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सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ४२ [चम्पानगरी जाते हुए प्रकृति का सुन्दर चित्रण… ]

    दूसरे दिन ही मैं और शोण दोनों हस्तिनापुर से चल दिये। यात्रा बहुत लम्बी थी इसलिए हमने श्वेत घोड़े लिये। हम दोनों को ही अब अश्वारोहण का अच्छा अभ्यास हो गया था। मुझे तो सब प्राणियों मॆं अश्व बहुत ही अच्छा लगता था। वह कभी नीचे नहीं बैठता है । सोते समय भी वह खड़े-खड़े ही एक पैर के खुर को मोड़कर नींद ले लेता है। अश्वों के सभी स्वाभाव का मैंने बड़ा सूक्ष्म निरीक्षण किया था। कितना ही उच्छश्रंखल क्यों न हो, उसको वश में कैसे किया जाता है, यह मैं अब अच्छी तरह जान गया था। और फ़िर वह हमारा पीढ़ी-दर-पीढ़ी चला आता हुआ व्यवसाय था। प्रत्येक को अपने व्यवसाय में प्रवीण होना ही चाहिए – संजय काका ने सारथी के रुप में यह जो उपदेश दिया था, उसको मैं कैसे भूल सकता था।

    हम लोग हस्तिनापुर की सीमा से बाहर निकले। वसन्त ऋतु के दिन थे वे। चारों ओर भिन्न-भिन्न रंगों के फ़ूल सुशोभित थे। बावा के वृक्ष छोटे-छोटे पीले फ़ूलों से लदे हुए थे। खैर के वृक्ष हलके लाल फ़ूलों से भरे हुए थे। अंजनी के वृक्षों पर नील कुसुम सुशोभित हो रहे थे। उन समस्त वृक्षों पर प्रकृति-देवता की इतनी कृपादृष्टि देखकर पलाश शायद अत्यधिक क्रुद्ध हो उठा था। उसका सम्पूर्ण शरीर रक्तवर्णी लाल सुमनों से आच्छादित था। यही कारण था कि सभी वृक्षों में वह अकेला ही अत्यधिक आकर्षक दिख रहा था।

    उन समस्त पुष्पों की एक सम्मिश्रित सुगन्ध वातावरण में तैर रही थी। श्येन, क्रौंच, भारद्वाज, कोकिल, कपोत आदि भिन्न-भिन्न प्रकार के पक्षियों के सम्मेलन का तो यह समय था ही। अपने-अपने गीत वे पंचम स्वर में गा रहे थे। वसन्त ! वसन्त का अर्थ है – प्रकृति-देवता की स्वच्छन्द रंगपंचमी ! वसन्त अर्थात एक-दूसरे का हाथ पकड़े खड़े हुए सप्तस्वरों के खिलाड़ियों का कबड्डी-संघ ! वसन्त है – काल के बाड़े में अटका हुआ निसर्ग देवता के अतलसी वस्त्र का एक सुन्दर धागा। अथवा वर्षाऋतु में चंचल वर्षा ने अपनी निरन्तर गिरती धाराओं की उँगलियों से वर्षाऋतु को जो गुदगुदी की थी, उससे हँसी आने के कारण इधर-उधर पैर पटकते समय नीचे गिरा हुआ उसके पैर का सुन्दर नूपुर ! छि:, किसी तरह भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। वसन्त तो बस वसन्त ही है!

    निसर्ग देवता के मनोहर रुपों को देखते हुए हम अपनी यात्रा कर रहे थे। रात होने पर समीप ही किसी नगर में ठहर जाते थे। इसी प्रकार आठ दिन बीत गये। अनेक नदियाँ और पर्वत पार कर हम नौवें दिन प्रयाग पहुँचे। प्रयाग ! यहाँ गंगा, यमुना और सरस्वती इन तीन नदियों का संगम था। यहाँ से चम्पानगरी अब केवल पचीस योजन दूर रह गयी थी।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ४१ [कर्ण के गुरु और चम्पानगरी जाने की उत्कण्ठा… ]

   बहुत दिन हो गये थे। मैं जब से हस्तिनापुर आया था, तब से केवल एक बार ही चम्पानगरी गया था। वह भी उस समय जब गुरुदेव द्रोण ने अपने शिष्यों की परीक्षा ली थी। उसके बाद पाँच वर्ष बीत गये थे। इच्छा होने पर भी इन पाँच वर्षों में मैं एक भी बार चम्पानगरी को नहीं जा पाया था। क्योंकि यहाँ मैं एक विद्यार्थी के रुप में आया था।

    सौभाग्य से मुझको अपने गुरु बहुत अच्छे मिले थे। जिनको गुरुओं का गुरु कहा जाता है, ऐसे ही थे वे। साक्षात सूर्यदेव मेरे गुरु थे। हस्तिनापुर के अखाड़े में पत्थर के चबूतरे पर खड़े होकर मन ही मन निश्चय कर मैंने उनका शिष्यत्व अंगीकार किया था। उन्होंने भी अबतक मेरे साथ अपने प्रिय शिष्य का सा व्यवहार किया था। छह वर्षों के इस कालखण्ड में उन्होंने कितने दुर्लभ रहस्य मुझको बताये थे, वे किस भाषा में बताते थे, यह तो मैं कह नहीं सकता। परन्तु उन्होंने मुझसे जो कुछ कहा था, वह मैंने तुरन्त ही ग्रहण कर लिया था। क्या नहीं सिखाया था उन्होंने मुझको ! बाणों के दुष्कर प्रक्षेप, द्वन्द्व के कठिन हाथ; घोड़ा, हाथी और ऊँटों की उच्छ्श्रंखल प्रवृत्तियों को वश करने की कलाएँ। सब बातें उन्होंने मेरे कानों में कही थीं। चुपचाप ! मौन-भाषा में।

