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राजेश उत्साही जी से एक मुलाकात

लगभग ३ हफ़्ते पहले राजेश उत्साही जी की एक पोस्ट पढ़ी जिसमें उन्होंने बैगलोर में रहने का जिक्र किया था, इसके पहले उनसे परिचय नहीं था। फ़िर एकदम उनको ईमेल करके पूछ लिया गया कि हम कब मिल सकते हैं, और तय हुआ कि इसी सप्ताहांत में मिल लिया जाये, नेक काम में देरी क्यों की जाये। पहले तय हुआ कि कहीं सार्वजनिक जगह पर मिल लिया जाये फ़िर संकोच टूटा और तय हुआ कि या तो अपने घर पर या फ़िर मेरे घर पर, राजेश भाई को हमने कहा कि आप ही आ जाईये। तब तक मैंने उनकी केवल एक पोस्ट ही पढ़ी थी। “सूखती किताबों में भीगता मन” ।
एक फ़ोटो जो मुलाकात के दौरान खींचा गया –

 

राजेश उत्साही जी से रविवार को मिलना तय हुआ और बिल्कुल तय वक्त के मुताबिक राजेश भाई हमारे घर के करीब पहुँच भी गये। हम उनको लेने बस स्टैंड पर गये थे, जैसे ही बस से उतरे हम तुरंत ही पहचान गये और राजेश भाई भी एकदम पहचान गये।
राजेश भाई बहुत ही सौम्य स्वभाव के मालिक हैं और बिल्कुल सीधे तरीके से अपनी बातें रखते हैं, इस छल कपट की दुनिया में इस तरह का व्यवहार देखकर मैं तो गद्गद था।
घर पहुँचकर बातों का सिलसिला चल निकला, तो पता चला कि राजेश जी को तो हम बचपन से जानते हैं, वे “एकलव्य” से जुड़े हुए थे, और चकमक पत्रिका का संपादन करते थे। चकमक मेरी प्रिय पत्रिका हुआ करती थी, और मैं धार में एकलव्य में जुड़ा हुआ था। राजेश भाई के कारण ही मेरे लंगोटिया मित्र के बड़े भैया का फ़ोन नंबर भी मिल गया और राजेश जी ने तत्काल उनसे बात भी करवाई, बड़े भैया राजेश जी के साथ ही एकलव्य में काम करते थे और उनकी काफ़ी अच्छी मित्रता है।
राजेश भाई ने बड़े भैया से कहा कि हम अभी फ़ोन आपके एक बहुत पुराने परिचित को दे रहे हैं, पहचानो कि वे कौन हैं, हमने कहा भी उनका पहचानना बहुत ही मुश्किल है। फ़ोन पर बात हुई, तो हमने अपना परिचय दिया तो बड़े भैया एकदम पहचान गये। और फ़िर राजेश भाई से धार, भोपाल की बहुत सारी बातें हुईं। राजेश भाई से शुरूआती संघर्ष की कहानी सुनी, और यह तो समझ आ गया कि बिना संघर्ष के व्यक्ति न सफ़ल हो पाता है और ना ही अच्छे व्यक्तित्व का मालिक बन पाता है।
हमने बताया कि हम अपने मित्र के कारण ही एकलव्य से जुड़े थे और सुबह बर्ड वाचिंग पर जाया करते थे, कई किताबें पढ़ने एकलव्य मॆं जाना होता था।
इसी बीच दोपहर भोजन का समय हो चुका था और जमकर पेट में चूहे धमाचौकड़ी मचा रहे थे, हमने राजेश भाई से माफ़ी मांगते हुए कहा कि अभी घर पर पकाने की बिल्कुल भी इच्छा नहीं है, (आजकल फ़ोर्स बैचलर हैं, और अपने हाथ से खाना पकाना बहुत अच्छा लगता है, नये नये व्यंजनों की आजमाईश चलती रहती है) इसलिये बाहर ही चला जाये, राजेश जी ने सरलता से कहा कि भोजन आपके हाथ का नहीं आपके साथ खाना है, फ़िर बस पास ही एक राजस्थानी भोजनालय में दालबाटी चूरमा खाया गया।
भोजन से आने के बाद भी बहुत सारी बातें हुईं, और राजेश भाई ने अपना पहला कविता संग्रह “वह! जो शेष था”, सप्रेम भेंट दिया। हमने अपनी कुछ किताबों से (जिन्हें पढ़ चुके हैं और अब पढ़ने वाले हैं) परिचय करवाया।

