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वैवाहिक संस्था का बदलता स्वरूप… और युवा पीढ़ी..

सामाजिक बंधन कितने जल्दी दम तोड़ते जा रहे हैं, कल तक जो वैवाहिक संस्था में बहुत खुश थे रोज ही उनके ठहाकों की आवाजें आती थीं और आज वैवाहिक संस्था को चलाने वाले वही दो कर्णधार अलग अलग नजर आ रहे थे, एक फ़्लैट की आगे गैलरी में और दूसरा फ़्लैट की पीछे गैलरी में ।

उनका पारिवारिक जीवन बहुत ही अच्छा चल रहा था और उनको देखकर हमेशा लगता था कि परस्पर इनका बंधन मजबूत हो रहा है, परंतु कल पता नहीं क्या हुआ, दोनों के बीच इतनी बड़ी दूरी देखकर मन बेहद दुखी हुआ । दोनों विषादित नजर आ रहे थे, मुझे तो दोनों की हालत देखकर ही इतना बुरा लग रहा था और वे दोनों तो इन परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, कितना विषाद होगा उनके बीच।

पति – पत्नि का संबंध

कैसा लगता होगा जब उसी साथी को देखने की इच्छा ना हो जो आपका जीवन साथी हो, जिसको प्यार करते हों और साथ जीने मरने की कसमें खायी हों। यह रिश्तों की डोर कितनी पतली और नाजुक है जिस पर आजकल की पीढ़ी सँभल नहीं पा रही है। जितनी तेजी से सामाजिक परिवेश बदल रहा है उतनी तेजी से युवा पीढ़ी में परिपक्वता नहीं बढ़ रही है। केवल कैरियर में अच्छा करना परिपक्वता की निशानी नहीं होता, सामाजिक और पारिवारिक समन्वयन परिपक्वता की निशानी होता है।

पिछले वर्ष से इस वैवाहिक संस्था को मजबूत होता हुआ उनके बीच देख रहा था परंतु आज उसने मुझे झकझोर दिया, महनगरीय संस्कृति में किसी के मामले में बोलना अनुचित होता है, दूसरी भाषा दूसरी संस्कृति भी कई मायने में दूरियाँ बड़ा देती हैं, परंतु आखिर परिस्थितियाँ तो सबकी एक जैसी होती हैं, और विषाद भी, केवल विषाद के कारण अलग अलग होते हैं।

युवा पीढ़ी जिस तेजी से वैवाहिक संस्था को मजबूत बनाती है, एकल परिवार में वह वैवाहिक संस्था छोटी छोटी बातों पर बहुत कमजोर पड़ने लगती है और कई बार इसके अच्छे परिणाम देखने को नहीं मिले हैं, परंतु अगर वही युवा जोड़े में एक भी परिपक्व होता है तो वह वैवाहिक संस्था हमेशा मजबूती से कायम होती है।

आजकल वैवाहिक संस्था में दरार कई जगह देखी है, परंतु उससे ज्यादा मैंने प्यार, मजबूती और रिश्तों में प्रगाढ़ता देखी है। मेरी शुभकामनाएँ हैं युवा पीढ़ी के लिये, वे परिपक्व हों और वैवाहिक संस्था का महत्व समझकर जीवन का अवमूल्यन ना करें।

क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? क्या इसीलिये आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं ? (Why Childs are not emotional ? why suicidal cases are increasing ?)

शिक्षा में बदलाव बेहद तेजी से हो रहे हैं और शिक्षक और छात्र के संबंध भी उतनी ही तेजी से बदलते जा रहे हैं। कल के अखबार की मुख्य खबर थी यहाँ बैंगलोर में इंजीनियरिंग महाविद्यालय के छात्र ने होस्टल के कमरे में पंखे से फ़ांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। खबर लगते ही हजारों के झुंड में छात्र इकठ्ठे हो गये और महाविद्यालय प्रशासन के खिलाफ़ नारेबाजी करने लगे। पुलिस बुलाई गई, परंतु छात्रों ने पुलिस को भी खदेड़ दिया और महाविद्यालय की इमारत को भी नुक्सान पहुँचाया। बाद में महाविद्यालय के मालिक का बयान आया कि वह छात्र कमजोर दिल का था और लगातार पिछले तीन वर्षों से उस छात्र का प्रदर्शन बहुत कमजोर था।

विषादग्रसित यह खब्रर पढ़ने के लिये नहीं लिखी हैं मैंने, सही बताऊँ तो मैंने कल अखबार ही नहीं पढ़ा था पर कल रात्रि  भोजन पर भाई से चर्चा हो रही थी तब इस और ध्यान गया और आज सुबह कल का अखबार पढ़ पाया । मन अजीब हो उठा और लगा क्या महाविद्यालय प्रशासन ने कभी उस छात्र के मन में क्या चल रहा है, यह जानने की कोशिश की। महाविद्यालय प्रशासन महज छात्र के घर एक पत्र भेजकर अपनी जिम्मेदारी से तो नहीं बच सकता ।

