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दोस्तों के साथ दोस्तों में विशेषण के साथ बात किये बने आत्मीयता नहीं आती (Communication between friends is important for friendship)

    दोस्तों के साथ कॉलेज के दिनों के बिताये दिन कुछ अलग ही होते हैं, कोई किसी की बात का बुरा नहीं मानता और फिर बाद में भले ही कोई कितना बड़ा आदमी बन जाये पर कॉलेज के दिनों के साथियों से तो पुराने अंदाज और पुराने तरीके से ही बात की जाती है। कुछ लोग बदल जाते हैं और वे लोग दोस्त कहलाने के लायक नहीं होते, उनसे हाथभर की दूरी बनाये रखे जाना चाहिये कि जिससे वक्त पड़ने पर उनको गले लगाने की जगह, लप्पड़ या लात रसीद की जा सके। जिससे उनको उनका पूरा खानदान याद आ जाये ।
    जब भी बातें करते हैं तो माँ बहन और गद्दी के विशेषणों के बिना बात ही नहीं होती है, पर दोस्तों से बात करने का मजा भी तब ही है और जब तक विशेषण न हो, लगता ही नहीं कि पक्के दोस्त हैं, यकीन मानिये जितनी ज्यादी नंगाई दोस्तों के साथ हो, उतनी ही पक्की दोस्ती होती है। फुल ऑन देसी हिन्दी भासा में पता नहीं कहाँ कहाँ के किस्से कहानी कहते थे। और पता नहीं कभी मालवी भाषा तो कभी निमाड़ी भाषा और कभी भोपाली जुमलों का इस्तेमाल विशेषण के रूप में किया जाता, उन सबमें विशेष रस आता था, आज भी उन्हीं दोस्तों के साथ उन विशेषणों के द्वारा विशेष रस का आनंद लिया जाता है, बस अब अंतराल कम नहीं बहुत कम हो गया है।
    भोपाली विशेषणों में तो आनंद ही कुछ और है, कई बार तो प्योर भोपाली विशेषणों के लिये आज भी पुराने घनिष्ठ दोस्तों को फोन लगाकर पान खिलवाकर वे विशेषण सुनने के आनंद ही कुछ और होते हैं, एक हमारे मित्र थे वे तो साली, भाभी और पता नहीं कहाँ कहाँ के रिश्तों के साथ रस लेकर किस्से कहानियों को जोड़ देते थे। आज भी कई बार कहीं कोई अपना कॉलेजियाना यार मिल जाता है तो पता नहीं कहाँ से पुराने जुमले जुबान पर से फिसल पड़ते हैं, और पुराने दिनों की यादें वीडियो बनकर नंगी आँखों में उभर आती है, सारी की सारी वीडियो फिल्म बनकर सामने हमारी मुख गंगा से बह निकलती है। और वीडियो भी देसी जबान में बोला जाता है तो आज भी हम लोग हँस के चार हो जाते हैं।
    जीवन के इन चार दिनों में वैसे ही रिश्तों की बागडोर सँभालना मुश्किल होता है और अगर जीवन में कहीं न कहीं हलकट अंग्रेजी भाषा में कहें चीप न बनें तो आप जीवन के आनंद में सारोबार हो ही नहीं सकते । आत्मीयता भी तभी आती है, जब दोस्तों के बीच कोई दुराव छुपाव नहीं हो, बस दोस्ती के बीच में कुछ और न लाया जाये और अपने दोस्त के लिये हमेशा एक आवाज पर खड़ा हो जाया जाये तो इससे बेहतरीन बात और कोई हो ही नहीं सकती है।

मित्र के लिये बैंक से ऋण (Bank loan for friend)

