Category Archives: कविता

भीगी बरसातों में तुम… मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

ओहो सावन का इंतजार नहीं करना पड़ता है

आजकल बरसात को,

जब चाहे बरस जाती हो बरसात

और किसी अपने की सर्द यादें दिला जाती हो,

भीगी बरसातों में तुम

कहीं खोयी खोयी सी अपने ही अंदाज में,

भिगाती हुई खुद को

बरसात भी तुमको भिगोने का आनंद लेती है,

सिसकियाँ आँहें भरते हुए लोग

और तुम बेपरवाह बरसात को लूटती रहती हो,

हर मौसम सावन है तुम्हारे लिये

क्योंकि तुमसे मिलने के लिये बरसात भी तरसती है।

[कल औचक बरसात के मूड में सुबह लिखी गई, एक रचना]

प्रेम दिवस पर दो कविताएँ अपनी प्रेमिका के लिये… मेरी कविता… विवेक रस्तोगी

प्रेम दिवस याने कि प्रेम को दिखाने का दिन, प्रेम के अहसास करने का दिन, और मैं अपनी प्रेमिका के लिये याने के अपनी पत्नी को दो कविताएँ समर्पित कर रहा हूँ, सच्चे दिल से लिखी है, अपनी पीड़ा लिखी है… कृप्या और यह न कहे कि यही तो हम भी कहना चाह रहे थे क्योंकि ये मेरी सिर्फ़ मेरी भावनाएँ हैं… वैसे मुझे लगता है कि यह कविता हर पति अपनी पत्नी को समर्पित करेगा ।
ख्वाईशें प्रेम दिवस की

ओह ख्वाईशें प्रेम दिवस की

तुम्हें कोई यादगार तोहफ़ा दूँ

पहले तोहफ़ा देने के लिये बैचेन रहता था

पर जेब खाली होती थी

अब जेब भरी होती है

तो तोहफ़ा समझ में नहीं आता

इसलिये मैंने खुद को ही

तुम्हें तोहफ़े में अपने आप को सौंप दिया है

उम्मीद है कि अब तो..

तुम्हें तोहफ़े की कोई उम्मीद मुझसे न..

रहती होगी…

और अगर हो तो…

दफ़न कर लो उसे क्योंकि अब मैं तुम्हारा हूँ

तोहफ़े तो गैर दिया करते हैं

जिन्हें अपना बनाने की ख्वाईश होती है

अब तो मैं तुम्हारा अपना हूँ

ये सब बहाने और बातें

केवल इसलिये हैं

क्योंकि इस प्रेमदिवस पर

फ़िर मुझे कोई तोहफ़ा नहीं मिला

मुझे यकीन है कि अब तक तो

तुम मुझे समझ गयी होगी

आखिर हमारा प्रेम अब जवान होने लगा है

शिकायत हो तो कह देना

मैं कॉलेज की नई किताब की तरह तुमसे

चिपक जाऊँगा।

हमें भी चाहिये ऑफ़

एक दिन घरवाली बोली

तुम करते हो ऐसा क्या काम

सात में दो दिन तुमको

मिलता है आराम,

यहाँ हम ३६५ दिन

लगे पड़े रहते हैं

अब हम भी दो दिन का

लेंगे ऑफ़,

हमने कहा दो दिन का ऑफ़

मतलब हमारा मंथली बजट साफ़,

मान जाओ

तुम्हें हमारे प्रेम की कसम,

रोज ऐसे ही ब्लैकमेल करके

खाना खा रहे हैं

जीना मुश्किल फ़िर भी

जिये जा रहे हैं।

विचार कैसे आते हैं… मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

अनुभूतियाँ कैसी होती हैं

विचार कैसे आते हैं

कभी दिमाग से तो कभी दिल से

विचार जो कि दिमाग को स्पंदित करते हैं

बुद्धि को प्रफ़ुल्लित करते हैं

गहनता से

अंतरतम में ओढ़े रहता है।विचार जो कभी मनोनुकूल होते हैं

कभी प्रतिकूल होते हैं

कभी जीवन बनाते हैं

कभी जीवन ध्वस्त करते हैं

कभी महल बनाते हैं

कभी खण्डहर बनाते हैं

कभी शोक होता है

कभी उत्सव होता है

बस सब विचार होते हैं

..