अब यह कविता संग्रह हम पढ़ रहे हैं, हमें साहित्यिक किताबें पढ़ने में ज्यादा ही समय  लगता है क्योंकि कोशिश रहती है कि लेखक ने जिस मानस से रचना रची है, हम भी शायद उस मानस में जाकर वह रचना अपने अंतरतम तक पहुँचा पायें, और इसी बीच उनकी एक बात और अच्छी लगी कि रचना पढ़कर ईमानदारी से उस पर प्रतिक्रिया देने की, जो बहुत ही कम लोगों में होती है।

बीबी को नई चप्पल

श्रीमतीजी याने की बीबी को नई चप्पल लेनी थी सो बाटा की बड़ी दुकान घर के पास है वहीं जाना हुआ, अब एक बार बड़ी दुकान में घुस जायें तो सारी चीजें न देखें मजा नहीं आता, और खासकर इससे थोड़ी सामान्य ज्ञान में वृद्धि होती है, खरीदें या ना खरीदें वो एक अलग बात है।

चप्पल तो ले ली और हम भी अपने लिये देखने लग गये, वैसे हमेशा यही ऐतराज होता है आते हमारे लिये हैं और खरीददारी खुद के लिये होती है, खैर शिकायतें तो कोई न कोई रहती ही हैं।

जब हम अपने लिये एक सैंडल देख  रहे थे तभी एक और व्यक्ति पास में से अपनी पत्नीजी को अंग्रेजी में बोलता हुआ गुजरा “तुम हमेशा मुझे वही चीज खरीदने पर मजबूर करती हो, जो मुझे नहीं खरीदनी है।”, हमारी जबान भी फ़िसल गई “अबे ढ़क्कन खरीदता क्यों है”, अब वो हमारे पीछे ही खड़ा था, और उसे हिन्दी भी समझ आती थी, उसके बाद वो हमें घूरने लगा। अनायास ही अपने एक बुजुर्ग मित्र बात समझ में आने लगी “जो व्यक्ति बीबी से डरता है, वही बाहर शेर बनकर दहाड़ता है, भले ही उसकी दहाड़ में दम हो या ना हो”।

और उधर ही एक विज्ञापन भी याद आ गया पुराना है मगर सबकी जबां पर था – “जो बीबी से करे प्यार वो प्रेस्टीज से कैसे करे इंकार”।

खैर फ़िर हमने उस दुकान में चमड़े के बैग देखे, पॉलिश और बेल्ट देखी, मगर एक निगाह अपने ऊपर घूमती हुई महसूस हुई, जो कुछ बोल नहीं पा रही थी। लगता है कि अपनी टिप्पणी केवल ब्लॉग के लिये है, जीवंत टिप्पणी किसी को अच्छी नहीं लगती है।

आज वैलंटाईन डे है, सबको प्यार भरी शुभकामनाएँ, यह वर्ष प्यार भरा रहे।

गूगल का वैलंटाईन डे पर डूडल देखिये –

एक ब्लॉगर मीट बैंगलोर में जो कि बारिश के कारण नहीं हो पाई ।

    शाम को लगभग ५ – ५.३० बजे विभाजी से मिलना तय हुआ था और हमने फ़ोन करके प्रवीण पांडे जी को भी खबर कर  दी थी। अभिषेक से बात हुई परंतु अभीषेक ने बताया कि उनका कार्यक्रम व्यस्त है।  घर से बराबर समय पर निकले और जैसे ही वोल्वो में बैठे, जोरदार बारिश होने लगी। आधे रास्ते पहुँचते पहुँचते बारिश अपने पूरे उफ़ान पर थी और इस बारिश और हममें केवल वोल्वो के खिड़की पर लगे काँच का फ़ासला था।