    मित्र के साथ मिलकर बैंक से ऋण (Loan from bank with friend) लेना या मित्र के लिये बैंक से ऋण लेना (Loan from bank for friend), दोनों ही किसी मुसीबत के लिये निमंत्रण हो सकते हैं। थोड़े समय पहले हमारे एक सहकर्मी ने हमसे इस बाबत बात की, और कहा कि उन्होंने बैंक से १० वर्ष पहले प्रधानमंत्री रोजगार योजना (Pradhamantri Rojgar Yojna) में एक लाख रूपये का ऋण लिया था, ऋण पूरा मित्र “अजय” के नाम पर था, परंतु पीछे वास्तविकता में उनके मित्र “बिजय” उस व्यापार जिसके लिये ऋण लिया गया था, बराबर के हिस्सेदार थे, केवल बैंक में “अजय” के नाम से ऋण लिया गया, जबकि “बिजय” का नाम कहीं भी नहीं था। दोनों बहुत अच्छे दोस्त थे, दोनों को एक दूसरे पर बहुत यकीन था।
    दोनों अपना अपना काम करने लगे, व्यापार थोड़ा चल निकला,  फ़िर “अजय” को ठीकठाक सी नौकरी मिल गई, तो “अजय” ने “बिजय” को व्यापार की बागडोर थमाई और नौकरी में चले गये। जब तक “अजय” व्यापार में साथ था तब तक ऋण का मासिक भुगतान समय पर बैंक को होता रहा, परंतु जैसे ही “अजय” नौकरी के लिये गया, “बिजय” ने बैंक की ऋण अदायगी बंद कर दी। बैंक के रिकार्ड में उनका ऋण खाता निष्क्रिय की श्रेणी में आकर एन.पी.ए. (Non Performing Asset) घोषित कर दिया गया।
    पहले बैंक ने “अजय” से संपर्क किया और प्रधानमंत्री रोजगार योजना के अंतर्गत लिया गया ऋण चुकाने की बात कही, तो “अजय” ने बैंक को कहा कि मैंने तो कब से व्यापार से नाता तोड़ लिया है और अब मेरा मित्र “बिजय” उस व्यापार को चला रहा है, तो बैंक ने कहा “ऋण तो आपके नाम से है, “बिजय” के नाम से नहीं है, आप हमारा पैसा हमें लौटा दीजिये” ।
    “अजय” परेशान हो गया कि आखिर “बिजय” को यह क्या हो गया जो उसने हमारे अपने व्यापार को जमाने लिये गये ऋण को नहीं चुकाया, जबकि व्यापार अच्छा चल रहा है, जब उसने “बिजय” से बात करने की कोशिश की, पहले तो “बिजय” फ़ोन पर ही नहीं आया, चूँकि “अजय” की नौकरी घुमंतु वाली थी, कभी इस शहर कभी उस शहर। छुट्टियों में “अजय” घर गया और “बिजय” से मिला तो “बिजय” बड़ी ही रूखाई से पेशा आया और कहा ऐसा है कि ऋण तुमने लिया तो मैं क्यों भरूँ, ऋण तो तुमको ही भरना पड़ेगा, मेरे नाम पर ऋण थोड़े ही है, “अजय” यह सुनकर रूआंसा हो गया।
    “अजय” ने “बिजय” से बात करके समस्या का हल निकालने की पूरी कोशिश करता रहा, “बिजय” को लग रहा था कि ऋण चुकाना केवल “अजय” की जिम्मेदारी है, परंतु जब “अजय” ने समझाया कि हमने साझेदारी में व्यापार शुरू किया था, तो तुम भी तो ऋण के साझेदार हुए, “बिजय” को बात समझ आ गई और वह आधा ॠण भरने को तैयार हो गया, अब “अजय” फ़िर परेशान था, क्योंकि उसने तो व्यापार में से एक पैसा भी नहीं लिया था, फ़िर भी उसे आधा ऋण चुकाने के लिये बाध्य होना पड़ रहा है, “अजय” को पता था कि “बिजय” वह आधा ऋण के पैसे निकालने में ही उसके पसीने छुड़ा देगा। और बैंक “अजय” के पीछे पड़ी हुई थी।
    यही वह समय था, जब “अजय” मुझसे मिला और इस बाबत अपनी राय माँगी, हमने कहा “बिजय” को ऋण देने के लिये राजी तो तुमको ही करना पड़ेगा, नहीं तो आधा ऋण फ़ालतू में तुमको अपनी जेब से भरना पड़ेगा, अब “अजय” ने फ़िर से “बिजय” से बात की, व्यापार को छोड़कर मैं तो नौकरी में चला गया था, तो पूरा ऋण तुम्हें ही चुकाना होगा, अब इस बात पर “बिजय” उखड़ गया। “बिजय” बोला एक तो ऋण तुम्हारे नाम पर है, फ़िर भी मैं आधा ऋण चुकाने को तैयार हो गया हूँ और अब तुम पूरा का पूरा मेरे ऊपर डालना चाहते हो।
    खैर “अजय” ने हमसे कहा कि मैं बात को ज्यादा तूल नहीं देना चाहता हूँ, मैं आधी रकम जो कि लगभग पैंतीस हजार होती है मैं बैंक को चुका देता हूँ और बाकी की मेरा मित्र “बिजय” चुका देगा, “अजय” ने बैंक से सैटलमेंट किया कि हम केवल मूल ऋण चुका पायेंगे, ब्याज की राशि माफ़ की जाये, तो बैंक इस बात के लिये राजी हो गया और कुल सत्तर हजार के ऋण में से आधी रकम “अजय” ने बैंक को चुका दी और बाकी की रकम “बिजय” को चुकानी थी, बिजय ने अजय को पोस्ट डेटेड चेक देकर कहा कि इन तारीखों में मेरे भुगतान आने हैं, तुम बैंक में लगा देना। “बिजय” ने दस हजार के तीन चेक दिये थे, और तीनों के तीनों बाऊँस हो गये, और इसी बीच “अजय” को “बिजय” ने बाकी के पांच हजार रूपये नकद में दे दिये।
    बैंक वालों ने “अजय” का पीछा नहीं छोड़ा और कहा कि हमारा पूरा पैसा चाहिये तुम्हारी साझेदारी तुम्ही जानो, हमारे लिये तो कर्जदार तुम हो और तुम हमारा पूरा पूरा ऋण चुकाओ, नहीं तो हम तुम्हारा केस अब वसूली के लिये कलेक्टर कार्यालय को भेज रहे हैं। वहाँ से कुर्की के आदेश भी निकल सकते हैं। “अजय” घबरा गया, उसने फ़िर से “बिजय” से बात की और चेक बाऊँस होने के कारण नकद रूपये देने की बात कहीं, अब बिजय अजय को थोड़े थोड़े करके नकद रूपये देकर ऋण चुका रहा है।
    इस बात से एक अनुभव मिलता है कि कभी भी अगर साझे में कोई भी काम करो तो ऋण भी साझेदारी में ही होना चाहिये, फ़िर चाहे कोई कितना भी अच्छा दोस्त हो या रिश्तेदार हो, ऐसे कार्यों में सहानुभूति से कार्य नहीं लेना चाहिये और व्यवहारिकता से सोचना चाहिये, पैसा निकालने में जान निकल जाती है और कानून डंडा लेकर आपके पीछे पड़ा रहता है।
    बेहतर है कि या तो साझे में ॠण ना लें या लें तो उसके बराबर दस्तावेज हों, वैसे ही कभी मित्र या रिश्तेदार की मदद करने के लिये कोई ऋण ना लें, अन्यथा परेशानी का सामना आपको ही करना पड़ेगा। एक बार मना करके बुराई मिलती है तो इतनी सारी आने वाली परेशानियों से वह बुराई बेहतर है।

