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इंसान और अविष्कार

इंसान जबसे इस दुनिया में आया है तब से ही वह अपने अविष्कार का लोहा मनवाते आया है, पहले नग्न रहते थे, फूल पत्ती खाते थे, धीरे धीरे अपने को ढंकने के लिये फूल पत्तियों का उपयोग किया और जो जानवर उनको परेशान करते थे, इंसान ने जाना होगा कि जब जानवर जानवर को मारकर खा सकता है और इंसान को भी मारकर खा सकता है तो इंसान ने भी जानवर को मारा होगा और अपने आप को बचाया होगा। स्वाद के लिये जब मांस को पकाया होगा तो उसमें ज्यादा स्वाद आया होगा। उसी तरह से कंदमूल को भी जब आग पर पकाया तो उसका स्वाद बेहतर लगा होगा। तो ये सब पहले अविष्कार थे, धीरे धीरे इंसान ने अपनी जरूरत के लिये और भी चीजों को सोच समझकर बनाया, जैसे चाकू, चूल्हा, पहनावा और जानवरों को आवागमन का साधन बनाकर यात्रा करना।

इंसान और अविष्कार
इंसान और अविष्कार

यह बात हुई पुरातन काल की, तो उस समय इंसान के पास कुछ था ही नहीं तो इंसान ने सबसे पहले अपनी जरूरत की चीजों पर काम करना शुरू किया, जिससे उसे सुविधा हो और कम मेहनत में ज्यादा काम करे, जिन भी नई चीजों को बनाया गया उसे अविष्कार ही कहा जायेगा, क्योंकि वह दुनिया में पहले से उपलब्ध नहीं थी और उस अविष्कार के उपयोग से हर कोई लाभांवित हुआ।

जब अपनी जरूरत की चीजें पा ली गईं तब सबसे पहले बचने वाले समय के उपयोग के लिये खेलों, नाटक, गाने, नृत्य, चित्रकारी आदि का अविष्कार हुआ। इन सब विधाओं के आने से न केवल इंसान की क्षमताओं का पता चला बल्कि इंसान कितना कल्पनाशील हो सकता है, यह भी निखर कर सामने आया। कई चीजों में इंसान को बहादुरी दिखानी होती थी, इससे इंसान के साहस और बहादुरता को और निपुण किया गया।

हर अविष्कार के पीछे कोई न कोई तकलीफ हमेशा ही जुड़ी होती है, जब तक इंसान को तकलीफ नहीं होती है तब तक वह किसी अविष्कार के लिये उद्यत नहीं होता, इंसान में आलस्य की भावना शायद जरूरत के अविष्कारों के बाद से ही ज्यादा जोर देने लगी होगी। पहले शारीरिक श्रम होता था और इसके लिये शारीरिक क्षमताओं पर ध्यान दिया जाता था, शारीरिक क्षमताओं वाला श्रम और खेल दुनिया सामने देख सकती थी तो उससे किसी एक इंसान को बहादुर या साहसी मान लिया जाता था जो कार्य कोई अन्य नहीं कर सकता था या फिर दूसरों के लिये कठिन होता था। अब शारीरिक श्रम की मात्रा कम हो गई है ऐसा कह सकते हैं, क्योंकि अब तो बहुत सी मशीने इंसान ने बना ली हैं।

अब मानसिक श्रम ज्यादा है, जिसमें कोई आपके पास बैठा व्यक्ति भी आपकी क्षमताओं का आंकलन नहीं कर सकता है, क्योंकि इसमें कई बार तो किसी को पता ही नहीं होता है कि कौन ज्यादा मानसिक श्रम कर रहा होता है। अब तो खैर जैसे जैसे हम तकनीक जगत में उन्नत होते जा रहे हैं, वैसे वैसे मानसिक श्रम को भी विभिन्न श्रेणियों में बाँटा जा रहा है।

शारीरिक श्रम के कार्यों में अधिक लोगों का जुड़ाव नहीं होता था, मतलब कि पहले ही आंकलन कर लिया जाता था कि इस कार्य के लिये कितने लोगों को श्रम लगेगा, उसमें भी अगर कोई अपने श्रम को बचाने के लिये अविष्कार कर ले तो उसे बेहतर माना जाता होगा। वैसे ही मानसिक श्रम में अपना समय और अच्छे से कार्य करने के लिये थोड़ा साहस अपने भीतर भरना होता है और हम नित नये अविष्कार कर सकते हैं। किसी को उन अविष्कारों के बारे में बतायें या न बतायें यह हमारे ऊपर निर्भर करता है।