    प्रतिदिन प्रात: अपनी कोमल किरणों से असंख्य कलियों के मुँदे पलक खोलते हुए वे मुझसे कहते थे, “कर्ण, तुझको भी ऐसा ही बनना चाहिए। अपना सर्वस्व मुक्त-हस्त से जो कोई माँगे उसको देकर अपने सम्पर्क में आने वाले सभी लोगों का जीवन तुमको ऐसे ही खिलाना चाहिए।“

    कितने श्रेष्ठ थे मेरे गुरु ! संसार के किसी गुरु ने अपने शिष्य को इतनी छोटी-छोटी बातों से इतना उदात्त उपदेश कभी क्या दिया है ? अब एक बार चम्पानगरी में जाकर उन गुरु के चरण गंगा के स्वच्छ जल से अवश्य धोने चाहिए। अब मैं गंगामाता नहीं कहता हूँ, गंगा कहता हूँ। क्योंकि शैशवावस्था की श्रद्धा व्यावहारिकता के पाषाण से भोंथरी हो गयी थी। माँ एक ही होती है। जो जन्म देती है और पालन-पोषण करती है वह। नदी तो नदी है। वह माता कैसे हो सकती है ? मेरी माता एक ही थी – राधामाता ! उससे मिले भी बहुत दिन हो गये थे। वह अब मुझको देखेगी तो क्या सोचेगी, मुझको पूरा विश्वास था कि मेरे जाने पर वह सबसे पहले मुझसे यही पूछेगी, “कितना लट गया है रे वसु तू ? और तू गंगा के पानी में तो नहीं गया न कभी ?” क्योंकि पुत्र कितना भी बड़ा क्यों न हो जाये, माता की दृष्टि में वह सदैव बालक ही रहता है। माता ही विश्व में एकमात्र ऐसा व्यक्ति है, जिसके प्रेम को व्यवहार की तुला का बिलकुल ज्ञान ही नहीं होता। वह जानती है अपने पुत्र पर केवल वास्तविक प्रेम करना।

    मैंने शोण को बुलाकर कहा, “शोण ! यात्रा की तैयारी करो। कल चम्पानगरी चलना है।“ उसका चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा। शाल वृक्ष की तरह लम्बे-तड़ंगे होकर अनेक वर्षों के बाद, पहली बार हम चम्पानगरी की ओर जा रहे थे। अपनी जन्मभूमि की ओर ।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ४० [यज्ञ के लिए गुरु द्रोणाचार्य द्वारा मेरे लाये गये चीते को यज्ञ के लिए निषिद्ध बताना….]

    वह झपटकर दूर हट गया। अब मैंने उसपर भयंकर आक्रमण करना प्रारम्भ किया। एक के बाद एक। बँधी हुई मुट्ठी के सशक्त प्रहार उसकी पीठ पर, पेट पर, गरदन पर, जहाँ स्थान मिला वहीं पर करने लगा। वह अब पहले से अधिक बौखलाया हुआ-सा मुझपर आक्रमण करने लगा। लगभग दो घड़ी तक हम दोनों में द्वन्द्व होता रहा। अन्त में वह थक गया। मेरे रक्त की एक बूँद तक उसकी जीभ को प्राप्त नहीं हो सकी थी। थोड़ी देर पहले गरजनेवाला वह चीता अब भीतर ही भीतर गुर्राने लगा। भय से उसने अपनी पूँछ दोनों पैरों के बीच कर ली थी। मैं उसकी छाती पर बैठ गया। आस-पास पन्द्रह-बीस हाथ के घेरे में घास बुरी तरह कुचल गयी थी। पास की झाड़ी से एक वन्य लता मेरे पैरों तक आ गयी थी। एक हाथ से मैंने उसको खींच लिया। जोर से एक झटका मारते ही पन्द्रह-बीस हाथ लम्बी वह दृढ़ लता जड़ से उखड़कर मेरे हाथ में आ गयी। उस लता से मैंने उस चीते के दो-दो पैर एक जगह कसकर बाँध दिये। हाड़-मांस की सफ़ेद-काली एक भारी गठरी तैयार हो गयी।

    अन्धकार घिरने लगा था। उस विशाल प्राणी को कन्धे पर रखकर चन्द्रकला के धूमिल प्रकाश में मैं नगर की ओर मुड़ा । नगर में मैं जिस समय पहुँचा उस समय अर्धरात्रि हो गयी थी। अत्यन्त शीतल पवन शरीर को सुन्न किये दे रहा था। अपने उत्तरीय को मैं बहुदा नदी के पानी में भूल आया था। देह पर भीगे वस्त्र धूल से लथपथ हो गये थे। सम्पूर्ण नगर निद्राधीन था। केवल बादलों की गड़गड़ाहट-सी चीते के गुर्राने की आवाज ही आ रही थी। मैं युद्धशाला में आया। अन्य समस्त शिष्य वन-वन भटककर जिन प्राणियों को लाये थे, वे सब लकड़ी के एक घर में बन्द कर दिये गये थे। उन्हीं में मैंने अपने कन्धे पर रखा हुआ वह चीता फ़ेंक दिया जो अपनी मूँछों के बालों से मेरी गरदन पर अबतक गुदगुदी करता रहा था। उस घर के सभी प्राणी भय से किकियाने लगे। मैं जल्दी-जल्दी अपने कक्ष में गया और वस्त्र बदलकर सोने चला गया।