गंभीर चिंतन और मंथन देश को क्या नई दिशा देता है ? यह देखना है ।

कल ऑफ़िस से आने के बाद ऑनलाईन खबरें सुन रहे थे जो कि देश के औद्योगिक घरानों को लेकर था, कि भारत सरकार चला रही है या देश के औद्योगिक घराने चला रहे हैं। हमारे औद्योगिक घराने सरकार की मदद से आम आदमी को लूटने में लगा हुआ है। जिन लोगों ने इस चीज को सार्वजनिक मंच से उठाया, पहले उनकी मंशा पर शक होता था, पर कल जो भी हुआ उससे अब उनकी मंशा साफ़ होती जा रही है।

पहले ऐसा लगता था कि ये सब राजनैतिक लालच में किया जा रहा है और “मैं आम आदमी हूँ” की टोपी पहनने वाले लोग भारत की जनता को गुमराह कर रहे हैं, मासूमों को बरगला रहे हैं। पर कल यह बात साफ़ हो गई कि इस देश में ना पक्ष है मतलब कि सरकार और ना ही विपक्ष, सब मिले हुए हैं, इस बात को और बल मिला कि देश को औद्योगिक घराने ही चला रहे हैं।

कल बहस में एक बात सुनने को मिली जो कि सरकारी पक्ष वाली पार्टी और विपक्ष वाली पार्टी दोनों ही एक सुर में कह रही थीं, ये हर सप्ताह नये खुलासे करने वाली पार्टी केवल खुलासे करती है और अंजाम तक नहीं पहुँचाती है, ये केवल चिंगारी दिखाकर भाग जाते हैं। सही बात तो यह है कि नये खुलासे करने वाली पार्टी के पास भी समय बहुत कम है, २०१४ के चुनाव सर पर खड़े हैं, और उनका मकसद किसी भी चीज को अंजाम तक पहुँचाना हो भी नहीं सकता क्योंकि आजादी के बाद से सभी राजनौतिक घरानों की और से इतने घोटाले हुए, उनका बयां करना ज्यादा जरूरी है।

जनता नासमझ तो है नहीं, सारी बातें पहले ही सार्वजनिक हैं परंतु हमें तो यह बात समझ में नहीं आती कि अगर ये लोग इतने ही सही हैं और कोई घोटाले नहीं किये तो इतने तिलमिलाये हुए क्यों हैं। इन्हें जो करना है करने दो, आपको अपना वोटबैंक पता है फ़िर आपकी समस्या क्या है। कहीं ऐसा तो नहीं कि इन लोगों को वाकई में डर लगने लगा है कि अब आम आदमी तक ये आदमी चिल्ला चिल्लाकर हमारी सारी गलत बातें पहुँचा रहा है और इससे हमें नुक्सान हो सकता है।

खैर यह तो क्रांति की शुरूआत भर है, जब तक राजनैतिक ताकतों को जनता की असली ताकत का अहसास होगा तब तक इन लोगों के लिये बहुत देर हो चुकी होगी, और इनका अस्तित्व मिट चुका होगा। खुशी इस बात की है कि जनता में गंभीर चिंतन पहुँच रहा है और जनता के बीच गंभीर मंथन प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और राजनैतिक दलों के नेताओं के पास कुछ बोलने के लिये ज्यादा बचा नहीं है, सब नंगे हो चुके हैं। अब यह गंभीर चिंतन और मंथन देश को क्या नई दिशा देता है, और इतिहास में क्या लिखा जायेगा, भविष्य के गर्भ में क्या है यह तो जनता को तय करना है।

ऑटो में १८० रूपयों का खून और साईकिल की बातें….

