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निराशा, जीवन और भूल जाना

जीवन में निराशा कभी आ जाये तो जीवन थोड़ा ढीला और धीमा हो जाता है। निराश कदमी को लगता है कि वो ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो कुछ नहीं कर पाता, वरना तो दुनिया उसके आगे ही है। और वह व्यक्ति हमेशा भाग्य को कोसता रहता है। पर भला कोसने से कभी कुछ होता है, जो होना होगा वह तो होकर ही रहेगा। जीवन में सोच ही व्यक्ति के प्रारब्ध का निर्माण करती है। पर कभी सोचता हूँ कि कोई ज्योतिष गुरू मेरी इस विचारधारा को सुनकर कहीं न कहीं मुझे धिक्कार ही देगा। वे हमेशा कहेंगे कि फलाने ग्रह और फलाने योग में यह सब होता है। शायद उनकी बातें सत्य भी होती हों। पर जीवन की निराशा में मौसम का भी बहुत हद तक हाथ होता है और अगर शरीर में निराशा प्रकार के रसायनों का बोलबाला हो तो जीवन चलना जटिल हो जाता है।

कल जब मोबाईल पर स्क्रीन गार्ड लगवाने के लिये एक दुकान के सामने कार रोकी, तो देखा दुकान पर कोई नहीं था, तभी देखा एक बंदा दुकान की ओर दौड़ता आ रहा है जिसके हाथ में मोबाईल है औऱ कान में कनकव्वा लगा हुआ है। दुकान में घुसते ही उसने हमारा स्वागत किया और हमने अपने आने का कारण बताया। बंदे ने सबसे पहले रेडी रेकनर टाइप का पेज निकाला और मोबाईल का मॉडल देखकर उसके स्क्रीन गार्ड का डब्बा निकाला। फिर एक drawer में देखने लगा, इससे यह तो पता चल गया कि इन भाईसाहब को कुछ पता नहीं है। 2 – 4 मिनिट नाटक करने के बाद बोला कि स्टाफ को पता होगा कि कहाँ रखा है, आप बाद में आइयेगा।

केवल इसी चक्कर में अपन पिछले 15 वर्षों से रेस्टोरेंट नहीं खोल पाये। काम अपन वही करना चाहते हैं जो खुद कर पायें, जिस काम में डिपेंडेंसी हो वह काम करना बहुत मुश्किल होता है। अगर स्टाफ गायब हो जाए तो अपनी दुकान बंद, तो ऐसी दुकान खोलने का कोई मतलब नहीं।

कई वर्षों बाद उज्जैन आया हूँ, तो बहुत से चेहरे जाने पहचाने हैं जिनके बाल काले थे, वे अब सफेद दिखने लगे हैं और चेहरे भी बदल गए हैं। मुझे देख कर पहचानने की कोशिश करते हैं और कभी कभार मैं भी पहचानने की कोशिश करता हूँ, पर अब ऐसी कोशिशें कामयाब नहीं हो पाती हैं, शायद उम्र का असर है। मैं अक्सर ही चीजें भूल जाता हूँ, फिर तो यह शक्ल है जिन्हें में 5 साल बाद देख रहा हूँ। हाँ इस बार बहुत दुख हुआ कई लोगों को मिल नहीं पाया, क्योंकि वे अब इस दुनिया में ही नहीं हैं।

मानव प्रजाति के लिये शताब्दी का सबसे कठिन समय है

मार्च 2020 से मानव प्रजाति के लिये शताब्दी का सबसे कठिन समय है, यह कोरोना आया था लगभग नवंबर 2019 में और अब जून 2021 भी लगभग ख़त्म ही होने को आया है। यह डेढ़ साल सदियों के जैसा बीता है, शुरू में तो बहुत मज़ा आया, कि घर पर ही रहना है कहीं नहीं जाना है। पर धीरे धीरे यह भी कठिन होता गया। सब अपने आप में सिमट गये, नहीं यह कहना ठीक नहीं होगा कि सिमट गये, दरअसल समाज की भी यह अपनी मजबूरी थी अपने आपको सिमटने की। नहीं तो सभी को कोई न कोई नुक़सान हो सकता था।

