Monthly Archives: February 2014

आटा, सब्जी, प्रेमकपल और पुलिसचौकी

कल शाम की बात है, बेटेलाल स्कूल से आ चुके थे तो अचानक गुस्से से आवाज आई “आटा आज भी आ गया ?” “सब्जी आ गई”, हम सन्न !! बेचारे क्या करते, अपने काम में मगन आटे का ध्यान एक सप्ताह से ना था, इधर पास के पंसेरी से १ किलो आटे का पैकेट लाकर थमा देते थे। हम चुपचाप घर से निकले, लिफ़्ट से उतरे, तो घर के सामने का मौसम अचानक से हसीन हो चला था।
सामने ही करीबन ५ लड़के और १ लड़की स्कूल ड्रेस में थे, जिनमें से एक लड़का और एक लड़की साथ साथ थे और लड़की के हाथ में गिफ़्ट भी था, बाकी लड़के उस लड़के से मस्ती कर रहे थे, शायद उसने आज ही प्रपोज किया हो और स्वीकार हो गया हो, फ़िर उन सब लड़कों ने प्रेमकपल वाले लड़के से कुछ पैसे लिये और घर के सामने वाली चाट की दुकान पर पानी बताशे खाने लगे, प्रेमकपल के चेहरे पर अजीब सी खुशी थी, जैसे उनके जन्म जन्म का साथी मिल गया हो, लड़के के बाल कुछ अजीब से आगे से ऊपर की तरफ़ थे, वो भी कोई स्टाईल ही रही होगी, हाँ हमारे बेटेलाल जरूर उस बालों की स्टाईल का नाम बता देते।
हम अपनी बिल्डिंग की पार्किंग में खड़े होकर सभ्यता से यह सब देख रहे थे, पर उन लड़कों को यह अच्छा नहीं लग रहा था, खैर जब हम गाड़ी से चाट वाले के सामने से निकले तो भी वे सब हमें घूर ही रहे थे, यह सब वैसे हमें पहले से ही पसंद नहीं है, जब हम  उज्जैन में थे तब हमारी कालोनी में भी यही राग रट्टा चलता था, फ़िर हमने अपना प्रशासन का डंडा दिखाया तो बस इन लोगों के लिये कर्फ़्यू ही लग गया था।
आटा लेने गये, तो पता चला कि उस पूरी कॉलोनी की बिजली ही सुबह से गायब है, हम पूछे “भैया बिजली आज ही गई है ना ?, कल तो आयेगी”, वो क्या और जो दुकान के अंदर थे वे भी निकलकर हमें देखने लगे, ये कौन एलियन आया है जो अजीब और अहमक सा सवाल पूछ रहा है। खैर वापसी पर याद आया कि सब्जी लेनी है, अब हम सोचे बेहतर है कि घर पर फ़ोन करके पूछ लें “कौन सी सब्जी लायें”, जबाब मिला “कौन कौन सी सब्जी है?”, हम कहे “करेला, शिमला मिर्च, बीन्स, भिंडी, फ़ूलगोभी, पत्तागोभी,बैंगन” हमें कहा गया केवल देल्ही गाजर और टमाटर लाने के लिये, टमाटर का भाव हम बहुत दिनों बाद सुने थे, मतलब कि बहुत दिनों बाद सब्जी लेने गये थे, केवल दस रूपया किलो, हमने सोचा बताओ टमाटर के दाम पर कितनी सियासत हुई, टमाटर महँगी सब्जियों का राजा बन गया था और आज देखो इसकी दशा कोई पूछने वाला नहीं, हेत्तेरेकी केवल दस रूपया !
शाम को घूमने निकले, चार लड़के दो लड़कियाँ एक ही समूह में घूम रहे थे, जिनमें से साफ़ दिख रहा था कि दो प्रेमकपल हैं और बाकी के दो इस समूह के अस्थायी सदस्य हैं, वे दोनों प्रेमकपल सड़क पर ही बाँहों में आपस में ऐसे गुँथे हुए थे, कि अच्छे से अच्छे को शर्म आ जाये, परंतु वो तो अपने घरों से दूर यही कहीं पीजी में रहते हैं, तो उन्हें क्या फ़र्क पड़ता है, फ़िर अगली गली के नुक्कड़ पर ही वे दोनों प्रेमकपल आपस में एक दूसरे की आँखों में झांकते हुए नजर आये, और हँसी ठिठोली कर रहे थे, पर अचानक हमें देखते ही वे सब बोले कि चलो गली के थोड़ा अंदर चलो। हमने सोचा कि आज यही सब इनको अच्छा लग रहा है, कल जब ये जिम्मेदारी लेंगे परिवार की बच्चों की, तब शायद यही सब इनको बुरा लगेगा।