    आज सुबह से जो रूपयों का खून होना शुरू हुआ कि बस क्या बतायें ?

    खैर बैंगलोर नई जगह है और यह मुंबई जैसा सरल भी नहीं है, बैंगलोर गोल गोल है। मोबाईल पर भी गूगल मैप्स से मदद लेने की बहुत कोशिश करते हैं, परंतु असलियत में तो कुछ और ही निकलता है और कई बार गूगल मैप कोई और ही रास्ता बताता है।

    आज हमें सुबह पुलिस स्टेशन जाना था, पासपोर्ट के वेरिफ़िकेशन के चक्कर में तो, गूगल पुलिस स्टेशन कहीं और बता रहा था और पुलिस स्टेशन निकला ६ किमी. आगे इस चक्कर में ऑटो में हमारे १८० रूपये ठुक गये। जब सही पुलिस स्टेशन मिला तो पता चला कि यहाँ के लिये तो घर के पास से सीधी वोल्वो बस मिलती है।

    खैर हमारी जेब से निकलकर रूपये ऑटो वाले की जेब में जाना लिखा था तो लिखा था, हम क्या कर सकते थे। सोच रहे थे कि ऑटो वाला भी खुश हो रहा होगा कि रोज ऐसे ही १ – २ ढ़क्कन मिल जायें तो मजा ही आ जाये, और हो सकता है कि रोज फ़ँसते भी होंगे।

    जिस काम के लिये गये थे वह काम तो नहीं हुआ परंतु इतने रूपयों का खून हो गया वह जरूर अखर गया। ऐसा लग रहा था कि कोई बिना चाकू दिखाये हमें लूट रहा है और हम भी मजे में लुट रहे हैं।

    इसलिये अब सोच रहे हैं कि जल्दी से कम से कम दो पहिया वाहन तो ले ही लिया जाये, जिससे कम से कम ऐसे लुटने से तो बचेंगे और समय भी बचेगा।

    साईकिल भी दो पहिया है और बैंगलोर शहर में ५-६ किमी. में साईकिल के लिये विशेष ट्रेक बनाये गये हैं, परंतु अभी बैंगलोर के हर हिस्से में इस तरह के ट्रेक बनाना शायद मुश्किल ही है और अगर रोज २० किमी जाना और २० किमी आना हो तो साईकिल से आना जाना सोचने में ही बहुत मुश्किल लगता है। अगर २० किमी साईकिल चलाकर कार्यालय पहुँच भी गये तो कम से कम काम करने लायक तो नहीं रह जायेंगे।

    वैसे हमने हमारे पिताजी को रोज ३५-४० किमी साईकिल चलाते देखा है, और कई बार अगर कहीं आसपास गाँव में जाना है और जाने के लिये कोई साधन न होता था तो साईकिल से बस स्टैंड और फ़िर साईकिल बस के ऊपर और फ़िर उतर कर वापिस से साईकिल की सवारी, इसी तरह से लौटकर आते थे। सोचकर ही रोमांचित होते हैं, कि वे भी क्या दिन होंगे।

    साईकिल चलाने से स्वास्थ्य तो अच्छा रहता ही है और व्यायाम भी हो जाता है। हमारे पुराने कार्यालय में दो पहिया और चार पहिया वाहन की पार्किंग सशुल्क थी, परंतु साईकिल के लिये निशुल्क। हाँ कई जगह साईकिल परेशानी का सबब भी है, जैसे बड़े मॉल साईकिल की पार्किंग नहीं देते, ५ स्टार होटल साईकिल वालों को मुख्य दरवाजे से अंदर ही नहीं जाने देते हैं, और विनम्रता से मना कर देते हैं, साईकिल का अंदर ले जाना मना है।

    हमने भी साईकिल कॉलेज तक बहुत चलाई, और साईकिल से एक दिन में ५० किमी तक भी चले हैं, थक जाते तो ट्रेक्टर ट्राली को पकड़कर सफ़र तय कर लेते थे। बहुत सारी यादें हैं साईकिल की, बाकी कभी और ….