सिमटने के चक्कर में हमारे मानसिक अवस्था पर बहुत ही गहरा प्रभाव पड़ा, मुझे लगता नहीं कि कोई भी इन प्रभावों से बच पाया होगा। जो निडर बनकर घूमते रहे कि हम स्वस्थ हैं हमें कोरोना नहीं होगा, सबसे पहले कोरोना ने उन्हें ही शिकार बनाया। फिर मौतें कम होने लगीं तो लोग बिना किसी डर के फिर से घूमने लगे और हमने अपने कई दोस्तों, परिचितों और रिश्तेदारों को मौत के मुँह में जाते देखा, पता नहीं इस वर्ष तो मैं कितनी बार और कितनी देर तक कई बार रोया हूँ, आज भी उनके चेहरे यकायक ही आँखों के सामने आ जाते हैं, और वे मुझसे अपनी ही आवाज़ों में बात करने लगते हैं, कभी कभी लगता है कि मैं पागल हो गया हूँ, परंतु ऐसा नहीं है, पता नहीं भाग्य को यही मंज़ूर था या उनकी थोड़ी सी लापरवाही से ऐसा हुआ।

कई मित्र ऐसे थे, जिनके लिये कार्य ही सर्वोपरि था, वे रोज़ ही अपने कार्यस्थल जाने में कोई देरी नहीं करते थे, परंतु कभी उन्होंने अपने परिवार के बारे में नहीं सोचा, यह दुख होता है। वे लोग बड़े स्वार्थी थे, हमारी इतनी बातें होती थीं, मिलकर, कॉ़ल पर, व्हाट्सऐप पर, ऐसा कुछ बचा नहीं जहाँ, अपने लोगों से बात नहीं होती थी, मैं बस अपने लोगों से यही कहता था, यहाँ तक कि जब मौक़ा मिलता जो अपरिचित थे, उनको भी कहने से नहीं चूकता था, कि परिवार अंततः आपके साथ रहेगा, अगर आपको कुछ हो गया तो कार्यस्थल पर तो सारे काम कोई ओर सँभाल लेगा, परंतु आपकी कमी परिवार में कोई पूरी नहीं कर पायेगा। जिस परिवार को आप सबसे आख़िरी प्राथमिकता पर रखते हो, वही हमेशा आपके काम आयेगा। कुछ दोस्तों को जब वे अपने अंतिम समय में अस्पताल में साँसों के लिये लड़ रहे थे, शायद बात समझ में भी आई, परंतु बस वह वक़्त समझने का नहीं था।

अंतिम वक़्त में कोई कितना भी समझ ले, अच्छा बुरा सब समझ ले, परंतु जो जीवन में खो गया वह खो गया। इतने लोगों के जाने के बाद अब मैं आत्मा को ढूँढने लगा हूँ, कई फ़िल्म, डाक्यूमेंट्री देखीं, किताबें पढ़ीं, और भी पढ़ रहा हूँ, कई बार लगता है कि यह सब बस कहने की बात है, अगर इस दुनिया में सभी तरह के लोग हैं ओर कोई बुरा है कोई अच्छा है, तो क्या वाक़ई कहीं इस सबका इंसाफ़ भी होता होगा। धरती पर इतनी जनसंख्या हो गई, भगवान भी इतनी आत्माओं का प्रोडक्शन करने में थक गये होंगे, शायद उनके यहाँ भी अब जगह न होगी। सब जगह किसी एक निश्चित संख्या में ही लोग रह सकते हैं। क्या वाक़ई मरने के बाद भी कोई दुनिया होती है, क्यों हम इतने सीधा सादा जीवन अपने किसी न किसी उसूल पर बिता देते हैं, क्यों कोई ग़लत कार्य करने के बाद अपने मन और दिमाग़ पर बोझ बना लेते हैं, इसका जवाब तो खैर मेरे पास नहीं। आत्मा और परमात्मा को कोई साफ़ उत्तर कहीं नहीं है, बस एक ही चीज मिली कि ख़ुद को ढूँढे पर सही तरीक़ा बताने वाला कोई है नहीं।

इस लंबे समय में घर के दौरान यह समझ में आया कि हम सामाजिक हैं अगर हमें अकेले ही रहने को लिये छोड़ दिया जाये तो हम पागल हो जायेंगे, हमें अपने आसपास लोग चाहिये, उनका अहसास चाहिये, हमारे जीवन में हर तरह का रस होना चाहिये। जीवन जीने के लिये अपना नहीं, साथ रहने वाले और साथ चलने वाले लोगों का खुश होना ज़रूरी है।