आज छात्र बहुत ही संवेदनशील परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, क्योंकि वे अब भावुक नहीं रहे, अब छात्रों से भावनाओं के बल पर कोई भी कार्य करवाना असंभव है। उसके पीछे बहुत सारे कारण जिम्मेदार हैं, परवरिश के बेहतर माहौल में कमी, शिक्षकों से अच्छा समन्वयन न होना । ऐसे बहुत सारे कारण हैं। क्योंकि आजकल बच्चों को इंटरनेट पर सब मिल जाता है तो कई बच्चे तो दोस्त भी नहीं बनाते हैं और इंटरनेट पर ही अपना समय बिताते पाये जाते हैं।

अब मेरे मन में जो सवाल उठ रहे हैं कि क्या महाविद्यालय का छात्र पर अच्छे प्रदर्शन के लिये दबाब बनाना उचित था, और अगर दबाब बनाया गया तो उसे क्या उचित मार्गदर्शन दिया गया । छात्र के घर पर पत्र भेजने से छात्र की मानसिक हालात को समझा जा सकता है। हरेक छात्र के माता-पिता यही सोचते हैं कि बेटा अच्छा पढ़ रहा है परंतु अगर महाविद्यालय से इस प्रकार का पत्र मिले तो वे यकीनन ही अपने बेटे पर क्रुद्ध होंगे, और उसे परिस्थिती से बचने के लिये उस छात्र ने आत्महत्या कर ली हो ? छात्र तो पहले से ही विषादग्रसित था, उसको मनोवैज्ञानिक तरीके से संभालना चाहिये था। परंतु ऐसा ना हुआ, अब उन माता-पिता पर क्या गुजर रही होगी जिन्होंने अपना जवान बेटा इसलिये खो दिया क्योंकि वह पढ़ाई में कमजोर था, नहीं ? वह पढ़ाई में कमजोर होने के कारण विषादग्रसित हो चला था।

पढ़ाई में कमजोर होना कोई बुरी बात तो नहीं, पढ़ाई ही तो सबकुछ नहीं है, उससे बढ़कर होता है जीवन जीने का हौसला और उस विषादित परिस्थिती से निकालने में सहायक परिवेश और परवरिश। कमजोर पढ़ाई वाले पता नहीं कितनी आगे निकल गये हैं और पढ़ाई वाले कहीं पीछे रह गये हैं।

मुख्य सवाल जो मेरे मन में है और उसका उत्तर खोजने की कोशिश जारी है मनन जारी है, क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? और उनके आधुनिक परिवेश में उन्हें कैसी परवरिश देनी चाहिये ?

प्रोड़क्टिव मेन अवर्स बर्बाद और आभिजात्य वर्ग की मानसिक मजदूरी

अभी दो दिनों से कार्यालय जा रहे हैं, नहीं तो घर से ही काम कर रहे थे। इन दो दिनों में आना जाना और कई लोगों से मिलना हुआ।

घर से काम करने में यह तो है कि घर पर परिवार को समय ज्यादा दे पाते हैं, परंतु काम करने में थोड़ी बहुत अड़चनें भी आती हैं, खैर हमेशा परिवार के साथ रहते हैं, और आने जाने का लगभग २ घंटे का समय भी बचता है, जो कि कहीं और निवेश कर दिया जाता है।

कल जब बस स्टॉप पर बस पकड़ने के लिये खड़े थे तो ऐसा लगा कि सदियाँ बीत गईं हैं सफ़र किये हुए, और बस का इंतजार और बस के इंतजार में खड़े लोग पता नहीं कितने सारे प्रोड़क्टिव मेन अवर्स बर्बाद हो रहे थे और हम कुछ कर नहीं सकते थे, केवल देख सकते थे। व परिवार को जो समय दिया जा सकता है, वह भी कम्यूटिंग में निकल जाता है।

कोई भाग रहा है कोई दौड़ रहा है, कोई मुस्करा रहा है कोई टेंशन में है, सबकी अपनी अपनी दुविधाएँ हैं तो सबके अपने अपने सुख दुख हैं।

रोजी रोटी जो न कराये वह कम है, एक लड़की अपने मित्र का एस.एम.एस. पढ़ पढ़कर दुखी हो रही है, उसके ब्वॉय फ़्रेंड ने एस.एम.एस. में कहा है कि मैं तुम्हारे लिये बहुत सारा समय निकाल सकता हूँ परंतु मेरी और भी प्रायोरिटीज हैं, प्लीज समझा करो और मुझसे ज्यादा एक्स्पेक्ट मत करो, मैं सोचने लगा कि वाह लड़के भी आजकल इतना साफ़ साफ़ मैसेज भेजने की हिम्मत रखते हैं।