    प्रात:काल विधिवत यज्ञ प्रारम्भ हुआ। अन्त में वेदी पर बलि देने का अवसर आया। बलि लाने के लिए सभी लकड़ी के घर की ओर दौड़े । उनमें से एक शिष्य भीतर जाकर घबराकर, उलटे पैरों लौटकर यज्ञकुण्ड के पास आया। उसने गुरु द्रोण से कहा, “गुरुदेव, बलि के लिए कोई चीता ले आया है।“

   “चीता ! चलो देखें ।“ आश्चर्य से उनकी सफ़ेद भौंहें तन गयीं। गुरु द्रोणाचार्य के साथ हम सब लोग उस घर के पास आये। मुझको आशा थी कि उस चीते को देखते ही गुरुदेव पूछताछ करेंगे और मेरी पीठ ठोकेंगे। परन्तु मस्तक को अत्यधिक संकुचित करते हुए वे बोले, “इस चीते को कोई क्यों लाया है ? अरे यज्ञ तो शान्ति के लिये किया जाता है। यज्ञ में चीते की बलि देना निषिद्ध माना गया है। छोड़ दो इस चीते को।“

   परन्तु उसको छोड़ने के लिए कोई आगे ही नहीं बढ़ रहा था। अन्त में अकेला भीम आगे आया। मेरी बाँधी हुई बेलें उसने खोलीं। जो कुछ हुआ था, उससे वह चीता अत्यन्त भयभीत हो गया था। अपने प्राणों के डर से वह लकड़ी के घर की चहारदीवारी पर बहुत ऊँची छलाँग लगाकर क्षण-भर में अदृश्य हो गया।

    मेरी आशा खण्ड-खण्ड हो गयी। उसक दुख तो मुझको हुआ ही। परन्तु सच पूछो तो मुझे गुरुदेव द्रोण के उस निकम्मे जीवन-दर्शन से चिढ़-सी लगी। यज्ञ में क्रूर और हिंसक पशुओं की बलि क्यों न दी जाये ? निरपराध बकरे की अपेक्षा वास्तव में चीते-जैसे पशुओं की बलि ही दी जानी चाहिए।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३९ [यज्ञ के लिए गुरु द्रोणाचार्य की एक विचित्र प्रथा और मेरा बाघ को लाने का प्रण.. ]

    प्रत्येक वर्ष के अन्त में युद्धशाला में एक विशाल यज्ञ हुआ करता था। उस यज्ञ के लिए गुरु द्रोणाचार्य ने एक विचित्र प्रथा चला रखी थी। युद्धशाला के प्रत्येक शिष्य को यज्ञ में बलो देने के लिए एक-एक जीवित प्राणी अरण्य से पकड़कर लाकर अर्पण करना पड़ता था। किसी ने उनसे उस प्रथा के सम्बन्ध में पूछा था। उसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा था कि इससे विद्यार्थी स्वावलम्बी और साहसी बनता है।

   एक बार वार्षिक यज्ञ के समय एक अविस्मरणीय घटना घटी। हम सभी लोग जीवित प्राणी लाने के लिए राजनगर से अरण्य की ओर चले। अरण्य प्रारम्भ होते ही सभी लोग भिन्न-भिन्न दिशाओं में फ़ैल गये। मैंने पूर्व दिशा को पकड़ा। चलते-चलते मन में विचार आया कि इससे पहले हरिण, साँभर, वन्य शूकर आदि प्राणी मैं अर्पण कर चुका हूँ। इस वर्ष इनसे बलवान कोई प्राणी मुझको अर्पण करना चाहिए। इनसे अधिक बलवान प्राणी कौन-सा है ? हाथी ? छि:, लकड़ियाँ तोड़नेवाला भारी-भरकम और कुडौल प्राणी है वह तो ! अश्व ? नहीं जी, अश्व को पड़ा तो जा सकेगा। फ़िर कौन-सा प्राणी ? चित्रमृग, वृक, तरस ? छि: सबसे अधिक सामर्थ्यवान प्राणी कौन-सा है? बाघ ! बस, इस वर्ष में बाघ ही अर्पण करुँगा। उसके लिए घोर अरण्य में जाना पड़ेगा। कोई चिन्ता नहीं। अवश्य जाऊँगा। सीमा पार करते हुए ही मैंने निश्चय किया।

    लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ, चौकन्नी दृष्टि से चारों ओर देखता हुआ मैं आगे बढ़ने लगा। दिन-भर घनघोर अरण्य में भटका। अनेक प्राणी मिले, प्रन्तु बाघ दिखाई ही नहीं दिया। दिन-भर भटकने के कारण प्यास बड़ी जोर की लग रही थी। सन्ध्या घिरती जा रही थी। विहग नीड़ों की ओर लौट रहे थे। मुँह का पसीना पोंछता हुआ मैं बहुदा नदी के किनारे पर आया। वहाँ खड़े होकर मैंने सूर्यदेव को वन्दन किया और मन ही मन कहा, “आज आपके शिष्य का संकल्प व्यर्थ हो रहा है।“