इस लंबे समय में कई नये कार्य हाथ में लिये, पर शायद ही कोई कार्य लगातार कर पा रहा हूँ, ऐसा लगता है कि करना तो सब कुछ चाहता हूँ परंतु क्यों करूँ? इसका उत्तर नहीं मिल रहा। दिमाग़ चलने बंद हो गया, मैं लोगों को किसी काम के लिये हाँ कह देता हूँ, यह भी कह देता हूँ कि मैं बहुत आलसी हूँ, परंतु सही बात तो यह है कि मैं आलसी नहीं हूँ अगर गोया आलसी होता तो इतना लंबा हिन्दी में यह बकवास या क़िस्सा लिख नहीं रहा होता, मैं कहीं कुछ ढूँढने में व्यस्त हूँ, जो मुझे मिलने से बहुत दूर है। मैं क्या ढूँढ रहा हूँ वह मुझे साफ़ है, पर कैसे और कहाँ से मिलेगा यह मुझे पता नहीं, न ही मैं लोगों से पूछना चाहता हूँ और न इस बारे में बताने चाहता हूँ।

प्रेम अपनी जगह है और संसार की व्यवहारिकता अपनी जगह है, कहते हैं कि मरने के बाद लोगों की बुराई नहीं करनी चाहिये, मैं बरसों से लोगों को समझा रहा हूँ कि हमेशा अपने परिवार के बारे में सोचो, वे ही हैं तुम्हारे पीछे, वे तुमसे किसी टार्गेट की उम्मीद नहीं करते, अगर किसी दिन बिना रोटी लिये घर आओगे न तो वे तुमसे उस दिन की रोटी नहीं माँगेंगे, वे बिना रोटी के भूख सहन करके सो जायेंगे, वे आपको ओर परेशान नहीं करेंगे, क्योंकि आप पहले से परेशान हैं, परंतु क्या वाक़ई आप अपने परिवार को मन से दिल से अपना पाये, या यह सब सोच पाये, नहीं तो कृप्या सोचिये।

मैं कोई नहीं होता किसी पर दबाव डालने वाला, बस विनती ही कर सकता हूँ, क्योंकि यह सदी का सबसे कठिन समय है, कब यह काल विकराल का रूप धर लेगा, किसी को पता नहीं।

महाकाल कार्तिक मास सवारी

उज्जैन के एबले नि जूनी उज्जैन के महा एबले

उज्जैन में एक मित्र से बात हो रही थी दो दिन पहले –

मैं – भिया जै महाकाल

मित्र – जै माकाल

मैं – कोरोना कैसा फैल रिया है गुरु

मित्र – अरे फैलने दो अपने को कई, अपन तो धरमिंदर ओर अमिताभ के जैसे हो रिये हैं आजकल जान हथेली पे लेके घूम रिये हैं, मास्क वास्क सोसल डिस्टनसिंग चल री है, पन बार निकलना नि छोर सकते, पहले तो उज्जैनी तो एबले नि जूनी उज्जैन के महा एबले

हमने कहा भिया ध्यान रखो

भाई बोला – भिया पेट भी है परिवार भी है, एबले बनेंगे तो ही पेट भर पायेंगे नि परिवार चला पायेंगे।

हम शब्दहीन थे।


यह तो मित्रों की बात हुई परंतु कोरोना के कारण बेहद ही ख़राब स्थिति है अपना ध्यान रखें, अभी बातों के दौरान पता चला भाई से कि उनके एक मित्रवत मात्र 29 वर्ष की आयु में ही काल का ग्रास बन गये, वहीं उज्जैन में एक दंपत्ति को लगभग एक साथ ही कोरोना के शिकार हुए।

यहाँ भाषण नहीं करेंगे वो तो सभी लोग कर रहे हैं, परंतु इतना ध्यान रखें कि क्षणिक सुख के लिये कि बाहर न निकलें, जाना ज़रूरी हो तो पहले घर पर सारी चीजों की सूचि बनाकर रख लें, बार बार बाज़ार न जायें, ध्यान से रहें, अपने कारण परिवार को तकलीफ़ में न डालें, यह ऐसी बीमारी है जो परिजनों को तो डस ही लेगी साथ ही आपको आर्थिक तौर पर भी अच्छा ख़ासा नुक़सान पहुँचायेगी, जान पहचान क्या कोई करीबी भी आपकी चाहकर भी मदद नहीं कर पायेगा। सब कुछ आपके अपने हाथों में है।

घर पर रहें, मन न लगे तो भगवान में मन रमायें, भगवान में मन न लगे तो यूट्यूब देखकर कुछ सीख लें, न सीखने का मन हो तो जो भी आप करना चाह रहे थे, पर न कर पाये वही देख लें, मनोरंजन कर लें, बस घर पर रहें। ज़रूरी हो तभी बाहर निकलें, नहीं तो बस यह समझ लीजिये कि आप साक्षात यमराज को ही घर ला रहे हैं।