    अंदर हम सीट पर बैठे बारिश का मजा ले रहे थे और बाहर काँच की खिड़की के उस तरफ़ बारिश का झर झर जल बहता जा रहा था, जैसे मन की बातें कभी रुकती नहीं हैं, मन के घोड़े दौड़ते ही रहते हैं, इस बारिश में हमने आगे न जाने का निर्णय लिया, क्योंकि बारिश तेज थी और भले ही छतरी पास हो पर भीग तो जाते ही हैं, और आज कुछ ऐसा था कि हम अपने को  भिगो नहीं सकते थे।

    त्वरित निर्णय लेते हुए फ़ोन पर बात करके आगे जाना निरस्त किया गया, क्योंकि बारिश होने के बाद सार्वजनिक परिवहन व्यवस्था दम तोड़ देती है।

    प्रवीण जी को जैसे ही फ़ोन किया उन्होंने कहा कि इस बारिश का जरूर कुछ आपके साथ संबंध है, जब भी हम लोगों के मिलने का होता है यह बारिश जरूर होती है और मिलना नहीं हो पाता है। पहले भी एक बार ऐसा हो चुका है।

    तो यह था विवरण उस ब्लॉगर मीट का जो कि बैंगलोर में हो न सकी, जल्दी ही जब ब्लॉगर मिलेंगे तो उसका विवरण दिया जायेगा।

इकोनोमिक टॉइम्स (Economics Times) और टॉइम्स ऑफ़ इंडिया (Times of India) में वित्तीय प्रबंधन पर लिखी जाती है ब्लॉगों से चुराई हुई सामग्री ?

    इकोनोमिक टॉइम्स (Economics Times) और टॉइम्स ऑफ़ इंडिया (Times of India) बहुत सारे लोग पढ़ते होंगे। सोमवार को इकोनोमिक टॉइम्स में वेल्थ (Wealth) और ऐसे ही टॉइम्स ऑफ़ इंडिया (Times of India) में भी आता है, जिसमें वित्तीय प्रबंधन के बारे में बताया जाता है, पिछले दो महीनों से लगातार इन दोनों अखबारों को पढ़ रहा हूँ, तो देखा कि वित्तीय प्रबंधन पर लिखी गई सारी सामग्री वित्तीय ब्लॉगों से उठायी गई है, और ब्लॉगों पर लिखी गई सामग्री को फ़िर से नये रूप से लिखकर पाठकों को परोसा गया है।

    अखबार को सोचना चाहिये कि पाठक वर्ग बहुत समझदार हो गया है, और अगर उनके लेखक अपनी रिसर्च और अपने विश्लेषण के साथ नहीं लिख सकते तो उनकी जगह ब्लॉगरों को ही लेखक के तौर पर रख लेना चाहिये। शायद अखबार के मालिकों और उनके संपादकों को यह बात पता नहीं हो।

    पर यह कितना सही है कि मेहनत किसी और ने की और उसके दम पर इन अखबार के लेखक अपनी रोजीरोटी चलायें। कहानी को थोड़ा बहुत बदल दिया जाता है, पर जो सार होता है वह वही होता है जो कि असली लेख में होता है।

    जो पाठक वित्तीय ब्लॉग पढ़ते होंगे, वे इसे एकदम समझ जायेंगे। इस बारे में मेरी चैटिंग भी हुई एक वित्तीय ब्लॉगर से तो उनका कहना था कि “ब्लॉगर क्या करेगा, ये तो अखबार को सोचना चाहिये, विषय कोई मेरी उत्पत्ति तो है नहीं, कोई भी लिख सकता है, बस मेरी ही पोस्ट को अलग रूप से लिख देया है”।

