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मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – ४ समाप्त (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 4)

भाग – १, भाग – २, भाग – ३

     काम निपटाने के बाद वापिस फ़ुटपाथों से होते हुए चर्चगेट स्टेशन की ओर जाने लगे, तो फ़ुटपाथों पर पटरी लगाकर बहुत से लोग बैठे हुए थे, सब अलग अलग तरह की चीजें बेच रहे थे, चीजें वहीं होती जिसे देखकर मन ललचा जाये या जिसकी जरुरत पड़ती रहती हो। और दाम भी इतना कम कि व्यक्ति सोच भी न पाये हाँ मोलभाव तो हर जगह होता है, उसमें महारत होना चाहिये। हम भी चाईनीज खिलौने वाले के पास रुके, बेटेलाल बहुत दिनों से कार की जिद कर रहे थे, कि एक कार और चाहिये, जी हाँ एक और कार क्योंकि एक रिमोट कंट्रोल कार (फ़रारी) पहले ही दिला चुके हैं, वहाँ एक टैंक के रुप वाली कार अच्छी लगी, नैनो भी थी, पर टैंक ज्यादा अच्छा लगा, वह अपने आप चारों तरफ़ अलटता पलटता भी था, दो बैटरी से चलता था, हमें बोला ८० रुपये, हमने कहा सही दाम लगा लो हमें लेना है, भाव नहीं पूछना है, वैसे हम भाव कम ही करते हैं, सामने वाला आदमी अपने आप ही ठीक दाम लगा ले तो भाव करने की जरुरत ही महसूस नहीं होती है। बस उसने हमें बोला कि आखिरी दाम ७० रुपये होगा, तो हम चुपचाप आगे निकल लिये, चर्चगेट स्टेशन के पास पहुँचे तो वहाँ खिलौने वाला एक और दिखा उससे पूछा कि कितना लोगे इस टैंक का वह हमें बोला ६० हम बोले कि ६० में दो सैल भी डालकर दे दो। उसने बिना ना नुकुर करे चुपचाप सैल डाले, गाड़ी चैक की और वापिस डब्बे में गाड़ी पैक करके हाथ में धर दी। हमने रकम चुकाई और चले लोकल पकड़ने के लिये।

     स्टेशन पर पहुँचे तो देखा कि ऑटोमेटिक टिकिट वेन्डिंग मशीन बंद पड़ी है, तो टिकिट खिड़की की और १० रुपये लेकर बढ़ लिये, एक बोरिवली का टिकिट लिया और १ रुपया वापिस जेब में रखकर मुड़े ही थे कि देखा कि सामने की तरफ़ दो टिकिट मशीनें लगी हुई थीं, हम रेल्वे प्रशासन को कोसते हुए लोकल की तरफ़ बड़ चले।

चर्चगेट     चारों प्लेटफ़ॉर्म पर बोरिवली की लोकल के बोर्ड लगे थे, दो बोर्ड पर स्लो थी और दो पर फ़ास्ट, हमने ४ नंबर प्लेटफ़ार्म वाली लोकल पकड़ी क्योंकि उस समय ६.४२ हो रहे थे और वह ६.५२ की फ़ास्ट लोकल थी, तो बैठने की जगह आराम से मिल जाती, और हम आराम से बैठ भी गये, पहले कूपे में ही, क्योंकि हमें कांदिवली उतरना था और वहाँ पुल पहले कूपे के पास में ही आता है। भूख भी लग रही थी, सोचा कि कोई भेलपुरी वाला आता होगा तो ले लेंगे, परंतु किस्मत कि कोई भेलपुरी वाला नहीं आया, और हम वहीं बैठे हुए सफ़र शुरु होने का इंतजार करने लगे। जैसे जैसे लोकल के जाने का समय नजदीक आता जा रहा था, वैसे ही भीड़ का दबाब बड़ने लगा।

चर्चगेट स्टेशन     बाहर मतलब प्लेटफ़ॉर्म पर और अंदर लोकल में भी लगातार २६/११ के मद्देनजर सतर्कता बरतने की सलाह दी जा रही थी, अगर कोई भी संदिग्ध वस्तु दिखे तो फ़ौरन वर्दी में गश्त कर रहे पुलिस अधिकारियों को जानकारी दें। इस तरह से आतंक के विरुद्ध सघन अभियान चलाया जा रहा था।

    हम फ़िर अपना कानकव्वा (हैंड्सफ़्री) मोबाईल में लगाकर एफ़.एम. चैनल सुनने लगे, साथ ही कुछ फ़ोन करने थे, जो करे पर लोकल में होने की वजह से आवाज साफ़ नहीं थी, आवाज कट रही थी, और काल ड्राप हो रही थी, हमने अपने मित्र को बोला कि बाद में काल करते हैं, हालांकि वह काल अभी तक नहीं कर पाये हैं, केवल आलस्य के कारण। लोकल ट्रेन में फ़ोन की आवाज इसलिये साफ़ नहीं आती है, क्योंकि हाई वोल्टेज वायर ट्रेन के पास होते हैं।