    एक काले पत्थर पर बैठकर मैंने अंजलि में पानी लिया। उस पानी को मुँह से लगाने ही जा रहा था कि एक प्रचण्ड भारी-भरकम पशु पीछे से मेरे ऊपर आ गिरा। मेरा सन्तुलन बिगड़ गया और मैं आगे बहुदा नदी के पानी में गिर पड़ा। मेरे साथ ही वह पशु भी पानी में आ गिरा। बहुदा का जल खबीला हो गया। मैंने उस पशु की ओर देखा। श्वेत और काले धब्बोंवाला वह एक चीता था। सन्ध्या होने के कारण वह पानी पीने के लिए घाट पर आया था। उसका मुख कुम्हड़ा-जैसा गोलमटोल था। उसकी आँखें गुंजा की तरह लाल थीं।

    मेरी आँखें आनन्द से चमकने लगीं। मैं पानी में हूँ, मेरे वस्त्र भीग गये हैं – इन बातों का मुझको बिलकुल भान नहीं रहा। मुझको मारने के लिए उसने अपना पंजा उठाया, उसे मैंने अपने हाथ से ऊपर का ऊपर ही पकड़ लिया और उसको खींचता हुआ एकदम पानी के बाहर ले आया। परन्तु पानी के बाहर आते ही चीते की और अधिक आवेश आ गया। मेरे हाथ से झटका देकर उसने अपना पंजा छुड़ा लिया। जल के स्पर्श से तथा मेरे विरोध से वह बौखला गया था। उसकी क्रुद्ध आँखों से आग बरसने लगी। जोर-जोर से गर्जना करता हुआ वह बार-बार मुझपर भयानक आक्रमण करने लगा। कभी-कभी वह पाँच-छह हाथ ऊँची छलाँग लगाता। उसकी रक्तवर्ण जीभ मेरा रक्त पीने के लिए निरन्तर लपलपाने लगी। जबड़ा फ़ाड़कर वह मेरे ऊपर झपटा। मैं उसके आक्रमणों का प्रत्युत्तर देने लगा। आधी घड़ी तक मैं अपनी रक्षा करने का प्रयत्न करता रहा। लेकिन मैं उसको रोक नहीं पा रहा था। मैंने अपनी देह की ओर देखा। उस क्रूर वन्य पशु ने सैकड़ों बार झपट्टे मारे होंगे, परंतु फ़िर भी उसके तीक्ष्ण दाँतों की अथवा नाखूनों की जरा-सी नोंक भी मेरी देह में घुसी नहीं थी। मेरी त्वचा अभेद्य है। यह अकेला ही क्या, ऐसे दस चीते मुझको नींद में भी नहीं खा सकते। विद्युत की एक तरंग-सी मेरी देह में सनसनाती चली गयी। क्षण-भर में ही मेरा शरीर रथ की तप्त हाल की तरह जलने लगा। मेरी सम्पूर्ण त्वचा अभेद्य है – केवल इस प्रतीति मात्र से ही मेरा शरीर अंगारे की तरह फ़ूल उठा। अकस्मात मैंने उस क्रूर पशु के मुँह पर कसकर तमाचा मारा।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३८ [कर्ण और भीम के बीच का रोचक प्रसंग..]

    एक बार मैं और अश्वतथामा दोनों खड़ग के अखाड़े के पास खड़े थे। उस अखाड़े के चारों ओर सब्बल-जैसी मोटी-मोटी लोहे की छड़ों की चहारदीवारी थी। उस चहारदीवारी की एक छड़ की नोक को किसी ने झुकाकर धरती पर टेक दिया था। वह उसी स्थिती में थी। वही एकमात्र छड़ उस चहारदीवारी से बाहर निकली होने के कारण अच्छी नहीं लग रही थी। उसको सीधी करने के विचार से मैंने उसको हाथ लगाया। उस समय बड़ी शीघ्रता से अश्वत्थामा बोला, “रहने दो कर्ण ! सभी इस पर प्रयोग कर चुके हैं। एक दिन क्रोध के आवेश में भीम ने इसको झुका दिया था। अन्य कोई इसको सीधी कर ही नहीं सका। वही कभी क्सको सीधी करेगा।“

   “अच्छा ! तो फ़िर मैं इसको सीधी करूँ क्या ?” मैंने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।

“यह तुमसे नहीं हो सकेगा।“

    “अच्छा ?” मैंने पैरों से पदत्राण उतारकर अलग रख दिये। उत्तरीय कटि से लपेटा और उससे बोला, “इस छड़ को बायें हाथ से सीधी कर, जैसी यह थी वैसी ही इसको चहारदीवारी में लगा दूँगा। तुम देखते रहो।“

   मैं उस छड़ के पास गया। एक बार आकाश की ओर देखा। गुरुदेव चमक रहे थे। बायें गाथ में सारी शक्ति एकत्रित की । आँख मींचकर पूरी शक्ति से मैंने वह छड़ हाथ से झटके के साथ ऊपर खींची। पहले झटके में ही वह कमर के बराबर ऊँची हो गयी। उसका ऊपर आया युआ सिरा कन्धे पर लेकर बायें हाथ के पंजे से धीरे-धीरे मैंने उसको चहारदीवारी के घेरे में वैसे ही लगा दिया, जैसे वह लगी हुई थी। अश्वत्थामा अवाक हो गया। मेरी पीठ पर थाप मारने के लिये उसने अपना हाथ मेरी पीठ पर रखा। पर फ़िर तुरन्त ही उसने ऊपर ही ऊपर से अपना हाथ उठा लिया।