    कुछ दिन पहले मेरी बात एक वित्तीय विशेषज्ञ और  वित्तीय अंतर्जाल चलाने वाले मित्र से हो रही थी, उनसे भी यही चर्चा हुई तो वो बोले कि उन्होंने मेरे ब्लॉग कल्पतरू पर जो लेख पढ़े थे और जिस तरह से लिखा था, बिल्कुल उसी तरह से अखबार ने लिखा था, और आपकी याद आ गई। तो मैंने उनसे कहा कि ब्लॉगर कर ही क्या सकता है, यह तो इन बेशरम अखबारों को सोचना चाहिये, और उन लेखकों को जो चुराई गई सामग्री से अपनी वाही वाही कर रहे हैं।

    पहले बिल्कुल मन नहीं था इस विषय पर पोस्ट लिखने का परंतु जब मेरी कई लोगों से बात हुई तो लगा कि कहीं से शुरूआत तो करनी ही होगी, नहीं तो न पाठक को पता चलेगा और ना ही अखबारों के मालिकों और संपादकों को, तो यह पोस्ट लिखी गई है उन अखबारों के लिये जो चुराई हुई सामग्री लिख रहे हैं और उनको पता रहना चाहिये कि पाठक प्रबुद्ध है और जागरूक भी।

ब्लॉगरी में भी विकृत मानसिकता… (Blogger’s Distorted mindset..)

    विकृत मानसिकता जिसे मैं साधारण शब्दों में कहता हूँ मानसिक दिवालियापन या पागलपन, वैसे विकृत मानसिकता के लिये कोई अधिकृत पैमाना नहीं है, अनपढ़ और पढ़ेलिखे समझदार कोई भी हो जरूरी नहीं है कि उनकी मानसिकता विकृत नहीं हो।

    और ऐसे ही कुछ उदाहरण मैंने हिन्दी ब्लॉगजगत में देखे पोस्ट पढ़कर पहली बार में ही विकृत मानसिकता का दर्जा मैंने दे दिया। अब यहाँ ब्लॉगर भी बहुत पढ़े लिखे हैं, और जिनके पास बड़ी बड़ी डिग्री है, वे हिन्दी ब्लॉगिंग की प्रगति में महति योगदान निभाने में अपनी जीवन ऊर्जा लगा रहे हैं। धन्य हैं वे ब्लॉगवीर और वीरांगनाएँ जो यह सोचते हैं कि वे हिन्दी लिख रहे हैं तो हिन्दी समृद्ध हो रही है, वाह ब्लॉगरी विकृत मानसिकता।

    जितना समय दूसरे ब्लॉगर की टांग खींचने उनकी टिप्पणियों में अनर्गल पोस्ट लिखने में लगा रहे हैं उतना समय अगर किसी अच्छे विषय पर या अपनी दिनचर्या से कोई एक अच्छा सा पल लिखने में लगाते तो शायद उससे पाठक ज्यादा आकर्षित होते। परंतु कैसे स्टॉर ब्लॉगर बनें और कैसे ब्लॉगरों की टाँग खींचे ये सब प्रपंच कोई इन विकृत मानसिकता वाले ब्लॉगर्स से सीखें।

    अपन तो अपने में ही मगन हैं, किसी की दो और दो चार में अपना कोई योगदान नहीं है, फ़िर भले ही वे दो और दो पाँच ही क्यों हो रहे हों, पर फ़िर भी पढ़े लिखों की विकृत मानसिकता नहीं देखते बनती। इससे अच्छा है कि … (अब भला मैं ये क्यों लिखूँ, वे खुद ही समझ लें।)