    तकरीबन ४५ मिनिट में हम कांदिवली पहुँच गये, फ़िर पुल पारकर बस स्थानक की ओर बड़ चले, वहाँ फ़िर लाईन लगी हुई थी, जाते ही २ मिनिट में बस आ गई, मुंबई में सबसे अच्छी बात है कि लोग अनुशासन से रहते हैं, और जो इसका पालन नहीं करता है, उसे सिखा दिया जाता है, और यह अनुशासन हर शहर के लिये जरुरी होता है। बस का टिकिट लिया ७ रुपये का और दूरी होगी मुश्किल से ३-४ किमी., कैसी विसंगती है कि लोकल में ९ रुपये में हम ३५ किमी. आ गये और बस में ७ रुपये में ३-४ किमी., फ़िर भी बेस्ट बोलती है कि किराया और बढ़ाना चाहिये। आखिरकार दिनभर की भागदौड़ के बाद घर पहुँच गये लगभग रात के ९.३० बजे।

मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – ३ (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 3)

भाग – १, भाग – २

    लोकल आखिरकार चर्चगेट स्टेशन पर पहुँच ही गयी, पर लोकल से उतरना भी आसान नहीं है, क्योंकि मैं चर्चगेट पहुँचा था लगभग शाम के ५.४० बजे और शाम ५.०० बजे से रात ९-९.३० बजे तक वहाँ से बोरिवली या विरार के लिये आने वाले लोगों की भीड़ लगी रहती है, और जैसे ही लोकल रुकती है, वैसे ही सीट के लिये लोग लोकल में टूट पड़ते हैं, घमासान मच जाता है, उतरने वाले यात्री चुपचाप दुबके हुए खड़े होते हैं, जब भीड़ का वेग कम हो जाता है तब उतरते हैं, अगर कोई नया व्यक्ति मुंबई में आया होता है और उसे यह सब पता नहीं होता है तो या तो कोई बता देता है और वह चुपचाप वैसा ही करता है नहीं तो बेचारे का मुँह ही टूटता है, और लोगों की गाली अलग खाता है।

    चर्चगेट स्टेशन पर कोई गेट नहीं है बस स्टॆशन का नाम चर्चगेट है, हम बाहर निकल रहे थे, और भीड़ अपने पूरे वेग से लोकल पकड़ने की और प्लेटफ़ॉर्म की और बड़ रही थी, हमें भीड़ को चीरते हुए आगे बड़ना पड़ रहा था। फ़िर उल्टे हाथ की ओर का सबवे पकड़कर सीधे अहिल्याबाई होलकर बस स्थानक तक पहुँचे, इसी सबवे में सड़क की एक लड़ाई का शूट हुआ था, जिसमें संजय दत्त ४-५ गुंडों को मारते हैं।

    सबसे पहले हमने ५ रुपये का छोटा ग्लास गन्ने का रस पिया, लोग कहते हैं कि यह हाईजीनिक नहीं है, परंतु अगर मन हो तो वह कर ही लेना चाहिये, फ़िर बाद में जो होगा वो देखेंगे, परंतु अगर कुछ होना होता तो शायद बहुत सारे लोगों को हो गया होता। फ़िर अपने नोकिया ई ६३ पर गूगल मैप्स खोला और डी.एन.रोड जहाँ जाना था, रास्ता देखा और चल पड़े, वैसे तो फ़ोर्ट का पूरा एरिया पैदल कई बार नापा है, परंतु इस बार कई दिनों बाद जाना हुआ था, तो कहीं गलत रास्ते पर न पहुँच जायें इसलिये गूगल मैप की सहायता ले ही ली।

    बीच में २-३ सिग्नल भी थे जहाँ पर सिगनल लाल बत्ती होने तक लगातार वाहन अपनी पूरी रफ़्तार से चौराहे पार करते रहते हैं, और लाल बत्ती होते ही गजब की रफ़्तार से ब्रेक भी लगा देते हैं। यह देखना भी किसी रोमांच से कम नहीं होता है, बीच में ही फ़ैशन स्ट्रीट भी पड़ती है, जहाँ कम बजट में अच्छी चीजें मिल जाती हैं, मोल भाव करना ही होता है, बस आपको मोलभाव करने में महारत होनी चाहिये। फ़िर पहुँचे हुतात्मा चौक, जिसे शायद हार्निमेन सर्किल और फ़्लोरा फ़ाऊँटेन भी कहा जाता है, जहाँ चारों तरफ़ पुरानी इमारते दिखेंगी परंतु उसमें कार्यालय सारे अंतर्राष्ट्रीय बैंक या कंपनी के होंगे, बहुत सारी भारतीय कंपनियों के भी कार्यालय यहाँ हैं।