नहीं तो हम तो सोचते थे कि केवल लड़कियाँ ही साफ़ साफ़ बोलती हैं 🙂 खैर जब लिफ़्ट के पास होते हैं तो सबके हाथों में मोबाईल देखते हैं, अधिकतर आई फ़ोन लिये दिखते हैं, तो अपने ऊपर कोफ़्त होती है कि अपन इतने आधुनिक क्यों ना हुए.. और जिनके पास ब्लैक बैरी है तो पता चल जाता है कि कंपनी ने दिया है कि बेटा २४ घंटे खाते पीते उठते जागते चलते फ़िरते काम करते रहो। इससे यह तो समझ में आ गया कि आई फ़ोन वाला वर्ग विलासिता भोगी हो सकता है और ब्लैक बैरी वाला अच्छे कपड़ों में मानसिक मजदूर।

अच्छा है कि अपन अभी इन दोनों वर्गों से दूर हैं, या भाग रहे हैं, पहले जब कंपनी लेपटॉप देती थी तो लगता था कि २४ घंटे मजदूरी के लिये दे रही है, परंतु धीरे धीरे अब समय बदल गया है और अब सबको ही लेपटॉप ही दिया जाता है, अब डेस्क्टॉप का जमाना लद गया।

खैर आभिजात्य वर्ग की मानसिक मजदूरी कितने लोग देख पाते होंगे पता नहीं, जो ब्लैकबैरी और लेपटॉप में उलझा रहता है।

पारिवारिक समय का कत्ल कर रहे है अंतर्जाल और फ़ेसबुकिया दोस्त (Facebook and Internet are killing family time)

    अभी कुछ समय से अपने ऊपर ही विश्लेषण कर रहा हूँ कि एक बार लेपटॉप पर कुछ थोड़ा सा कार्य लेकर बैठे तो कार्य तो खत्म हो गया, किंतु बाकी का समय फ़ेसबुक, ट्विटर या ब्लॉग पढ़ने में निकल जाता है, और यह समय किस तेजी से भागता है, यह तो सिस्टम ट्रे की घड़ी और सामने दीवार पर लगी घड़ी दोनों बताते रहते हैं।

    वर्षों पहले बचपन की सुनहली तस्वीर सामने आती है, जब न बुद्धुबक्सा था न अंतर्जाल तक पहुँचाने वाला ये तकनीकी यंत्र नहीं था, तब लगभग सभी परिवार अपने आप में बेहद मजबूती से बंधे हुए थे, और सबको एक दूसरे के दुख सुख का अहसास होता था, पता होता था। सामाजिक मूल्यों की परिभाषा अलग होती थी और अब सामाजिक मूल्यों की परिभाषा में बदलाव सहज ही देखा जा सकता है।

    कल फ़ेसबुक पर बहुत सारे दोस्तों को जो कि केवल फ़ेसबुक दोस्त थे, जो इसलिये बना लिये गये थे कि उनके और हमारे कुछ कॉमन दोस्त थे, हटा रहे थे। दोस्तों की इतनी भीड़ देखकर दंग था और उनके द्वारा जारी किये गये स्टेटसों को भी देखकर, कुछ तो केवल अपनी भड़ास ही निकाल रहे थे और कुछ केवल समय का कत्ल कर रहे थे, तो हमने सोचा कि ऐसे समय का कत्ल करने वाले दोस्तों से पीछा छुड़ाना ज्यादा ठीक होगा, ठीक है थोड़ा सा अपना पारिवारिक समय का कत्ल होगा।

    पीछा छुड़ाने से यह फ़ायदा तो होगा जो वाकई में दोस्त हैं उनके दुख सुख में शामिल तो हो सकेंगे उनकी वर्तमान गतिविधियों को देख तो सकेंगे। कल इतने समय फ़ेसबुक पर शायद पहली बार मैंने वक्त गुजारा और देखा कि कुछ लोग तो केवल दोस्त बनाने की होड़ में लगे हैं और सार्वाधिक दोस्त बनाने की होड़ में लगे हैं। केवल अपने मन को तृप्त करने के लिये ?