“क्या हुआ अश्वत्थामन ?” मैंने आश्चर्य से उससे पूछा।

    “अरे, तुम्हारी देह तो अग्नि की तरह जल रही है !” भेदक दृष्टि से मेरी ओर देखते हुए उसने उत्तर दिया।

    उसके बाद भीम ने वह सीधी की हुई छड़ कभी देखी होगी। वह प्रतिदिन एक छड़ टेढ़ी कर जाता था। मैं प्रतिदिन रात में उसकी टेढ़ी की हुई छड़ को बायें हाथ से सीधी कर दिया करता।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३७ [अश्वत्थामा द्वारा कर्ण को कर्ण का सौंदर्य वर्णन.. ]

   अश्वत्थामा पर मेरा जो प्रेम था, उसका रुपान्तर अब प्रगाढ़ स्नेह में हो गया था। समस्त हस्तिनापुर में वही एकमात्र मेरा प्राणप्रिय मित्र बन गया था।

  एक बार हम दोनों गंगा के किनारे बैठे बातें कर रहे थे। अकस्मात सहज रुप में उसने कहा, “कर्ण, तुम मुझको अच्छे लगते हो, इसका कारण केवल तुम्हारा स्वभाव ही नहीं है, बल्कि तुम्हारा सुन्दर शरीर भी उसका एक कारण है।“

“तो क्या मैं इतना सुन्दर दिखाई देता हूँ ?”

  “हाँ। तुमने यह स्वप्न में भी न सोचा होगा, लेकिन प्रतिदिन तुम जिस समय स्नान करके धूप चढ़ने पर गंगा से लौटा करते हो, उस समय सारे समाज के बन्धनों को ताक पर रखकर इस नगर की स्त्रियाँ कुछ न कुछ कारण निकालकर भवनों के गवाक्ष खोलती हैं। केवल तुमको देखने के लिए।“

  “तुम यह क्या कह रहे हो अश्वत्थामा ? यदि यह सच है तो फ़िर आज से मुझको गंगा का मार्ग बदलना पड़ेगा।“

   “यह सच है कर्ण! वृषभ-जैसे तुरे पुष्ट कन्धे, गुड़हल के फ़ूल-जैसे लाल गाल, उन गालों पर तेरे कानों के कुण्डलों के पड़नेवाले नीले-से दीप्त-वलय, खड़्ग की धार की तरह सरल और नोकदार नासिका, धनुष के दण्ड की तरह वक्र और सुन्दर भौंहें, कटेरी के फ़ूल-जैसे नीलवर्ण नयन, थाली-जैसा भव्य कपाल, गरदन पर होते हुए कन्धे पर झूलनेवाले, महाराजों के मुकुट के स्वर्ण को भी लजानेवाले तुम्हारे सुनहले घने घुँघराले बाल और रथ के खम्भे-जैसे शरीर के कसे हुए सबल स्नायु – यह समस्त स्वर्गीय वैभव होने के कारण तुम भला किसे अच्छे नहीं लगोगे ?”

“अश्वत्थामन, मुझको विश्वास है कि सच बात कहने पर तुम क्रुद्ध नहीं होगे।“

“कहो, कर्ण !”

   “तुम्हारे पिताजी को क्यों इनमें से कोई बात कभी अच्छी नहीं लगी ? इन छह वर्षों में उनको और उनके लाड़ले अर्जुन को क्या यह मालूम है कि कर्ण कौन है, कहाँ है ?”

   “यह सत्य है, कर्ण ! लेकिन ऐसे तुम अकेले ही नहीं हो। शस्त्र-विद्या सीखने के उद्देश्य से निषध पर्वत पर से सैकड़ों योजन पार करके आये हुए निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र का – एकलव्य का – भी दुख यही है। तुम्हारे मन की बात सुनने के लिये कम से कम मैं तो हूँ यहाँ। परन्तु उस एकलव्य की मेरे पिताजी के बारे में क्या धारणा होगी, मैं सोच भी नहीं सकता। पिताजी ने क्यों ऐसा व्यवहार किया, यह मैं कैसे बताऊँ ? सभी पुत्र अपने पिता के अन्तरतम को नहीं जान सकते, वसु !”

   उसका उत्तर सहज सत्य था और इसीलिए वह मुझको अत्यन्त अच्छा लगा। अधिरथ पिताजी के मन में क्या-क्या कल्पनाएँ हैं, यह बात क्या मैं कभी जान सकता था ? अश्वत्थामा ने मुझको एकलव्य का समरण करा दिया, इससे कभी न देखे हुए लेकिन एक समदुखी के रुप में एकलव्य के प्रति मेरे मन में अनजाने ही एक प्रकार का अननुभूत आदर उत्पन्न हो गया।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३६ [कर्ण का तारुण्य… यौवन के रथ के पाँच घोड़े.… पुरुषार्थ, महत्वाकांक्षा, निर्भयता, अभिमान और औदार्य ]

     तारुण्य ! जवलन्त धमनियों का अविरत स्पन्दन । प्रकृति द्वारा मानव को प्रदत्त सबसे श्रेष्ठ वरदान। जीचन के नगर का एकमात्र राजपथ। प्रकृति के साम्राज्य का वसन्त, मन-मयूर के पूर्ण फ़ैले हुए पंख, विकसित शरीर-भुजंग का सुन्दर चितकबरा फ़न, भावनाओं के उद्यान का सुगन्धित केवड़ा, विश्वकर्ता के अविरत दौड़नेवाले रथ में सबसे शानदार घोड़ा, मनुष्य का गर्व से सिर उठाकर चलने का समय, कुछ न कुछ अर्जन करने का समय, शक्ति का और स्फ़ूर्ति का काल, कुछ न कुछ करना चाहिए, इस भावना को सच्चे अर्थों में प्रतीत कराने वाला काल।