    खैर साईकिल चलाने से भले ही कितने फ़ायदे होते हों परंतु हम साईकिल लेने की तो कतई नहीं सोच रहे, दो पहिया वाहन सुजुकी एक्सेस १२५ बुक करवा रखी है, अब सोच रहे हैं कि खरीद ही लें।

पायलट के बराबर का लेवल करना बहुत जरूरी है.. (Level Should be equivalent … Pilot)

  मदिरा  बीते दिनों में हमारे एक मित्र मुंबई से बैंगलोर आये, वे मुंबई के अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे से अंतर्देशीय हवाई अड्डे की और ऑटो से आ रहे थे, तो बीच में ही उनकी मदिरा पीने की इच्छा  जोर मारने लगी, और एक बोतल व्हिस्की की निपटा दी और फ़िर चले मुंबई से बैंगलोर की अंतर्देशीय उड़ान के लिये वापिस ऑटो से अंतर्देशीय हवाई अड्डे की ओर।

    जब वे मदिरापान कर रहे थे तो उन्होंने हमें फ़ुनियाया कि अभी हम मदिरालय में बैठे हैं और उड़ाने वाले पायलट की बराबरी कर रहे हैं, कि हम दोनों का लेवल बराबर रहे, मतलब कि हमारे दोस्त का और पायलट का । हमें ज्यादा सूझा नहीं।

    जब यहाँ बैंगलोर पहुँचे, तो हमने पूछा ये लेवल बराबर रहेगा “इसका क्या मतलब है ?”, मित्र बोले देखो भई हम जिंदगी में पहली बार हवाई जहाज में बैठे हैं और सुना है, पढ़ा है कि जैसेप्लेन लोग कार “पीकर” चलाते हैं, वैसे ही ये पायलट “पीकर” उड़ाते हैं, अरे रोड पर तो पुलिस वाले झट से पकड़ लेते हैं, पर हवा में इनको पकड़ने वाला कोई नहीं है। इसलिये अपन भी “पीकर” टुन्न हैं और पायलट भी, अगर कुछ होगा भी तो अपना और पायलट का लेवल बराबर रहेगा, जैसे न उसको डर लगता है “उड़ाने” से वैसे ही हमको भी “उड़ने” से डर नहीं लगेगा।

    हम अपने मित्र को साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और हम बोले “प्रभू !! यह इलाज तो उन सभी यात्रियों को बताना पड़ेगा जो कि पियक्कड़ी हवाई कंपनी में बैठते हैं”, जय हो !!

वाहन जरुरी है बैंगलोर में.. सरकार पर केस लगाते हैं, बैंगलोर को महंगी गैस और मुंबई को सस्ती गैस (Vehicle is must in Bangalore)..

    बैंगलोर आये अभी चंद ही दिन हुए हैं, खैर अब तो यह भी कह सकते हैं कि एक महीना और ४ दिन पूरे हो गये हैं। यहाँ पर आकर सबसे जरूरी चीज लगी कि गाड़ी अपनी होनी चाहिये, मुंबई में लगभग ५-६ वर्ष रहे पर वहाँ गाड़ी की जरुरत कभी महसूस नहीं हुई, क्योंकि वहाँ पर सार्वजनिक परिवहन अच्छा और सस्ता है, वहाँ ऑटो और टैक्सी भी मीटर से चलते हैं, कभी कोई बिना मीटर से चलने के लिये नहीं बोलेगा। मुंबई में रहकर कभी भी ऑटो वाले से संतुष्ट नहीं थे पर अब मुंबई से बाहर आकर उन्हीं की कमी सबसे ज्यादा महसूस कर रहे हैं। कहीं भी जाना हो तो सार्वजनिक परिवहन का उपयोग कर लिया, उसका सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि आपको कभी खुद वाहन चलाना नहीं पड़ता है, याने कि सारथी फ़्री में :), पास जाना हो तो ऑटो, और दूर जाना हो तो बस या लोकल ट्रेन। बस के स्टॉप भी बराबर बने हुए हैं, और उस स्टॉप पर रुकने वाली बसों के नंबर भी लिखे रहते हैं, और कई स्टॉप पर उनके रूट भी लिखे रहते हैं।

    बैंगलोर में बसें हैं पर स्टॉप गायब हैं, अब जाहिर है कि स्टॉप गायब है तो नंबर भी नहीं होंगे और जब नंबर ही नहीं हैं तो रूट की तो बात बेमानी है। ऑटो वाले तो यहाँ लूटने के लिये बैठे हैं और यहाँ के प्रशासन ने शायद आँखें बंद कर रखी हैं। मेरे घर से बेटे का स्कूल मुश्किल से १ कि.मी. होगा, एक दिन जल्दी में जाना था तो ऑटो से पूछा ६० रुपये थोड़ा बहस करी तो ४० रुपये बोला, उससे कम में जाने को तैयार ही नहीं। कहीं भी आसपास जाना हो या दूर जाना हो तो ऑटो की लूट ही लूट है। यहाँ मीटर से चलने को तैयार ही नहीं होते जबकि ऑटो का किराया यहाँ मुंबई से महंगा है और सी.एन.जी. का भाव लगभग बराबर है।

