ और ‘पति’ दो अवयव हैं, ‘भू’ अर्थात पृथ्वी और ‘पति’ अर्थात स्वामी यानि कि पृथ्वी का स्वामी ‘राजा’ अर्थ हुआ। इसी प्रकार हिमकर, जलधर आदि शब्द बने हुए हैं।

३ – योगारूढ़ि शब्दों में यौगिक शब्द के समान अवयवों के समुदाय से अर्थ का बोध होता है लेकिन ये शब्द यौगिक होते हुए भी रूढ़ि शब्दों की भांति एक विशेष अर्थ के लिए प्रसिद्ध हो जाते हैं। जैसे – ‘गिरिधर’ ‘गिरि’ और ‘धर’ दो अवयवों के मिश्रण से बना यौगिक शब्द है। लेकिन इसको प्रत्येक गिरि धारण करने वाले के लिये प्रयोग न करके केवल भगवान श्रीकृष्ण के अर्थ में ही प्रयुक्त किया जाता है और श्रीकृष्ण के अर्थ में ही यह शब्द रूढ़ हो गया है। पंकज, वारिज आदि शब्द इसके उदाहरण हैं।

पहले के भाग यहाँ पढ़ सकते हैं –

“रस अलंकार पिंगल [रस, अलंकार, छन्द काव्यदोष एवं शब्द शक्ति का सम्यक विवेचन]”

काव्य में शब्द शक्ति का महत्व – रस अलंकार पिंगल

शब्द शक्ति क्या है ? रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा– 2 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 3 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (३) व्यंजना – 1 – रस अलंकार पिंगल

काव्य में शब्द शक्ति का महत्व – रस अलंकार पिंगल

काव्य में शब्द शक्ति का महत्व –

काव्य में कवि अपने भावों की अभिव्यक्ति करता है और भावों की अभिव्यक्ति का माध्यम “भाषा” होती है। अत: काव्य में भाषा का अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। पाश्चात्य साहित्यशास्त्री एफ़. आर. लेबिस ने भाषा के महत्व पर प्रकाश डालते हुए एक स्थान पर लिखा है –

‘Literature is not merely in a language but of a language.’

अर्थात काव्य भाषा में नहीं होता अपितु भाषा का ही होता है। भारतीय साहित्यशास्त्रियों ने इसलिये भाषा को काव्य का शरीर माना है, अर्थात जिस प्रकार आत्मा बिना शरीर के अस्तित्वहीन है, उसी प्रकार बिना भाषा के काव्य का रसानन्द नहीं हो सकता । इसलिए एक पाश्चात्य विद्वान ने अपनी काव्य की परिभाषा में सुन्दर शब्दों के सुव्यवस्थित रूप को ही काव्य मान लिया है –

‘Poetry is the best words in the best order’.

कवि भावों के प्रकाशन के लिए कुछ शब्दों का चयन करता है और उसके शब्द-चयन का आधार यही रहता है कि वह ऐसे शब्दों का चयन करे जो उसके भावों को पूर्णतया पाठक के समक्ष व्यक्त कर दे और उसके लिए उसे शब्दों में निहित अर्थ के मर्म से अभिज्ञ होना आवश्यक है। एक ही अर्थ वाले कई शब्द भाषा में होते हैं और एक ही शब्द के कई अर्थ भी प्रचलित होते हैं अत: किस शब्द को अभीष्ट अर्थ की अभिव्यक्ति के लिये प्रयुक्त किया जाये, ताकि पाठक उस अर्थ को ग्रहण कर पूर्णतया भावमग्न हो जाये – यह कवि की कुशल प्रतिभा पर निर्भर करता है और इसके लिये कवि को शब्द की शक्तियों से पूर्णतया परिचित होना आवश्यक है। शब्दों के अर्थ से ही काव्य बोधगम्य होता है तथा शब्द और अर्थ के सम्बन्ध को ही शब्द-शक्ति कहा जाता है।

अत: बिना शब्द-शक्ति की जानकारी के न तो कवि ही अपने भावों को अच्छी तरह व्यक्त कर सकता है और न ही पाठक पूर्ण रूप से काव्यानन्द ग्रहण कर सकता है। प्रसिद्ध भारतीय काव्य-शास्त्री का कथन है – शब्द के द्वारा अर्थ-बोध तभी होता है, जब हम ‘वृत्ति’ ज्ञान से पूर्ण रूप से अवगत होते हैं, अत: अमुक शब्द का अमुक स्थान पर क्या अर्थ है – यह ‘शब्द-वृत्ति’ का जानकार ही समझ सकता है। यहाँ पर विद्वान ने ‘शक्ति’ शब्द के स्थान पर यहाँ ‘वृत्ति’ शब्द का प्रयोग किया गया है जो उसका समानार्थी है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि शब्द शक्ति के अध्ययन के बिना काव्य का अध्ययन अपूर्ण है, अत: साहित्य के अध्येता के लिये शब्द शक्ति की जानकारी आवश्यक है ।

पहले के भाग यहाँ पढ़ सकते हैं –

“रस अलंकार पिंगल [रस, अलंकार, छन्द काव्यदोष एवं शब्द शक्ति का सम्यक विवेचन]”

काव्य में शब्द शक्ति का महत्व – रस अलंकार पिंगल

शब्द शक्ति क्या है ? रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 1 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा– 2 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (२) लक्षणा – 3 – रस अलंकार पिंगल

शब्द-शक्ति के भेद (३) व्यंजना – 1 – रस अलंकार पिंगल