ब्लॉगिंग में ५ वर्ष पूरे अब आगे… कुछ यादें…कुछ बातें… विवेक रस्तोगी

    आज से ठीक ५ साल पहले  मैंने अपना ब्लॉग बनाया था और आज ही के दिन पहली पोस्ट दोपहर २.२२ पर “छाप”  प्रकाशित की थी, हालांकि उस पर एक भी टिप्पणी नहीं आयी, फ़िर एक माह बाद जुलाई में एक और पोस्ट लिखी “नया चिठ्ठाकार” जिस पर आये ४ टिप्पणी, जिनमें देबाशीष और अनूप शुक्ला जी प्रमुख थे, एक स्पाम टिप्पणी भी थी, वह आज तक वहीं है क्योंकि उस समय हमें स्पाम क्या होता है पता नहीं था 🙂

   फ़िर नारद, अक्षरग्राम शुरु हुए, शायद आज के नये हिन्दी ब्लॉगरों ने जीतू भाई की पुरानी पोस्टें नहीं पढ़ी होंगी अगर पढ़ेंगे तो आज भी तब तक हँसेंगे कि पेट में बल ने पढ़ जायें, छोटी छोटी बातों को इतने रसीले और चुटीले तरीके से लिखा है कि बस !!

    उस समय के कुछ चिठ्ठाकारों में कुछ नाम ओर याद हैं, ईस्वामी, मिर्चीसेठ, रमन कौल, संजय बेंगाणी, उड़नतश्तरी, अनुनाद सिंह, उनमुक्त, रवि रतलामी। और भी बहुत सारे नाम होंगे जो मुझे याद नहीं हैं, पर लगभग सभी का सहयोग रहा है इस सफ़र में और मार्गदर्शन भी मिला।

    अभी तक कुल ५३५ पोस्टें लिख चुके हैं, हालांकि पोस्टों की रफ़्तार पिछले वर्ष से बढ़ी है, और उम्मीद है कि आगे भी कुछ सार्थक ही लिख पायेंगे।

    मैंने अपने लिये जो विषय चुने हैं, वे हैं वित्तीय उत्पाद पर लेखन, वित्तीय प्रबंधन पर लेखन, बीमा क्षैत्र पर लेखन जिन विषयों पर उनके विशेषज्ञों को भी लिखने में संकोच होता है वह भी हिन्दी में, तो मैंने एक छोटी सी कोशिश शुरु की है, इसमें मेरी सराहना की है कमल शर्मा जी ने, मेरे लेखों को मोलतोल.इन के खास फ़ीचर में स्थान देकर।

    इस ५ वर्ष के सफ़र में तकनीक और ब्लॉगरों को बदलते देखा है, पहले जब २००५ में मैंने हिन्दी चिठ्ठाकारी शुरु की थी, मुझे थोड़ा सा याद है कि मैं शायद ८० वाँ हिन्दी ब्लॉगर था, वो भी इसलिये कि उस समय शुरुआती दौर में माइक्रोसॉफ़्ट ने शुरुआती १०० हिन्दी ब्लॉगरों की एक सूची अपने अंतर्जाल पर लगायी थी, अब वह लिंक मेरे पास नहीं है, गुम गया है अगर किसी के पास हो तो जरुर बताइयेगा। मुझे अच्छा लगता था कि अब अंतर्जाल पर हिन्दी भी शुरु हो चुकी है और जल्दी ही अपना पराक्रम दिखायेगी, हमारे भारत के लोगों के लिये संगणक एक साधारण माध्यम हो जायेगा, क्योंकि अंग्रेजी सबकी कमजोरी है। परंतु यह हिन्दी आंदोलन इतनी तेजी से नहीं चला और न ही अंतर्जाल कंपनियों ने हिन्दी को इतना महत्व दिया पर अब भारतीय उपभोक्ताओं को रिझाने के लिये हिन्दी की दिशा में कार्य शुरु किया गया है, या यूँ कहें बहुत अच्छा काम हुआ है।