    मुंबई में पहले १.६ किमी के ११ रुपये और फ़िर हर कि.मी. के लगभग ६.५० रुपये है। और बैंगलोर में पहले २ किमी के १७ रुपये और फ़िर ९ रुपये हर किमी के । एक बार ऐसे ही ऑटो वाले से बहस हो गई तो हमने भी कह दिया कि बैंगलोर तो लुटेरों का शहर है, मुंबई में भी गैस इतनी तो सस्ती नहीं है, तो ऑटो वाला कहता है कि मुंबई में गैस १६ रुपये मिलती है और यहाँ ४० रुपये, हम उससे भिड़ लिये बोले कि भई चलो फ़िर तो अपन “सरकार पर केस लगाते हैं, बैंगलोर को महंगी गैस और मुंबई को सस्ती गैस, इस बात में तो हम तुम्हारे साथ हैं, लाओ तुम्हारा मोबाईल नंबर कल टाईम्स ऑफ़ इंडिया को देंगे तो वो आपका साक्षात्कार लेंगे और तुम्हारा फ़ोटो भी छापेंगे”, तो वो खिसियाती हँसी के साथ चुपके से निकल लिया।

    खैर इस तरह के वाकये तो होते ही रहेंगे अब इसीलिये खुद का वाहन खरीदने के लिये गंभीरता से सोच रहे हैं, वैसे हम इसके सख्त खिलाफ़ हैं, अब हम देश के बारे में नहीं सोचेंगे तो क्या हमारा पड़ोसी सोचेगा। अगर शुरुआत खुद से न की जाये तो ओरों से उम्मीद नहीं की जानी चाहिये, परंतु अब लगता है कि बैंगलोर वाले हमारी इस सोच को बदलने में कामयाब हो गये हैं। समस्या यहाँ पर भी हर जगह पार्किंग की है, चार पहिया पार्किंग के लिये तो यह देखा कि लोग युद्ध ही लड़ते हैं, पर फ़िर भी दो पहिया आराम से कहीं भी कुन्ने काने में घुसा दो, थोड़ी जगह कर लगा दो, दो पहिया में इतनी समस्या नहीं है।

    अभी दो दिन पहले ही पढ़ा था कि सरकार यहाँ साईकिल वालों के लिये विशेष लेन बना रही है, तो हमारे मन में ख्याल आया कि फ़िर तो साईकिल भी ले सकते हैं और मजे में घूम भी सकते हैं, परंतु यह लेन शायद हमारे घर के आसपास कहीं नहीं है, इसलिये फ़िलहाल तो यह भी केवल ख्याल ही रह गया।

    दो पहिया वाहन खरीदने का ज्यादा गंभीरता से विचार कर रहे हैं। वह भी बिना गियर का, अभी तक हमने हांडा की एक्टिवा, महिन्द्रा की डुयोरो, हीरो हांडा की प्लेजर और टीवीएस की वेबो देखी, सबसे अच्छी तो एक्टिवा लग रही है, पर अभी सुजुकी की एक्सेस १२५ देखना बाकी है, और सबसे बड़ी बात उक्त वाहन एकदम उपलब्ध नहीं हैं, ९० दिन की लाईन है, प्रतीक्षा है। बताईये या तो लोग ज्यादा वाहन खरीदने लगे हैं या फ़िर इन कंपनियों की उत्पादन क्षमता कम है, या फ़िर इसमें भी बैंगलोर के लोगों का कमाल है। अभी सोच रहे हैं, देखते हैं कि अगले सप्ताह तक बुकिंग करवा दें और फ़िर वाहन तो ३ महीने बाद ही मिलने वाला है, तब तक ऐसे ही बैंगलोर को कोसते रहेंगे, शायद बैंगलोर वाले पढ़ रहे हों कि एक ब्लॉगर कितनी बुराई कर रहा है बैंगलोर की।

आज इंडिब्लॉगर मीट में जा रहे हैं, फ़िर पता नहीं ऐसे कितने किस्से निकल आयेंगे।

जाती है इज्जत तो जाने दो कम से कम भारत की इज्जत लुटने से तो बच जायेगी

    आज सुबह के अखबारों में मुख्य पृष्ठ पर खबर चस्पी हुई है, कि दिल्ली में कॉमनवेल्थ गेम्स की तैयारी के दौरान ही एक बन रहा पुल गिर गया, और २७ घायल हुए।

    इस भ्रष्टाचारी तंत्र ने भारत की इज्जत के साथ भी समझौता किया और भारत माता की इज्जत लुटने से का पूरा इंतजाम कर रखा है, ऐसे हादसे तो हमारे भारत में होते ही रहते हैं, परंतु अभी ये हादसे केंद्र में हैं, क्योंकि आयोजन अंतर्राष्ट्रीय है, अगर यही हादसा कहीं ओर हुआ होता तो कहीं खबर भी नहीं छपी होती और आम जनता को पता भी नहीं होता।

    हमारे यहाँ के अधिकारी बोल रहे हैं कि ये महज एक हादसा है और कुछ नहीं, बाकी सब ठीक है, पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर के कार्यक्रम के आयोजन में इतनी बड़ी लापरवाही ! शर्मनाक है। हमारे अधिकारी तो भ्रष्ट हैं और ये गिरना गिराना उनके लिये आमबात है, पर उनके कैसे समझायें कि भैया ये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नहीं चलता, एक तो बजट से २० गुना ज्यादा पैसा खर्चा कर दिया ओह माफ़ कीजियेगा मतलब कि खा गये, जो भी पैसा आया वो सब भ्रष्टाचारियों की जेब में चला गया। मतलब कि बजट १ रुपये का था, पर बाद में बजट २० रुपये कर दिया गया और १९.५० रुपये का भ्रष्टाचार किया गया है।