डेशबोर्ड पर भगवान God on Dashboard

आज ऑफिस आते समय अचानक ही एक कार जिस पर एल (L) का स्टीकर कार पर लगा था याने कि कोई नया बंदा गाड़ी चला रहा थी और उसकी कार में सीट पर भी पॉलीथीन चढ़ी हुई थी, उस कार में पीछे के काँच और डेशबोर्ड दोनों पर भगवान चिपका रखे थे और उन पर ताजे फूल भी चढ़ाये हुए थे। आश्चर्य तब और हुआ जब उसके डेशबोर्ड पर दो भगवान याने कि गणेश जी और बाला तिरूपति दोनों को विराजित देखा और ऊपर काँच पर हनुमान लटकते नजर आये।

Car Dashboard India
Car Dashboard India

अचानक ही मुझे ध्यान आया कि जब मैंने भी कार ली थी और मेरा ड्राईवर जिससे मैंने कार सीखी थी वो कार डेकोर के पास लेकर गया था और मुझे भगवान डेशबोर्ड पर लगाने के लिये कहा था, तो मैंने कहा कि मेरे भगवान इस दुकान पर नहीं मिलेंगे वो तो केवल उज्जैन में ही मिलते हैं और मेरे पास एक छोटी सी तस्वीर है मैं उस तस्वीर को ही कार को माईलोमीटर के पास रखकर काम चला लूँगा, और जब भी उज्जैन जाऊँगा तब वहाँ से महाकाल भगवान डेशबोर्ड पर लगाने वाले ले आऊँगा।

मैंने इसके बाद ध्यान से देखना शुरू किया तो पाया कि लगभग 90 प्रतिशत गाड़ियों में डेशबोर्ड पर भगवान विराजमान हैं, अगर डेशबोर्ड पर नहीं हैं तो वे किसी न किसी प्रकार से गाड़ी मैं मौजूदगी बनाये हुए हैं, या तो वे बैकमिरर पर लटके हुए हैं या फिर तस्वीर की शक्ल में विराजमान हैं। किसी ने डेशबोर्ड पर छोटे भगवान लगा रखे हैं तो किसी ने बड़ा मंदिर भी लगा रखा है, पर सभी धर्मों के चालकों ने अपने अपने भगवान गाड़ियों में लगा रखे हैं।

मुझे कभी गाड़ी में भगवान लगाने का सिद्धान्त ही समझ नहीं आया, पता नहीं कब क्यों और कहाँ से यह अवधारणा आई। अगर ऐसा ही होता तो कार खरीदते समय ही कार कंपनी डेशबोर्ड पर भगवान आपकी पसंद के अनुसार फिट करके दे देते। पहले के राजा लोग अपने रथ पर कोई ध्वज फहराते थे और शायद भगवान उनके ध्वज पर ही रहते थे। जैसे पुराने जमाने में लोग बैलगाड़ी वगैराह में जाते थे तब उनकी गाड़ी में या तो जगह नहीं होती थी या उनको पता नहीं था, परंतु मैंने कभी बैलगाड़ी में भगवान को नहीं देखा, शायद बैल को ही भगवान रूप मान लिया जाता होगा। चार पहिया कोई भी हो, मैंने अधिकतर गाड़ियों में भगवान को देखा है, बसों में तो अगरबत्ती भी जलाई जाती है।

शायद इसके पीछे की भावना यही होती होगी कि इतनी बड़ी मशीन एक इंसान ही चला रहा है तो भगवान आप कृपा रखना और कई लोग गाड़ी चलाने के पहले भगवान का नाम लेते हैं और उतरते समय भगवान का धन्यवाद भी करते हैं। मशीने कभी भी किसी भी कारण से खराब हो जाती हैं और ये मशीनें बहुत तेज चलती हैं तो वैसे ही दुर्घटना भी खतरनाक होती है। हो सकता है कि आने वाले समय में रॉकेट में भी भगवान विराजमान हों, विमान का हमें पता नहीं। आप भी अपने आस पास देखें और समझें कि भगवान आखिर डेशबोर्ड पर विराजमान क्यों होते हैं।