    समय आ गया है कि थोड़ा अपने समय का कत्ल करके ऐसी चीजों से बचा जाये और बेहतरीन समय प्रबंधन कर परिवार को उचित समय दिया जा सके।

व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा, क्या आपके साथ दुर्घटना नहीं हो सकती [Personal Accident Insurance Policy]

    शर्मा साहब ३४ वर्ष के हैं, हँसता खेलता परिवार है उनका, प्यारी सी पत्नी और प्यारे प्यारे दो बच्चे हैं। भविष्य की सारी योजनाओं के लिये शर्मा साहब ने बराबर वित्तीय प्रबंधन कर रखा है। और सभी चीजों का ध्यान रखा हुआ था, बीमा से लेकर बाकी सभी सही वित्तीय उत्पादों में उन्होंने निवेश किया हुआ है। शर्मा साहब पेशेवर सॉफ़्टवेयर इंजीनियर हैं, और बाकी लोगों की तरह अपने ऑफ़िस रोज आते जाते हैं। वे मुंबई के बाहरी उपनगर में रहते हैं, जहाँ परिवार के लिये सभी तरह की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। पर रोज अपने ऑफ़िस जाना उनके लिये सबसे बड़ा सरदर्द है। उनको रोज लोकल ट्रेन से अपने ऑफ़िस आना जाना होता, और भीड़ इतनी होती कि कई बार तो लोकल ट्रेन के पायदान पर खड़े होकर यात्रा करना होती। एक दिन रोज की यात्रा के दौरान शर्मा साहब चलती लोकल ट्रेन से गिर पड़े, अब शर्मा साहब शारीरिक और मानसिक रुप से स्वस्थ्य नहीं थे, उन्होंने अपने दोनों पैर इस दुर्घटना में गँवा दिये, और अपने ऑफ़िस जाने की स्थिती में भी नहीं थे, स्वास्थ्य के खर्चे इतने बढ़ गये कि वे होमलोन में डिफ़ाल्टर हो गये। और जितना पैसा उन्होंने बचाया था वह बहुत तेजी से खर्च होने लगा।

    शर्मा साहब का जीवन बहुत ही बुरी स्थिती में पहुँच गया। तो आपको क्या लगता है ? कि इस स्थिती से निपटने के लिये वे क्या कर सकते थे ? खैर अगर वे मात्र ५०० से १००० रुपये की कोई दुर्घटना बीमा योजना अपने लिये ले लेते तो इस तरह से उन्हें वित्तीय प्रबंधन में असफ़लता नहीं होती।

    शर्मा साहब की कहानी केवल एक उनकी ही नहीं है, हम लोग रोज यात्राएँ करते हैं इतने जोखिम हमेशा आसपास रहते हैं, पर यह सोचते हैं कि हमारे साथ दुर्घटनाएँ हो ही नहीं सकती हैं। असल में जिंदगी जीने का एक तरीका वह है। अगर कुछ हो जाये……. तो उसके लिये एक अच्छी रणनीति बनायें अपने लिये व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना लें।

जोखिम क्यों लेना ?

    थोड़ा सा ऐसे समझें कि अपने परिवार के सुरक्षा के लिये आपने मृत्यु के जोखिम से बचाने के लिये जीवन बीमा लिया है। यह समान तर्क अपने लिये दें तो, कि अगर आपकी आय बंद हो जाये, आपके साथ घटी भयानक दुर्घटना के कारण अगर आप अपने कार्य पर जाने में सक्षम नहीं हैं तो ….? आपकी आय बंद हो जायेगी। इस तरह के स्थिती से बचने के लिये व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना लिया जाना चाहिये। अगर आप अस्थायी या स्थायी विकलांग होने की स्थिती में अपने वित्तीय जोखिम को हस्तांतरित कर सकते हैं, तो आप क्यों नहीं करते ?

किन लोगों को इसकी जरुरत है ?

    व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना से आप किसी अनचाही दुर्घटना से अस्थायी या स्थायी विकलांग होने की स्थिती में हो सकने वाले वित्तीय जोखिम से सुरक्षित रह सकते हैं। तो हर उस  व्यक्ति को यह दुर्घटना बीमा योजना लेना चाहिये जो अपने आपको और अपने परिवार को ऐसी किसी भी स्थिती से होने वाले वित्तीय जोखिम से बचाना चाहता है। और अगर केवल आप ही अपने परिवार में कमाने वाले हैं तब तो यह बहुत ही जरुरी है। व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना १८ से ७० वर्ष के किसी भी व्यक्ति द्वारा ली जा सकती है।

क्या सुरक्षा मिलती है ?

    व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना से आपको सुरक्षा मिलती है, नॉमिनी को दुर्घटना से होने वाली आकस्मिक मौत की स्थिती में बीमा धन, संपूर्ण या आंशिक विकलांगता या अस्थायी विकलांगता की स्थिती में कुछ निश्चित बीमा धन की सुरक्षा मिलती है। बीमित राशि का भुगतान आंशिक हो सकता है या पूर्ण भी हो सकता है यह दुर्घटना की गंभीरता पर निर्भर करता है।