    अब तो स्कॉटलेंड, इंगलैंड, कनाडा, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया ने भी आपत्ति दर्ज करवाना शुरु कर दी है, पर हमारे भारत के सरकारी अधिकारी और प्रशासन सब सोये पड़े हैं, किसी को भारत की इज्जत की फ़िक्र नहीं है, सब के सब अपनी जेब भरकर भारत माता की इज्जत के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं, अरे खुले आम आम आदमी के जेब से कर के रुप में निकाली गई रकम को भ्रष्टाचारी खा गये वह तो ठीक है, क्योंकि आम भारतीय के लिये यह कोई नई बात नहीं है, परंतु भारत माता की इज्जत को लुटवाने का जो इंतजाम भारत सरकार ने किया है, वह शोचनीय है, क्या हमारे यहाँ के नेताओं और उच्च अधिकारियों का जमीर बिल्कुल मर गया है।

    आस्ट्रेलिया के एक मीडिया चैनल ने तो एक स्टिंग आपरेशन कर यह तक कह दिया है कि किसी भी स्टेडियम में बड़ी मात्रा में विस्फ़ोटक सामग्री भी ले जाई जा सकती है, और ये उन्होंने कर के बता भी दिया है, विस्फ़ोटक सामग्री दिल्ली के बाजार से आराम से खरीदी जा सकती है और चोर बाजार से भी।

    अगर यह आयोजन हो भी गया तो कुछ न कुछ इसी तरह का होता रहेगा और हम भारत और अपनी इज्जत लुटते हुए देखते रहेंगे, और बाद में सरकार सभी अधिकारियों को तमगा लगवा देगी कि सफ़ल आयोजन के लिये अच्छा कार्य किया गया, और जो सरकार अभी कह रही है कि खेलों के आयोजन के बाद भ्रष्टाचारियों पर कार्यवाही करेगी, कुछ भी नहीं होगा। उससे अच्छा तो यह है कि कॉमनवेल्थ खेल संघ सारी तैयारियों का एक बार और जायजा ले और बारीकी से जाँच करे और सारे देशों की एजेंसियों से सहायता ले जो भी इस खेल में हिस्सा ले रहे हैं, अगर कमी पायी जाये तो यह अंतर्राष्ट्रीय आयोजन को रद्द कर दिया जाये।

    हम तो भारत सरकार से विनती ही कर सकते हैं कि क्यों भारत और भारतियों की इज्जत को लुटवाने का इंतजाम किया, अब भी वक्त है या तो खेल संघ से कुछ ओर वक्त ले लो या फ़िर आयोजन रद्द कर दो तो ज्यादा भद्द पिटने से बच जायेगी, घर की बात घर में ही रह जायेगी।

ग्लोबल वार्मिंग पर केवल नेपाल चिंतित है क्या… कुछ हमारा कर्त्तव्य है या नहीं… क्या हम अकेले कुछ कर सकते है….?

ग्लोबल वार्मिंग पर नेपाल के केबिनेट ने १७२०० फ़ीट ऊँचाई पर माऊँट एवरेस्ट काला पत्थर पर बैठक कर दुनिया का ध्यान अपनी और खींचा, दुनिया की सर्वोच्च शिखर चोटी के आधार शिविर के पास स्यांगबोचे में एक संवाददाता सम्मेलन में घोषणा पढ़ी, जिसके मुताबिक आपिनामा-गौरीशंकर क्षेत्र को नया संरक्षण क्षेत्र घोषित किया गया है। वहाँ पर उन्होंने संकेत दिया कि जलवायु परिवर्तन का मुद्दा न केवल पर्वतीय देशों और समुद्र तटों पर स्थित देशों से जुड़ा है बल्कि आम वैश्विक समस्या है।
नेपाल के प्रधानमंत्री ने कहा कि “हम दुनिया को यह संदेश देने आये हैं कि जलवायु परिवर्तन हिमालयी पट्टी और निचले इलाकों के १.३ अरब लोगों को प्रभावित करने जा रहा है।
हिमालय के ग्लेशियर कुछ दशकों में गायब हो सकते हैं और इससे एशिया के बड़े हिस्से को सूखे का सामना करना पड़ सकता है, जहाँ लाखों लोग हिमालय से निकलने वाली नदियों के ऊपर निर्भर करते हैं।
पर हम क्या कर रहे हैं, क्या हमें ग्लोबल वार्मिंग की तनिक भी चिंता है, लोग दशकों से बोल रहे हैं कि मुंबई डूब जायेगी पर इसके लिये किसी ने क्या कभी कुछ किया नहीं… किसी की इच्छाशक्ति ही नहीं है। क्या हम अकेले कुछ कर सकते हैं जिससे ग्लोबल वार्मिंग को रोकने में कुछ मदद मिले…. ।

फ़ोरेनरों को उनके देश से पढ़ा के भेजा जाता है कि “भारतीय चोर होते हैं”, और वे खुद…

    क्या आपने कभी सुना है कि भारत का वीसा मिलने के बाद फ़ोरेनरों के लिये उनका दूतावास एक मोडरेशन क्लास लेता है और उसमें भारत में बरती जाने वाली सावधानियों के बारे में बताया जाता है और लगभग यह वाक्य हर बार दोहराया जाता है “कि भारतीय चोर होते हैं..”, और वे खुद..