    बचपन की सभी वस्तुओं का रंग हरा होता है। युवावस्था की सभी वस्तुओं का रंग गुलाबी और केसरिया होता है। युवक की दृष्टि की उडान क्षितिज को छूनवाले आकाश को भी पार कर जाती है। प्रत्येक गतिअमान और प्रकाशवान वस्तु की ओर उसका सहज सुन्दर खिंचाव होता है। जहाँ-जहाँ जो कुछ असम्भव होता है उसको सम्भव करने की अंगभूत तरंग उसमॆं होती है।

    आजकल मुझको अपनी ही, बचपन की और किशोरावस्था की, कुछ बातों पर हँसी आती थी। गंगा को गंगामाता कहनेवाला कर्ण, उसके किनारे पर उत्तरीय में सीपियाँ इकट्ठी करनेवाला कर्ण, गरुड़ की तरह आकाश में उड़ने की बात करनेवाला कर्ण, बालकों के आग्रह को स्वीकार कर राजा के रुप में पत्थर के सिंहासन पर बैठनेवाला कर्ण, अपने कुण्डल कैसे चमकते हैं – यह गंगा के पानी में निहारनेवाला कर्ण ! – कितनी प्रवंचना थी उस समय के आन्न्द में ! कितनी अन्धी थी उस समय की श्रद्धा ! कितना सन्देह ! कितना अज्ञान !

    यह सब धुँधला होता गया। काल के प्रहार ने सब कुछ ध्वस्त कर दिया। जीवन के रथ की वल्गाएँ युवावस्था के सारथी ने अपने हाथ में ले लीं। इस रथ में पाँच घोड़े होते हैं। पुरुषार्थ, महत्वाकांक्षा, निर्भयता, अभिमान और औदार्य।

     जो सामर्थ्यशाली होता है, वही है यौवन। प्रकाश कभी काला होता है क्या ? ऐसा सामर्थ्यशाली यौवन ही अपने साथ औरों का मान बड़ाता है।

   महत्वाकांक्षा तो युवक का स्थायी भाव है। मैं महान बनूँगा। परिस्थिति के मस्तक पर पैर रखकर मैं उसको झुका दूँगा, यह विचारधारा ही तरुण को ऊँचा उठाती है।

   निर्भयता तरुण के जीवन-संगीत का सबसे ऊँचा स्वर है। इस स्वर की भग्न और बिखरी हुई ध्वनि है भय। फ़टे बाँस की-सी ध्वनि भी कभी-कभी किसी को अच्छी लाती है। जग ऊँचे स्वर की तान सुनने को उत्सुक होता है, फ़टी हुई आवाज नहीं।

   अभिमान है युवावस्था का आत्मा। जिस मनुष्य में श्रद्धा नहीं है, वह मनुष्य नहीं है। और जिस तरुण में अभिमान नहीं है, वह तरुण नहीं है। तरुण मनुष्य अपनी श्रद्धाओं पर सदैव अभिमान करता है। समय आने पर उनके लिए प्राण तक देने को वह तैयार रहा करता है।

   और उदारता है यौवन का अलंकार। अपनी शक्ति का अन्य दुर्बलों के संरक्षण के लिये किया गया उपयोग। स्वयं जीवित रहकर दूसरों को जीने देने का अमूल्य साधन।

   ऐसी होती है तरुणाई। जहाँ यह होती है वहाँ अपमान से व्यक्ति चिढ़ता है। जहाँ यह होती है वहाँ अपने न्यायपूर्ण अधिकार पर किसी के आक्रमण से व्यक्ति क्रुद्ध हो उठता है। जहाँ यह होती है वहाँ यह अन्याय के पक्ष का उन्मूलन कर देती है। जहाँ यह होती है वहीं वास्तव में विजय होती है, वहीं प्रकाश होता है। प्रकाश न हो तो फ़िर अन्धकार ! अपमान का आलिंगन करने वाला अन्धकार ! पराजय के विष को अमृत समझकर पचा जानेवाला अन्धकार ! अन्याय का समर्थन करनेवाला अन्धकार ! आक्रमण से भयभीत होनेवाला अन्धकार !!

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३५ [युवराजों के कारनामे बताता कर्ण…]

     शाला के अन्य युवराज-शिष्यों की स्थिति इसके विपरीत थी। कृपाचार्य और द्रोणाचार्य दोनों का अत्यन्त लाड़ला था युवराज अर्जुन। वह अकेला ही क्यों प्रिय है, इसलिए युवराज दुर्योधन जान-बूझकर कोई अन्य कारण ढूँढ़कर अपना पक्ष प्रस्तुत करने का प्रयत्न करता। उसक पर्यावसान झगड़े में होता। अपने भाई को छेड़ने के कारण भीम को क्रोध आता। अपने क्रोध को वह कभी नहीं रोक पाता था। क्रोध से होंठ चबाता हुआ वह जो मिलता उसी पर टूट पड़ता। द्रोणाचार्य के भय से झगड़े की शिकायत कोई उन तक नहीं पहुँचाता था।