    उदाहरण के लिये – यूनाईटेड इंडिया इंश्योरेन्स की व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना में आकस्मिक मृत्यु या स्थायी पूर्ण अशक्तता  या कोई दो अंग (या दोनों आँखें) न रहने की स्थिती में बीमित राशि का १००% भुगतान होगा। पर आंशिक विकलांगता की स्थिती में याने कि किसी भी एक अंग या एक आँख के नुक्सान होने पर बीमित राशी के ५०% का भुगतान किया जाता है। अस्थायी पूर्ण अशक्तता की स्थिती में बीमा कंपनी बीमित रकम का १% का भुगतान हर सप्ताह करती है जो कि अधिकतम ३००० रुपये और अधिकतम ५२ सप्ताह के लिये दिया जाता है। स्थायी आंशिक विकलांगता के मामले में भुगतान बीमित रकम का कुछ भाग होगा जो कि योजना के नियम और शर्तों के मुताबिक होगा। प्रीमियम की राशि आपके बीमित रकम की राशी पर निर्भर करती है। अतिरिक्त प्रीमियम भुगतान करने पर स्वास्थ्य व्यय के जोखिम से भी सुरक्षा पा सकते हैं। लगभग सभी कंपनियों की योजनाओं के मानक समान ही होते हैं पर सभी कंपनियों की बीमा शर्तें अलग हो सकती हैं। हालांकि व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना एक करार जैसा होता है, आप अगर किसी अंग का ज्यादा रकम का बीमा करवाना चाहते हैं तो करवा सकते हैं। योजना में शर्तें बिल्कुल साफ़ शब्दों में लिखी होती हैं।

    फ़िर भी आपको योजना के नियम और शर्तें पूरी तरह से पढ़ लेना चाहिये कि उसमें किस अंग की कितनी बीमा धन से सुरक्षा है।

स्वास्थय, जीवन बीमा और दुर्घटना बीमा में क्या संबंध है ?

    आपमें से कुछ लोगों ने स्वास्थ्य बीमा, जीवन बीमा, अपने वाहन का बीमा तो ले रखा है और आप सोचते हैं कि मुझे व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना की कोई जरुरत नहीं हैं। आपके बीमा एजेन्ट ने जीवन बीमा बेचते समय आपको बताया था कि इसमें दुर्घटना बीमा से भी सुरक्षा है, बीमा एजेन्ट की कही गई बातों पर आँख बंद करके विश्वास मत कीजिये और जीवन बीमा योजना के दस्तावेजों को ध्यान से पढ़िये। शायद ही कोई जीवन बीमा योजना दुर्घटना के जोखिम से सुरक्षा देती है, आमतौर पर ऐसा नहीं होता है और जोखिम से पर्याप्त सुरक्षा भी नहीं होती है। तो इसलिये यह मेरी सलाह है कि अलग से व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना जरुर लें जो कि आपके जीवन में होने वाली आकस्मिक स्थिती में वित्तीय जोखिम से सुरक्षा प्रदान करे। भारत में दुर्घटना बीमा योजना के लिये  प्रीमियम की राशि पूरे विश्व में सबसे कम है। जो कि १५०-१८० रुपये प्रति लाख रुपये के लिये होती है। अब सोच क्या रहे हैं जल्दी से व्यक्तिगत दुर्घटना बीमा योजना लीजिये और अपने को और अपने परिवार को सुरक्षित कीजिये या इंतजार कर रहे हैं किसी आकस्मिक दुर्घटना का ….।

हमारे घर में नया मेहमान आया है… :) :D

    आज शाम को हमारे घर में एक नया मेहमान आया है, बिटिया आई है, मेरे छोटे भाई शलभ को आज बिटिया की प्राप्ति हुई, बहु दिल्ली में ही थी और भाई शाम की फ़्लाईट पकड़ कर दिल्ली पहुँचा है।

    कितना रोमांचकारी पल होता है पिता बनने का, उससे बात करने से ही पता चल रहा था, जब बिटिया इस दुनिया में आई तो हमारा भाई फ़्लाईट में था, तो हमने तुरंत एक एस.एम.एस. कर दिया … [Congrats Dad !! bitiya ghar me aayi hai, khushiya lai hai :)]

    जब भाई के प्लेन दिल्ली में उतर गया तो जैसे ही मोबाईल खोला हमारा एस.एम.एस. मिलने से उसे पता चला और तब तक तो हम लगभग सभी अपने परिचितों को एस.एम.एस. या फ़ोन कर चुके थे।

    घर पर बात हुई तो मम्मी बोली कि अब तो ताऊ बन गये हो, और घर में बिटिया आई है, अब घर में रक्षाबंधन का त्यौहार भी मना करेगा। हम खुशी के मारे कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे। बहुत ही सुन्दरतम एहसास होता है घर में नये मेहमान आने का और वो भी प्यारी बिटिया रानी के आने का।

चैन्नई में कल का रात्रि भोजन और आसपास के वातावरण के कुछ चित्र से अपने जहन में बीती जिंदगी का कोलाज बन गया…

    कल का रात्रि भोजन जो कि फ़िर हमने सरवाना भवन में किया, माफ़ कीजियेगा बहुत से ब्लॉगर्स को हमने इसका नाम याद करवा दिया है, और केवल इसके लिये ही वो चैन्नई आने को तैयार हैं।