जिनको न पता हो उनके लिये – उज्जैन में महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग स्थित है।

जब हमने दोस्त के साथ आम का डिनर किया

यह वाक़या हमें इसलिये याद आ गया जब हमने दोस्त के साथ आम का डिनर किया। पिछले वर्ष हम 1 सप्ताह के लिये मुंबई गये थे, यही समय था, खूब आम आ रहे थे। हम अपनी रॉ वेगन डाइट पर थे, घर से बाहर इस प्रकार की डाइट पर रहना थोड़ा मुश्किल होता है। परंतु हमने अच्छे से पालन किया।

सुबह ऑफिस जाते समय होटल के रेस्टोरेंट से जहाँ अपना ब्रेकफास्ट कॉम्प्लीमेंट्री था, पर हम ब्रेकफास्ट नहीं करते थे, तो हम अपनी 1 लीटर मिल्टन की बोतल में तरबूजे का ज्यूस ले जाते थे, और दोपहर में भूख लगती थी तो वहीं बीकेसी के बैंक की कैंटीन में मोसम्बी ज्यूस पी लेते थे।

शाम को होटल आते हुए, ककड़ी, गाजर, शिमला मिर्च, प्याज ले आते थे, 1 या 2 दिन हमने सब्जी का सलाद खाया, चाकू, बारीक सलाद काटने की मशीन, थाली सब साथ लेकर गये थे। फिर ठेलों ओर आम दिखने लगे, बढ़िया दशहरी, लँगड़ा।

बस फिर लँगड़े आम का ही शाम का भोज होता था, शाम को आम 2 दिन के हिसाब से लाते और होटल के कमरे में फ्रिज में डाल देते तो अगले दिन बढ़िया ठंडे आम मिलते थे।

हमारे मित्र होटल पर मिलने आने वाले थे, हमने उनसे पूछा कि डिनर साथ करेंगे, वो बोले हाँ करेंगे, वे आये मिलने, तो हमने कहा चलो आओ डिनर कर लो रेस्टोरेंट में, उन्होंने हमसे पूछा और तुम, हमने कहा पका तो खा नहीं रहे हम, हम तो डिनर में आम खाते हैं, मित्र बोले फिर आज हम भी डिनर में आम ही खायेंगे। हम दोनों ने छककर आम खाये।

आम के सीजन में डाइट का मजा है, सुबह 4-5 आम खाओ, फिर पूरी दोपहर तरबूजे का रस पियो और फिर शाम को वापिस से 5-6 आम खा लो। वजन मेंटेन रहेगा।

मुंबई से उज्जैन एक कूपे में 6 सीटों पर 14 लोगों की यात्रा

जब मुंबई में रहते थे, तो हम कुछ मित्र किराये का एक फ्लेट लेकर रहते थे, और अधिकतर उज्जैन या इंदौर के थे, और लगभग हर सप्ताह हम बोरिवली से उज्जैन की ट्रेन शाम 7.40 पर पकड़ते थे, ट्रेन का नाम है अवंतिका एक्सप्रेस, ट्रेन शनिवार सुबह 7 बजे उज्जैन पहुँच जाती थी और रविवार शाम को फिर से शाम 5.40 पर यह ट्रेन बोरिवली के लिये चलती थी, तो बोरिवली सोमवार सुबह 5 बजे पहुँच जाते थे। थोड़ी देर सोकर फिर तैयार होकर ऑफिस निकल जाते थे। यह बात है लगभग 2007 की, उस समय अवंतिका एक्सप्रेस में रिज़र्वेशन आसानी से तो नहीं मिलता था, पर ऑनलाइन रिज़र्वेशन के कारण आसानी थी। और जैसे ही 3 महीने बाद का रिज़र्वेशन खुलता था, हम लोग आने जाने का रिज़र्वेशन करवा लेते थे।
 
त्योहार के दिनों में हम लोग ज़्यादा लोग होते थे, तो मैं हमेशा ही एक टिकट पर मिलने वाली 6 सीटें रिज़र्व कर लेता था, क्योंकि हमारे एक मित्र हैं वे बहुत दयालु हैं, हमारे पास जब सीटें लिमिटेड होती थीं तो हम चुपचाप अपनी सीट पर बैठ जाते थे, और ये महाशय पूरी ट्रेन में प्लेटफ़ॉर्म पर घूमकर जिनके पास वेटिंग टिकट होता था, उनको अपनी सीट पर आमंत्रित कर आते थे, हमें खैर ग़ुस्सा तो बहुत आता था, पर उनकी दरियादिली देखकर अपनी मित्रता पर गर्व भी होता था। ऐन समय पर ऐसे बहुत से मित्र मिल जाते थे जिनके पास कन्फर्म टिकट नहीं होता था, पर हमारे पास ज़्यादा सीटें होने से हम 1 कूपे में हर सीट के हिसाब से 2 और बीच में बची जगह पर, जहाँ पैर रखते हैं, वहीं 2 लोग सो जाते थे, इस हिसाब से 14 लोग एक कूपे में आ जाते थे।
 