   एक बार तो यह सुना गया कि वे सब लोग मिलकर वनविहार के लिए नहर के बाहर गये थे। वहाँ जब भीम सो रहा था, तब दुर्योधन ने दु:शासन की सहायता से वनलताओम से उसके हाथ-पैर कसकर बाँधे और फ़िर उसको एक सरोवर में फ़ेंक दिया था। परन्तु भीम को कुछ नहीं हुआ। कहा जाता है कि उसको जल-देवताओं ने मुक्त कर दिया था।

   मुझको इस बात पर कभी विश्वास नहीं हुआ। क्योंकि एक तो भीम को उन्होंने यदि इस प्रकार सरोवर में फ़ेंक दिया होता, तो निश्चय ही वह जीवित न रहा होता; क्योंकि सरोवर में जलदेवता नहीं होते हैं, वहाँ विशाल जबड़ोंवाले मत्स्य और क्रूर मगर होते हैं। और दूसरी बात यह कि सरोवर से बाहर आने पर तो भीम को यह पता चल ही जाता कि उसको जान से मारने का षड़यन्त्र रचा गया है। यह कार्य दुर्योधन के अतिरिक्त अन्य किसी का नहीं हो सकता है, यह जानकर उसने बाहर आते ही सबसे पहले अपनी गदा से उसका काम तमाम कर दिया होता। वह इसलिए कि भीम अपने क्रोध को कभी वश में नहीं कर पाता था। कोई कितना भी समझाता, वह उसको नहीं मानता और कोई कितनी ही सान्त्वना देता, उससे वह सन्तुष्ट नहीं हो सकता था।

    युवराजों के झगड़े निपटाते समय और उनके पुरुषार्थ का वर्णन करने में आकाश-पाताल एक करते समय भला सारथी के दो लड़कों की ओर ध्यान देने के लिए किसके पास अवकाश होता ! इस प्रकार ये छह वर्ष बीत गये। सोलह वर्ष के किशोर का बाईस वर्ष के तरुण में रुपान्तर हो गया। इच्छा होने लगी कि साहस-भरे और चुनौती देनेवाले प्रत्येक कार्य को स्वीकार किया जाये।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३४ [कर्ण की अपने गुरु के प्रति श्रद्धा…..]

       काल के वायु के साथ ही ऐसे दिन और रात के अनेक सूखे-हरे पत्ते उड़ गये। प्रतिदिन प्रत्युषा में उठना, गंगा में जी भरकर डुबकियाँ लगाना, प्रात:काल से दोपहर तक, जबतक पीठ अच्छी तरह गरम न हो जाये, गंगा में रहकर ही सूर्यदेव की आराधना करना, दिन-भर युद्धशाला में शूल, तोमर, शतघ्नी, प्रास, भुशुण्डी, खड़्ग, गदा, पट्टिश आदि भिन्न-भिन्न प्रका के शस्त्र फ़िराना, समय अपर्याप्त लगने पर रात में शोण को लेकर पलीते के धूमिल प्रकाश में अचूक लक्ष्य-भेद करना और अन्त में सारे दिन की घटनाओं का चिन्तन करते हुए, कभी-कभी चम्पानगरी की स्मृतियाँ मन ही मन दुहराते हुए, सो जाना। इसी लीक पर चलते हुए छह वर्ष बीत गये।

      बचपन का वसु अब मन के प्रांगण में दौड़ नहीं लगाता था। चम्पानगरी का स्थान अब हस्तिनापुर ने ले लिया था। चम्पानगरी में गंगा के किनारे बालू में अंकित होनेवाले छोटे-छोटे पैर अब हस्तिनापुर की भूमि पर दृढ़ता से पड़ने लगे थे। काल का अजगर छह वर्ष निगल चुका था। छह बर्ष ! इन छह वर्षों में क्या हुआ और क्या नहीं हुआ, यह सब कहा जाये तो वह अलग ही कहानी बन जायेगी। इन छह वर्षों में मैं तो युद्धशाला का एक शिष्य मात्र था। यहाँ कभी किसी ने मेरे साथ शिष्य का-सा व्यवहार नहीं किया। द्रोणाचार्य की देख-रेख में कृपाचार्य के पथक में मेरा नाम था। उस पथक में हस्तिनापुर के सभी साधारण शिष्य थे। उन साधारण शिष्यों में मैं सबसे अधिक साधारण था। शिष्यों की भीड़ में कृपाचार्य अथवा द्रोणाचार्य ने कभी मुझसे पूछताछ नहीं की थी। और सच पूछो तो वे मुझसे कुछ पूछें, मेरी पीठ पर अपना हाथ फ़ेरें, यह इच्छा मेरे मन में भी कभी नहीं हुई। जब-जब शास्त्र का कोई कठिन दाँव मेरी समझ में न आता, तब तब मैं क्षण-भर आँखें बन्द कर अपने गुरु का – सूर्यदेव का – स्मरण करता और पल-भर में उस दाँव को समझकर अलग हट जाता, जैसे यक्षिणी ने जादू की छड़ी घुमा दी हो। श्रद्धा में बड़ी शक्ति होती है। किसी न किसी पर श्रद्धा रखे बिना मनुष्य जीवित ही नहीं रह सकता।