    हम कल का टाईम्स ऑफ़ इंडिया आज सुबह पखाने में पढ़ रहे थे क्योंकि हमारा समाचार पत्र थोड़ा लेट आता है और हमको सुबह उठकर एकदम प्रेशर बन जाता है, तो कुछ समाचार वहीं पर इत्मिनान से पढ़ लेते हैं।

    तो उसमें एक खबर थी कि वकील अपना फ़ोन एटीएम में भूल गया और फ़ोरेनर ने उसे उठा लिया।

   हाईकोर्ट वकील एटीएम में पैसे निकालने गया और अपना कीमती ब्लैकबैरी मोबाईल एटीएम के ऊपर ही भूल गया, जब १५ मिनिट बाद उसे ध्यान आया कि मोबाईल तो एटीएम में ही भूल गया हूँ, लेकिन वापिस आने पर मोबाईल वहाँ नहीं मिला। उन्होंने पहले पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई और फ़िर एचडीएफ़सी बैंक के वीडियो क्लिप देखने पर पता चला कि उनके बाद तीन फ़ोरेनरों ने एटीएम का उपयोग किया था और उसमें से एक उनका मोबाईल उठा कर ले गया मतलब कि चोरी की। वकील ने एचडीएफ़सी बैंक के चैन्नई ऑफ़िस से जानकारी निकाली तो पता चला कि चोर आस्ट्रेलिया का है। वहीं से उनको उसका नाम और बैंक एकाऊँट नंबर भी मिल गया जब मोबाईल को ट्रेस किया गया तो पता चला कि अभी वह दिल्ली में है, उससे ईमेल पर अपील भी की है कि मोबाईल वापिस दे दे और आस्ट्रेलियन दूतावास को भी ईमेल कर शिकायत कर दी गई है, पर अभी तक कुछ नहीं हुआ है, कोलाबा पुलिस मामले की छानबीन कर रही है।

    तो इस बात से ये तो साबित हो गया कि मुफ़्त की चीज सभी को अच्छी लगती है, चोरी के कीटाणु सभी में होते हैं बस किसी के एक्टीवेट होते हैं किसी के नहीं।

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मैं रोज आटो से करोलबाग से कनाटप्लेस अपने ओफ़िस जाता हूँ तो पंचकुइयां रोड और कनाटप्लेस की रोड जहाँ मिलती है, उसके थोड़े पहले ही चरसियों की भीड़ फ़ुटपाथ पर लगी रहती है। खुलेआम भारत की राजधानी दिल्ली में चरस का सेवन कर रहे हैं पर कोई भी किसी भी तरह की कार्यवाही करने को तैयार नहीं, कारण शायद यह कि उनसे कमाई नहीं हो सकती !!

वैसे तो रास्ते में बहुत सारी ओर भी चीजें पड़ती हैं रास्ते में, हनुमानजी का बहुत बड़ा मंदिर, थोड़ी ओर आगे जाने पर कबूतरों को दाने खिलाते लोग और कोने में श्मशानघाट और भी बहुत कुछ। पर बरबस ही निगाहें रुक जाती हैं चरसियों को देखकर जब कनाटप्लेस की रेडलाईट पर आटो रुकता है। ये लोग भिखारी, कचरा बीनने वाले जैसे लगते हैं, परंतु ये खुलेआम चरस का सेवन करते हुए दिख जायेंगे कानून का मजाक बनाते हुए। किसी भी कानून पालन करवाने वाले व्यक्ति को ये लोग नहीं दिखते ?

ये लोग वहाँ मैली कुचैली चादर ३-४ के झुँडों में ओढ़कर चरसपान करते रहते हैं और जैसा कि आटो वाले बताते हैं कि यही लोग रात के अँधेरे का फ़ायदा उठाकर लूटपाट भी करते हैं और पुलिस वाले इनको इसलिये पकड़ के नहीं ले जाते हैं कि इनसे उन्हें कोई भी (धन संबंधी) फ़ायदा नहीं होता है। उल्टा उनकी सेवा करना पड़ती है।

दिल्ली को इन चरसियों से मुक्त करवाने के लिये मेरा ब्लाग पढ़कर कोई बंधु जो यह अधिकार रखता हो या मीडिया में हो तो कृप्या सहयोग करें और दिल्ली को सुँदर बनाने में योगदान दें।