अस्थिरता से चंचलता की ओर .. खोज .. मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

अशांत मन को शांत कैसे करुँ

क्या भावबोध दूँ मैं इस मन को

जिससे यह स्थिर हो जाये

अस्थिरता लिये हुए कब तक

ऐसे ही इन भावबोधों से

यह चित्रकारी करता रहूँगा

पुराने पड़ने लगे रंग भी कैनवास के

नये रंग चटकीले से भरने होंगे

कुछ उजास आये

कुछ समर्पण आये

प्रेम वात्सल्य करुणा रोद्र रस आयें

रसों के बिन कैसे जीवन तरे

सब अस्थिर है,

चंचलता को ताक रहा हूँ

मन के लिये…

बेचारा मर्द… कब आयेगा हैप्पी मैन्स डे..(Happy Men’s Day)

हमारे एक मित्र ने एक मैसेज दिया वही हिन्दी में लिख रहा हूँ।

बेचारा मर्द..

अगर औरत पर हाथ उठाये तो जालिम

औरत से पिट जाये तो बुजदिल

औरत को किसी के साथ देखकर लड़ाई करे तो ईर्श्यालू (Jealous)

चुप रहे तो बैगैरत

घर से बाहर रहे तो आवारा

घर में रहे तो नकारा

बच्चों को डाटे तो जालिम

ना डांटे तो लापरवाह

औरत को नौकरी से रोके तो शक्की मिजाज

ना रोके तो बीबी की कमाई खानेवाला

माँ की माने तो माँ का चमचा

बीबी की सुने तो जोरू का गुलाम

ना जाने कब आयेगा ?

“HAPPY MEN’S DAY”

कुछ करना चाहता हूँ केवल अपने लिये … मेरी कविता .. विवेक रस्तोगी

मुक्ति चाहता हूँ

इन सांसारिक बंधनों से

इन बेड़ियों को

तोड़ना चाहता हूँ

रोज की घुटन से

निकलना चाहता हूँ

अब..

जीना चाहता हूँ

केवल अपने लिये

कुछ करना चाहता हूँ

केवल अपने लिये …

इंतजार तुम्हारे आने का … मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

इंतजार

तुम्हारे आने का

तुम आओगे मुझे पक्का यकीं है

तुमने वादा जो किया है

अब कब आते हो

ये देखना है

तुम आने के पहले इस इंतजार में

कितना सताते हो

ये देखना है

तुम्हारी टोह में बैठे हैं

हर पल

तुम्हारा इंतजार लगा रहता है

बस इतना पक्का यकीं है

कि तुम आओगे

पर ये इंतजार

बहुत मुश्किल होता है।

काश.. कि मेरे बुलाने पर … मेरी कविता … विवेक रस्तोगी

काश..

कि मेरे बुलाने पर

तुम आते

केवल मुझसे मिलने आते

मेरे लिये

मेरे पास आते

ओर मैं और तुम

कहीं बैठकर

गहराईयों

से बातें करते

काश !

अब क्या चाहते हो तुम … मेरी कविता… विवेक रस्तोगी

अब

क्या चाहते हो तुम,

तुम्हारे लिये और क्या कर गुजरें

देखो तो सही

समझो तो सही,

क्या इतना कुछ काफ़ी नहीं है

अब बोलो भी,

आखिर क्या चाहते है तुम !!

मौन….?

(किसे कहना चाह रहे हैं, क्यों कहना चाह रहे हैं, उसकी ढूँढ़ जारी है, बाकी तो सबका अपना नजरिया है।)

अर..रे आओ ना ! क्यों इतनी दूरी तुमने बना रखी है… मेरी कविता .. विवेक रस्तोगी

अर..रे

आओ ना ! क्यों इतनी दूरी तुमने बना रखी है.

 

हाँ तुम्हें पाने के लिये बहुत जतन करना पड़ेंगे

हाँ बहुत श्रम करना पड़ेंगे

करेंगे ना !

 

तुम्हें पाने के लिये दुनिया जहान से लड़ना पड़ेगा

शायद युद्ध भी करना पड़ेगा

करेंगे ना !

 

लड़ेंगे मरेंगे पर तुम्हें पाकर ही रहेंगे

तुम कितनी भी दूरी बनाओ, हम पास आकर ही रहेंगे..