       शिष्यावस्था में मेरी सारी श्रद्धा अपने गुरु पर थी। भय से तो मेरा लेशमात्र भी परिचय नहीं था। परन्तु कभी-कभी मेरा मन केवल इसी बात के लिए विद्रोह कर उठता था कि शाला के ये दोनों गुरुदेव कभी मुझसे बात क्यों नहीं करते ? कर्ण को वे पत्थर का एक पुतला समझते हैं क्या ? प्यासे व्यक्ति को समुद्र में रहते हुए भी एक बूँद पानी पीने को नहीं मिले, मेरी दशा भी ऐसी ही हो जाती। अपने इन विचारों को मैं यदि किसी से प्रकट भी करता तो शोण के अतिरिक्त और था ही कौन मेरे पास ! मेर मन घुटता जा रहा था। बड़े लोग छोटों को अपने पास बुलाकर उनके दोष दिखायें तब तो ठीक है। लेकिन यदि उनकी उपेक्षा करें तो ?…तो उनके मन का अंकुर घुटने लगता है। फ़िर जहाँ उसको रास्ता मिलता है वहीं से वह बाहर निकलता है। इन छह वर्षों में मुझको क्या प्राप्त हुआ था ? घोर असह्य उपेक्षा। ज्वलन्त तिरस्कार। कर्ण नामक कोई एक शिष्य इस युद्धशाला में भी अपने आप ही बनय गया। कृपाचार्य और द्रोणाचार्य के प्रति आदर होने के बजाय शंका आ पैठी। मुझे ऐसा लगता कि वे मेरे नाममात्र के लिये गुरु हैं। जो शिष्यों के मन नहीं जानते हैं, वे कैसे गुरु ? जो प्रेम की फ़ूँक से शिष्यों के मन की कली प्रफ़ुल्लित नहीं करते, वे कैसे गुरु ? मेरा मन गुरु-प्रेम के लिए तरसता था। इसीलिए मैं प्रतिदिन अपने गुरु का हाथ अपनी पीठ पर तब तक फ़िरवाता था, जबतक कि पीठ गर्म नहीं हो जाती थी। हाँ तब तक सूर्यदेव को अर्ध्य देता रहता। नित्य इसी प्रकार तप्त होने के कारण मेरी पीठ प्रखर हो गयी थी।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३३ [द्वन्द्वयुद्ध के दाँव….]

     छह वर्षों का समय तो ऐसे उड़ गया जैसे पक्षियों का झुण्ड उड़ जाता है। उसका पता भी न चला। युद्धशास्त्र में कुछ भी सीखना शेष नहीं बचा। बल्कि मैंने और शोण ने रात में जो अतिरिक्त अभ्यास किया था, उसके कारण हमने प्रत्येक शास्त्र के कुछ ऐसे विशिष्ट कौशल सीख लिये थे जो केवल हम ही जानते थे। कुश्ती के अखाड़े में मैंने केवल लगातार परिश्रम ही नहीं किया, बल्कि एक ही समय चार-चार मल्लयुवकों के साथ मैंने कुश्ती भी लड़ी थी। न जाने क्यों व्यायाम करते समय मुझको थकावट कभी नहीं मालूम पड़ती थी। इसके विपरीत जैसे-जैसे मैं व्यायाम करता जाता वैसे ही वैसे मेरा शरीर तप्त होता जाता। कभी-कभी वह इतना तप्त हो जाता था कि मेरे साथ कुश्ती लड़नेवाले जोड़ीदार कहते, “कर्ण, सीधा जा और दो-चार घड़ी गंगा के पानी में अच्छी तरह डुबकी लगाकर पहले अपना शरीर थोड़ा ठण्डा कर उसके बाद ही हमको अपने साथ कुश्ती लड़ने के लिये बुला। यह तेरा शरीर है या रथ की प्रखर तप्त हाल ?”

     मेरे बाहुकण्टक दाँव से तो वे इतने घबराते कि उस दाँव को चलाने के लिए मैं जैसे ही चपलतापूर्वक अपने शरीर्को सक्रिय करने लगता, वे अपने-आप एकदम चित्त हो जाते । इस दाँव की एक विशेषता थी। प्रतिद्वन्द्वी की गरदन इस दाँव में जकड़ ली जाती थी। शरीर की सारी शक्ति हाथ में एकत्रित कर उसका दबाब धीरे-धीरे बढ़ाते जाने पर प्रतिद्वन्द्वी का दम घुटने लगता था और वह मर जाता था। उस समय उसके हाथ और पैर पीठ पर गट्ठर की तरह ऐसे बँध जाते थे कि गरदन पर रखे हाथ को हटाने की शक्ति उसमें होने पर भी वह उसको हटा नहीं पाता था। यह मेरा विशेष सुरक्षित दाँव था। और युद्धशास्त्र के नियम के अनुसार वह केवल द्वन्द्वयुद्ध के समय ही इतनी क्रूरता से प्रयोग में लया जा सकता था। द्वन्द्व का अर्थ एक ही था। उसमें दो योद्धाओं में से एक ही बचता था। इस युद्ध जब मरने के डर से शरण में आ ही जाता था, तो उसको जीवनदान मिलता था। परन्तु वह जीवनदान विधवा स्त्री के जीवन की तरह होता था। योद्धाओं के राज्य में इस प्रकार जीवनदान माँगनेवाले का मूल्य तिनके के बराबर भी नहीं होता है। ऐसे द्वन्द्वयुद्ध में काम आनेवाले सभी दाँव मैंने सीख लिये थे। परन्तु मेरा सबसे अधिक विश्वास एक ही दाँव पर था – बाहुकण्टक पर।