एक अच्छी बात यह हुई है कि पास ही पुलिसचौकी खुल गई है, तो इस तरह की हरकतें पहले बगीचे में होती थीं वे अब चौकी के पीछे की गलियों में होने लगी हैं।

 वैसे ही जब घूमते हुए वापिस घर की और आ रहे थे तब एक दिखने से ही साम्भ्रान्त प्रेमकपल खड़ा था, लड़के की पीठ पर लेपटॉप बैग था और लड़की भी ऑफ़िस वाली ड्रेस में ही थी, शायद लड़की कहीं पास रहती हो और कुछ जरूरी बात करनी हो, बहुत धीमे धीमे से बात कर रहे थे, कितना भी कान लगा लो बातें सुनाई दे ही नहीं सकती थी, पर उनका बात करने का तरीका और कॉलोनी में जिस तरह से वे खड़े थे और बातें कर रहे थे वह शालीन था ।

शादी के १२ वर्ष और जीवन के अनुभव

आज शादी को १२ वर्ष बीत गये, कैसे ये १२ वर्ष पल में निकल गये पता ही नहीं चला, आज से हम फ़िर एक नई यात्रा की और अग्रसर हैं, जैसे हमने १२ वर्ष पूर्व एक नई यात्रा शुरू की थी, जब पहली यात्रा शुरू की थी तब पास कुछ नहीं था, बस कुछ ख्वाब थे और काम करने का हौंसला और अगर बैटर हॉफ़ याने कि जीवन संगिनी आपको समझने वाली मिल जाये, हर चीज में आपका साथ दे तो मंजिलें बहुत मुश्किल नहीं होती हैं।
शादी की १२ सालगिरह में से मुश्किल से आधी हमने साथ बिताई होंगी, हमेशा काम में व्यस्त होने के कारण बहुत कुछ जीवन में छूट सा गया, परंतु हमारी जीवन संगिनी ने कभी इसकी शिकायत नहीं की, हमने जब खुशियों का कारवाँ शुरू किया था, तब हम ये समझ लीजिये खाली हाथ थे और फ़िर जब हमारे आँगन में प्यारी सी किलकारी गूँजी, जिससे जीवन के यथार्थ का रूप समझ में आया।
जीवन यथार्थ रूप में बहुत ही कड़ुवा होता है और मेरे अनुभव से मैंने तो यही पाया है कि यह कड़ुवा दौर सभी की जिंदगी में आता है, बस इस दौर में हम कितनी शिद्दत से इससे लड़ाई करते हैं, यह हमारी सोच, संस्कार और जिद्द पर निर्भर करता है। जीवन के इस रास्ते पर चलते चलते हमने इतने थपेड़े खाये कि अब थपेड़े  अजीब नहीं लगते, यात्रा जीवन का अभिन्न अंग बन चुका है।
बस जीवन से यही सीखा है कि कितनी भी मुश्किल हो अपने लक्ष्य पर अड़िग रहो, सीधे चलते रहो, मन में प्रसन्नता रखो, धीरज रखो । जीवन इतना भी कठिन नहीं है कि इससे पार ना पा सकें, और खासकर तब और आसान होता है जब हमारी अर्धांगनी उसमें पूर्ण सहयोग करे। जीवन के चार दिन में अगर साथी का सही सहयोग मिलता रहे तो और क्या चाहिये।