कई बार उन मित्र से बहुत ख़फ़ा भी रहा, वो चुपचाप रहते हमें मनाते रहते, खैर आज याद करता हूँ तो बहुत अच्छा लगता है।
 
ऐसे ही कई किस्से जो ट्रेन के हैं, याद आते रहते हैं, लिखता रहूँगा।

यारों का यार हमारा सरदार

दोस्त बहुत हैं पर गहरे दोस्त कम ही होते हैं, एक के बारे में लिखो तो दूसरे दोस्तों को बुरा लग सकता है, परंतु हम फिर भी अपने एक गहरे दोस्त के बारे में लिखते हैं, हमें पता है कि हमारे अन्य गहरे दोस्त हमारी बातों को ध्यान से पढ़ेंगे और हमें और ज्यादा प्यार करेंगे। अन्य दोस्तों की मैं कह नहीं सकता हूँ जिसमें से कुछ लोग तो बुरा भी मान जायेंगे और कुछ हौसलाफजाई करेंगे। Continue reading यारों का यार हमारा सरदार

दोस्तों के जाने का गम..

    दोस्तों के जाने का गम हमेशा तकलीफ़देह होता है, जाना मतलब हमेशा के लिये हमें छोड़कर जाना। अपने पीछे इतने सारे रिश्ते जो कि कितने जतन से बनाये गये थे, और बस एक पल में बिछड़ जाना।
 
    मेरे साथ काम करने वाले दो मित्र अचानक ही अलविदा कहकर चल दिये, उनके जाने की उम्र भी नहीं थी, और सुनकर विश्वास करना भी नामुमकिन।
 
    एक मित्र थे जो कि २ – ३ महीने पहले ही अलविदा कह चुके थे, परंतु हमें पता नहीं चला, फ़ेसबुक पर उनके जन्मदिन पर हमने बधाई का सन्देश दे दिया, तो एक मित्र से पता चला कि अब वह मित्र इस दुनिया में ही नहीं है, जबकि उसकी शादी हुए शायद पूरा वर्ष भी नहीं हुआ था, यह मेरे लिये दिल दहला देने वाली खबर थी।
शोकसंदेश
 
    उस मित्र का जीटॉक स्टेटस होता था “भगवान सबका भला करे बस शुरूआत मुझसे करे”, पता नहीं भगवान ने ये कैसा भला किया मेरे मित्र के साथ। न रहने की खबर मिलते ही जो स्थिती मेरी थी वही स्थिती मेरे कई दोस्तों की थी। जिस चीज पर हमारा जोर नहीं हम इसके लिये कुछ नहीं कर सकते।
 
    कल फ़िर शाम के समय एक फ़ोन आया कि एक हमारे साथ काम करने वाले जो कि आजकल भारत के बाहर थे और घूमने के लिये भारत आये हुए थे और कल वो भी नहीं रहे। जल्दी जल्दी दो बुरी खबरें सुनने से दिल आहत हो गया है।
 
    बहुत पहले ऐसे ही एक मित्र के जाने पर अंतिम विदाई के समय हमारी मित्र मंडली में यही चर्चा थी, सारी दुनियादारी करते हैं, सारे जतन करते हैं, परंतु आखिरकार इस देह को पंचतत्व में ही विलीन होना है, तो लोग याद करें हमारे जाने के बाद इसके लिये अच्छे काम करें, ना कि बुरे जिससे लोग आहत हों और हमारे जाने के गम की जगह खुशियाँ मनायें।
 
    इतनी बड़ी देह आखिरकर राख हो जाती है और किसी भी “अहं” और “मैं” का नामोनिशां नहीं होता । तुम्हारे साथ की गई चैटिंग अभी तक मेरे मेल बॉक्स में है, तुम अभी भी मेरे मैसेन्जर में हो और तुम्हें हटाते हुए हाथ काँपता है और आज तक हटा नहीं पाया हूँ और ना ही फ़ेसबुक से तुम्हें अनफ़्रेंड कर पाया हूँ ।