    पहले कृतिदेव फ़ोंट में हिन्दी में लिखते थे फ़िर ब्लॉगर.कॉम पर आकर उसे कॉपी पेस्ट करते थे, इंटरनेट कनेक्शन ब्रॉडबेन्ड होना तो सपने जैसा ही था, एक पोस्ट को छापने में कई बार तो १ घंटा तक लग जाता था। अब पिछले २ वर्षों से हम हिन्दी लिखने के लिये बाराह का उपयोग करते हैं, फ़ोनोटिक कीबोर्ड स्टाईल में। पहले जब हमने लिखना शुरु किया था तो संगणक पर सीधा लिखना संभव नहीं हो पाता था, पहले कागज पर लिखते थे फ़िर संगणक पर टंकण करते थे, पर अब परिस्थितियाँ बदल गई हैं, अब तो जैसे विचार आते हैं वैसे ही संगणक पर सीधे लिखते जाते हैं, और छाप देते हैं। अब कागज पर लिखने में परेशानी लगती है, क्योंकि उसमें अपने वाक्यों को सफ़ाई से सुधारने की सुविधा नहीं है, पर संगणक में कभी काट-पीट नहीं होती, हमेशा साफ़ सुथरा लिखा हुआ दिखाई देता है।

    इतने समय अंतराल में केवल यही सीखा है कि अपने लिये लिखो जैसे अपनी डायरी में लिखते हो, अब अपने पाठकों के लिये भी लिखो जो चिठ्ठे पर भ्रमण करने आते हैं। अब देखते हैं कि यह चिठ्ठाकारी का सफ़र कब तक अनवरत जारी होगा।

“चिठ्ठाकारी चलती रहे” [Happy Blogging]

ब्लॉगिंग के कीड़े के कारण अपने सारे कमिटमेंन्ट्स की वाट लग गई…

     ब्लॉगिंग के कीड़े ने ऐसा काटा है कि अपने सारे कमिटमेंन्ट्स की वाट लग गई है। कुछ दिन पहले जिम शुरु किया था मतलब दिवाली के एक महीने पहले तक तो हम सुबह या शाम कभी भी समय निकालकर चले जाया करते थे,  फ़िर एक महीने के लिये बीबी बच्चे उज्जैन चले गये तो हम भी आराम से बेचलर लाईफ़ जीने लगे और मजे में रहने लगे। अब तो न बीबी के ताने का डर था और न ही जिम न जाने पर किसी से नजरें भी नहीं चुरानी थी, बस जितना समय मिलता अपनी किताबें पढ़ने के शौक में निकल जाता या ब्लॉगिंग में।

   पर जबसे हमने जिम शुरु किया था तो हमारा ब्लॉगिंग का प्राईम टाईम उसी में निकल जाता था और हम हमारा ब्लॉग लिखने का शौक पूरा नहीं कर पा रहे थे। फ़िर बेशर्म होकर हमने जिम न जाने फ़ैसला कर लिया, थोड़े दिन बीबी ने भी ताने मारे फ़िर चिकना घड़ा समझकर बोलना छोड़ दिया कि बोलने का कुछ फ़ायदा नहीं। हाँ खर्चा जरुर ज्यादा हो गया, शौक में हम २-३ हजार की एसेसरीज ले आये और कभी कभी उनकी नजरों से तानों का एहसास होता है, क्योंकि अब वो हमारी आदत से परिचित हो गई हैं।

   हमने हमारे स्वास्थ्य के लिये अपने से कमिटमेन्ट किया था कि अब कुछ वजन कम करेंगे और नियमित व्यायाम करेंगे। पर ब्लॉगिंग के कीड़े ने ऐसा काटा कि अपने सारे कमिटमेंन्ट्स की वाट लग गई।

   और जब से हमारे घर में नया इंटरनेट कनेक्शन लगा है तो हमारी श्रीमती जी के तेवर भी बदल गये हैं कि आ गई मेरी सौत। अब हैं तो हम चिकने घड़े ही…. देखते हैं कि भविष्य में हम कैसे अपने कमिटमेन्ट्स पूरे कर पायेंगे।