    जब हम पहुँचे तो पहले से ही इंतजार की लाईन लगी थी क्योंकि बैठने की जगह बिल्कुल नहीं थी, हमने लिखवा दिया कि भई हमारा भी नंबर लगा दो। पीछे वेटिंग में पाँच लोगों का बहुत बड़ा परिवार (बड़ा इसलिये कि आजकल तो हम दो हमारा एक का कान्सेप्ट है।) और उनके पीछे दो लड़के हमारी ही उम्र के होंगे और साथ में उनके साथ एक वृद्धा थीं। पहला हमारा ही नंबर था, जैसे ही एक टेबल खाली होने वाली थी वैसे ही वेटर ने हमें उस टेबल का अधिकार हमें इशारा करके दे दिया। जो उस टेबल पर बैठे थे वो भाईसाहब हाथ धोने गये थे तब तक वेटर उनका बिल लेकर आ गया और उनको खड़े खड़े ही पेमेन्ट भी देना पड़ा और वापस छुट्टे आने का इंतजार भी करना पड़ा।

    पर हम अपनी कुर्सी पर ऐसे धँस गये थे बिल्कुल बेशर्म बनकर कि हमें कोई मतलब ही नहीं है, हालांकि अगर ये हमारे साथ होता तो बहुत गुस्सा आता और शायद इस बात पर हंगामा खड़ा कर देते। जब हम इंतजार की लाईन में खड़े थे तभी मेन्यू कार्ड लेकर क्या खाना है वो देख लिया था जिससे बैठकर सोचने में समय खराब न हो क्योंकि बहुत जोर से भूख लगी थी।

    आर्डर दे दिया गया, जहाँ हम बैठे थे उसी हाल के पास में ही खड़े होकर खाने की व्यवस्था थी, सेल्फ़ सर्विस वाली। हमारी टेबल के पास ही एक टेबल पर एक लड़की पानी बताशे खा रही थी, तो बताशा उसने जैसे ही मुँह में रखा, तो मुँह खुला ही रह गया, क्योंकि बताशा एक बार के खाने के चक्कर में उसके मुँह में फ़ँस गया था, उसने कोशिश की पर कुछ नहीं हुआ फ़िर अंतत: अपने हाथ से बताशा मुँह के अंदर करना पड़ा ये सब देखकर हमें अपने पुराने दिन याद आ गये, जब हम अपने उज्जैन में चौराहे पर पानी बताशे वाले के यहाँ खड़े होकर बड़े बड़े बताशे निकालने को कहते थे कि मुँह में फ़ँस जाये। और हम सारे मित्र लोग बहुत हँसते थे।

    तभी हमारे सहकर्मी जो कि हमारे साथ थे कहा कि देखो उधर सिलेंडर देखो, तो उधर हमने देखा तो पाया कि एक सुंदर सी लड़की खड़ी थी, हमारा सहकर्मी बोलता है कि हमने सिलेंडर देखने को बोला है, लड़की नहीं। किसी जमाने में हम भी अपने दोस्तों के साथ यही किया करते थे, और बहुत मजा किया करते थे। अपने स्कूल कॉलेज के दिनों की बातें याद आ गईं।

    अगली टेबल पर एक छोटा परिवार (छोटा इसलिये कि वो हम दो हमारा एक कॉन्सेप्ट के थे) था जो कि खड़ा होकर खा रहा था। और अपने प्यारे दुलारे बेटे को गोल टेबल पर बैठा रखा था, और उसकी मम्मी पापा बड़े प्यार दुलार से अपने बेटे को अपने हाथों से खिला रहे थे। और साथ में प्यार भी करते जा रहे थे। हमें हमारे बेटे की याद आ गई, क्योंकि वो भी लगभग इतनी ही उम्र का है, और शैतानियों में तो नंबर वन है। कहीं भी चला जाये तो पता चल जाता है कि हर्षवर्धन आ गये हैं। होटल में तो बस पूछिये ही मत पूरा होटल सर पर रख लेंगे, होटल वाला अपने आप एक आदमी उसके पीछे छोड़ देता है, कि यह पता नहीं क्या शैतानी करने वाला है, और हम लोग अपना खाना मजे में खाकर बेटे को साथ में लेकर चल देते हैं, बेचारा होटल वाला भी मन में सोचता होगा कि ये हमारे यहाँ क्यों खाने आये हैं।

    आज हमें कुछ ज्यादा ही मोटे लोग नजर आये, तो समीर भाई “उड़नतश्तरी जी” की टिप्पणी याद आ गई, कि हमें तो खाने का फ़ोटू देखते ही वजन दो किलो बड़ गया, ध्यान रखें। मोटे लोगों को देखकर अनायास ही मुँह से निकल जाता है, ये देखिये अपना भविष्य। पर क्या करें बेशर्म बनकर उनको देखते रहते हैं।