आखिरी बात हमेशा अपने वित्तीय निर्णय लेने के पहले अपने जीवनसाथी को अपने निर्णय के बारे में जरूर बतायें, कम से कम इस बहाने घरवाली को हमारे वित्तीय निर्णयों का आधारभूत कारण पता रहता है और उनके संज्ञान में भी रहता है, इससे शायद उनको भी अपने मित्रमंडली में मदद देने में आसानी हो। जीवन और निवेश सरल बनायें, दोनों सुखमय होंगे।

वो काँच का दरवाजा

    दोपहर का समय था, घर से ५०% डिस्काऊँट और एक खरीदो एक मुफ़्त  का लाभ लेने के लिये निकले, बैंगलोर सेंट्रल मॉल में ३ घंटे में एथिनिक और वेस्टर्न की बहुत सी खरीदारी कर घर की और लौट रहे थे, कि बीच में ही एक दुकान पड़ी जहाँ पर ना चाहते हुए भी गाड़ी रोकना पड़ी, वो दुकान थी लगेज कंपनी का शोरूम, क्योंकि मुझे दो लगेज और लेना थे, तो सोचा कि अभी मॉडल देख लें और कुछ उपहार के वाऊचर भी रखे हैं, उसके लिये भी पूछ लेंगे कि अगर वे इस शोरूम पर ले लेंगे।
    बात की गई, लगेज फ़ाईनल किये गये, उपहार वाऊचर भी चलने के लिये हाँ हो गई, परंतु खरीदारी में और समय लगता, और ठीक ५ मिनिट घर पहुँचने में लगते और १० मिनिट बाद बेटेलाल की स्कूल बस आने को थी, अगर बीच में यातायात मिला तो ५ मिनिट की जगह १० मिनिट भी लग सकते हैं।
    शोरूम से निकलते हुए जल्दी में काँच के दरवाजे का अहसास ही नहीं हुआ, और तेजी से निकलते हुए गये थे, रफ़्तार तीव्र थी, वो काँच का दरवाजा खुलता भी केवल अंदर की तरफ़ था और बाहर काँच के दरवाजे के ऊपर एक छोटा सा स्टॉपर लगा हुआ था कि बाहर ना खुले, हम उससे धम्म से भिड़ गये, दिन में तारे नजर आने लगे, ऐसा लगा मानो माथे पर किसी ने बहुत जोर से हथौड़ा मार दिया हो, परंतु कुछ कर नहीं सकते थे, आँख के ऊपर बहुत जोर की लगी थी, केवल अच्छा यह रहा कि खून नहीं निकला या चमड़ी नहीं हटी और ना ही कटी।
    वो काँच का दरवाजा बहुत मोटा था, इसलिये काँच के दरवाजे को तो कुछ नहीं हुआ, फ़िर हमने गाड़ी के मिरर में जाकर अपने माथे का जायजा लिया और हाथ से दबाकर बैठ गये, करीब २ मिनिट दबाने के बाद लगा कि यह दर्द ऐसे नहीं जाने वाला क्योंकि सीधे हड्डी में लगा है तो बेहतर है कि घर पहुँचा जाये और आयोडेक्स लगा लिया जाये। घर पहुँचे आयोडेक्स लगा लिया, परंतु दर्द कम होने का नामोनिशान नहीं था, खैर यह भी एक अच्छा अनुभव रहा।

अब हालत यह है कि उसके बाद से किसी भी दरवाजे से निकलना होता है तो पहले अच्छे से पड़ताल कर लेते हैं, संतुष्ट हो लेते हैं फ़िर ही निकलते हैं, दर्द तो अब भी बहुत है, सूजन कम है। समय के साथ साथ सब ठीक हो जाता है, गहरे जख्म भी भर जाते हैं।