    शाम को ही एक बिहारी की दुकान पर समोसा खा रहे थे, तो वहाँ पर एक बेहद मोटा व्यक्ति जलेबियाँ खा रहा था, कपड़े ब्रांडेड पहने हुआ था, और मजे में जलेबियाँ खाये जा रहा था, हम सोचने लगे कि ये तो हमसे लगभग तिगुना है फ़िर भी क्या जलेबियाँ सूत रहा है, तो बसे हम समोसे पर ही रुक गये और जलेबियों की ओर देखा भी नहीं, केवल उस मोटे व्यक्ति की ओर एक नजर देखकर चुपचाप सरक लिये।

    जब सरवाना भवन से खाकर निकले तो बिल्कुल पास में ही एक पान वाले भैया खोका लगाकर बैठते हैं, ५ दिन से हम इनके पर्मानेंट ग्राहक हैं, भैया जी इलाहाबाद के हैं और बहुत रसभरी प्यारी प्यारी बातें करते हैं पर तमिल पर भी उतना ही अधिकार है, जितना कि अपनी मातृभाषा पर, पर उनका टोन बिल्कुल नहीं बदला है, अभी भी ऐसा ही लगता है कि छोरा गंगा किनारे वाला ही बोल रहा है। उनसे हम अपना पान लगवाकर थोड़ी सी हिन्दी में मसखरी करके अपने रास्ते निकल लेते हैं। आज वे भी प्यार से बोले “बाबू आप भी हमारे मुल्क से लगते हो” हम भी बोल ही दिये “भई हम तो इलाहाबाद के दामाद हैं।” और चल दिये अपने ठिकाने की ओर…

माँ-बाप को एक ही बेटे या बेटी से ज्यादा लगाव क्यों होता है…. क्यों ? यह प्रश्न है, जिसका उत्तर मैं ढूँढ़ रहा हूँ……..?

  यह एक ज्वलंत प्रश्न है पारिवारिक मुद्दों में,  माँ बाप को एक ही बेटे या बेटी से ज्यादा लगाव क्यों होता है।
  माँ-बाप के लिये तो सभी बच्चे एक समान होने चाहिये परंतु मैंने लगभग सभी घरों में देखा है कि किसी एक बेटे या बेटी से उन्हें ज्यादा लगाव होता है और वह भी काफ़ी हद तक अलग ही दिखता है कि उसकी सारी गलतियों पर परदा करते हैं और दूसरे बच्चों से ज्यादा उसका ध्यान रखते हैं, भले ही वो उद्दंड, सिद्धांन्तहीन हो, मुझे आज तक यह समझ में नहीं आया कि इसके पीछे क्या भावना कार्य करती है, जो कि इस हद तक किसी एक बेटे या बेटी से भावनात्मक लगाव की स्थिती बन जाती है। भले ही वह उनकी सेवा न करे, उन्हें बोझ माने, उन्हें अपने सामाजिक स्थिती के अनुरुप न माने।
  माँ-बाप के लिये तो हर बच्चा एक समान होना चाहिये, बड़ा या छोटा बच्चा होना तो विधि का विधान है, उसमें माँ-बाप या बच्चे का कोई श्रेय नहीं होता है। जब विधि अपने विधान में अन्तर नहीं करती है, सबको बराबार शारीरिक सम्पन्नता देती है, फ़िर इस भौतिक जीवन में यह अन्तर क्यों होता है। जैसे शरीर के लिये दो आँखें बराबर होती हैं वैसे ही माँ-बाप के लिये अपने सारे बेटे-बेटी बराबर होना चाहिये, परन्तु बिड्म्बना है कि ऐसा नहीं होता है, कहीं बेटा या कहीं बेटी किसी एक से ज्यादा भावनात्मक लगाव होता है।

क्यों ? यह प्रश्न है, जिसका उत्तर मैं ढूँढ़ रहा हूँ……..?
  यह एक स्वस्थ्य बहस है, और अगर कोई भी आपत्तिजनक या व्यक्तिगत टिप्पणी पाई जाती है तो मोडरेट कर दिया जायेगा। शब्द विचारों को प्रकट करने का सशक्त माध्यम है कृप्या उसका उपयोग करें।

नई पीढ़ी की भारतीय पुत्रवधु (आज की प्रगतिशील भारतीय महिला)

यह तो कटु सत्य है कि जब घर में लड़के की शादी होती है और नई बहू आती है, सब कुछ बदल जाता है।
नई बहू (आज की प्रगतिशील भारतीय महिला), का पति के घर में परंपरागत भारतीय तरीके से स्वागत किया जाता है।
जैसी कि उम्मीद थी, नई बहू ने भाषण दिया, “मेरे प्रिय परिवार, मैं आप सब का धन्यवाद देती हूँ कि मेरे नये घर और नये परिवार में आपने मेरा स्वागत किया, अब मेरे यहाँ आ जाने से आप यह मत समझियेगा कि मैं आपके जिन्दगी जीने के तरीके को, या आपकी दिनचर्या बदलूँगी।
“नहीं मैं ऐसा कभी नही करुँगी, लाखों सालों में भी नहीं”।
“बेटी इसका क्या मतलब है ?” ससुर जी ने पूछा ।
ससुर जी की और देखते हुए बोली “मेरा मतलब है कि…

जो भी अभी तक बर्तन धोता था वो उन्हे धोता रहे।

जो भी कपड़े धोता था वो ही धोता रहे।

जो भी खना पकाता था कृपया मेरे लिये रुके नहीं, और जो भी सफ़ाई करते है वे अपना काम करते रहें।

“तो बहुरानी फ़िर तुम यहाँ क्या करोगी ?” सास ने पूछा ।
“जहा तक मेरी बात है, मैं यहाँ आपके बेटे का मनोरंजन करने आयी हूँ !!!”

सन्तान के कर्तव्य जो सन्तान को निभाने चाहिये..

मातृ देवो भव: ! पितृ देवो भव: !

आचार्य देवो भव: ! अतिथि देवो भव: !

माता पिता, गुरु और अतिथि – संसार में ये चार प्रत्यक्ष देव हैं । इनकी सेवा करनी चाहिये। इनमें भी माता का स्थान पहला, पिता का दूसरा, गुरु का तीसरा और अतिथि का चौथा है। माता – पिता में परमात्मा प्रत्यक्ष स्वरुप है। माता साक्षात लक्ष्मी होती है तो पिता नारायण। जिनको माता पिता में भगवद्भाव नहीं होते उनको मन्दिर या मूर्ति में भी कभी भगवान के दर्श्न नहीं होते।

माता – पिता में भी माँ का दर्जा अधिक ऊँचा है। शास्त्रों में भी माँ का दर्जा पिता से सौ गुणा अधिक ऊँचा बताया गया है। पिता तो धन – सम्पत्ति आदि से पुत्र का पालन पोषण करता है, पर माँ अपना शरीर देकर पुत्र का पालन पोषण करती है। बच्चे को गर्भ में नौ माह तक धारण करती है, जन्म देते समय प्रसव पीड़ा सहती है, अपना दूध पिलाती है एवं अपनी ममता की छाँव में उसका पालन पोषण करती है। ऐसी ममतामयी जननी का ऋण पुत्र नहीं चुका सकता। ऐसे ही पिता बिना कहे ही पुत्र का भरण पोषण का पूरा प्रबन्ध करता है, विद्याध्ययन करवाकर योग्य बनाता है, उसकी जीविका का प्रबन्ध करता है एवं विवाह कराता है। ऐसे पिता से भी उऋण होना बहुत कठिन है। रामायण में कहा गया है – “बड़े भाग मानुष तन पावा”। इस शरीर के मिलने में प्रारब्ध (कर्म) और भगवत़्कृपा तो निमित्त कारण है और माता पिता उपादान कारण हैं। उनके कारण ही हम इस संसार में आते हैं। इसलिये जीते जी उनकी आज्ञा का पालन करना, उनकी सेवा करना, उनको प्रसन्न रखकर उनका आशीर्वाद लेना और मरने के बाद उनके मोक्ष हेतु पिण्ड दान, श्राद्ध – तर्पण करना आदि पुत्र का विशेष कर्तव्य है। माता पिता की दुआ में दवा से भी हजार गुणा ज्यादा शक्ति होती है।

पुराणों में उल्लेख मिलता है कि जब देवराओं में यह होड़ लगी कि सबसे बड़ा कौन ? जो सबसे बड़ा होगा वही प्रथम पूज्य होगा। तब सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि जो तीनों लोकों का तीन चक्कर लगा कर सबसे पहले आ जायेगा वही प्रथम पूज्य होगा। सभी देवता अपने अपने वाहनों पर चढ़ कर दौड़ पड़े तब गणेश जी बड़े चक्कर में पड़े कि मेरा वाहन चूहा सबसे छोटा है इस पर चढ़कर में कैसे सबसे पहले पहुंच सकता हूँ। अत: उन्होंने समाधिस्थ पिता शंकर के बगल में माँ पार्वती को बैठा दिया तथा स्वयं अपने वाहन पर चढ़ कर दोनों की तीन बार परिक्रमा की । माता पिता की परिक्रमा करते ही तीनों लोकों की परिक्रमा पूरी हो गई और वे प्रथम पूज्य घोषित हुए। आज भी बुद्धि के देवता के रुप में सर्वत्र प्रथम पूज्य हैं।

पहले की कुछ ओर कड़ियाँ परिवार के संदर्भ में –

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