डबल डेकर बस     वैसे जितने खुले फ़ुटपाथ मुंबई के इस क्षैत्र में हैं उतने शायद ही कहीं और होंगे। यह फ़ुटपाथों का स्वर्ग है, यहाँ पैदल चलने का अपना अलग ही मजा है, पुरानी इमारतें देखते जाओ, चमकती सड़कों पर डबल डेकर बसें और पुरानी फ़िएट टैक्सी इसका सुखद अहसास बड़ा देती है। डी.एन. रोड पर पहुँचकर जहाँ हमें जाना था, वह इमारत देखते ही याद आ गई, और फ़िर हम अपना काम निपटाने चल दिये।

जारी…

मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – २ (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 2)

    जब हमने टिकिट ले लिया और अपनी निगाहें उस टीवी स्क्रीन पर जमा रखी थीं फ़िर जब पुल पर आये तो वहाँ पर भी इंडिकेटर में हरेक प्लेटफ़ॉर्म के बारे में सूचना होती है, पहले हम २ नंबर प्लेटफ़ॉर्म की ओर रुख कर रहे थे, परंतु तभी देखा कि ४ नंबर पर फ़ास्ट आ रही है, तो उधर की तरफ़ दौड़ पड़े क्योंकि केवल १ मिनिट ही बचा था। समय से लोकल आ गई और चूँकि यह हम उल्टी तरफ़ जा रहे थे, इस तरफ़ के लिये भीड़ सुबह मिलती है तब लोकल में चढ़ना किसी युद्ध से कम नहीं होता है। मालाड़ से आगे वाली तरफ़ के कूपे में ही चढ़ लिये, जिससे चर्चगेट पर ज्यादा दूर नहीं चलना पड़े, बताओ चलने में भी मन में कितना आलस्य भरा होता है। पर आलस्य के साथ साथ समय की बचत भी कम से कम २-४ मिनिट की ही सही।
    मजे में खिड़की के पास की सीट पर बैठ गये और पहले कुछ जरुरी फ़ोन लगाये फ़िर अपने कानकव्वे को फ़ोन में लगाकर एफ़.एम. सुनने लगे।
    एफ़.एम. के भी १२ चैनल आते हैं, अब हम तो कभी कभी सुनने वाले हैं तो बस जहाँ गाना अच्छा होता रुक जाते या फ़िर जो बतौड़ कर रहा होता वहाँ, इस तरह से ५० मिनिट के सफ़र में जाने कितनी बार चैनल बदल डाले होंगे। एफ़.एम. के किसी चैनल पर ही एक रजनीकांत स्पेशल चुटकुला सुना –
    “बचपन में रजनीकांत मुंबई में खेलने आये थे, और अपना एक खिलौना यहीं भूल गये थे, जिसे लोग आजकल एस्सेल वर्ल्ड के नाम से जानते हैं”|
    वर्षों पहले जब हम दिल्ली में थे तब केवल एफ़.एम. का ही सहारा होता था और दिल्ली में उस समय २-३ एफ़.एम. के चैनल ही आते थे, पर आजकल १२ चैनल यहाँ मुंबई में हैं तो दिल्ली में भी कम तो नहीं होंगे।
    लोकल गोरेगाँव, जोगेश्वरी, अंधेरी, बांद्रा, दादर, मुंबई सेंट्रल, चर्चगेट रुकी। बीच के स्टेशन पर नहीं रुकी क्योंकि फ़ास्ट थी लगभग हर तीन छोटे स्टेशन के बाद एक बड़ा जंक्शन जैसे बड़ा स्टेशन आता है। अगर किसी छोटे स्टेशन पर उतरना हो तो स्लो लोकल पकड़ना होती है। बीच में चर्नी रोड़ और मरीन लाईन्स से दायीं तरफ़ दरिया दिखता है, फ़िर चर्चगेट आने वाला होता है तो वानखेड़े स्टेडियम दिखता है, उस दिन वहाँ वेल्डिंग का काम चल रहा था, प्रतीत होता था कि स्टेडियम का जीर्णोद्धार हो रहा है, ये तो बाद में पता चलेगा कि फ़ायदा अधिकारी का हुआ या जनता का।
जारी…

मुंबई का सफ़र २३/११/२०१० भाग – १ (Mumbai Travel 23/11/2010 – Part – 1)

    किसी निजी कार्य की वजह से कई दिनों बाद वापिस मुंबई जाना हुआ, जी हाँ मुंबई जो कि माटुँगा रोड से कोलाबा तक कहलाता है (अगर मैं गलत हूँ तो सुधारियेगा)। मैं रहता हूँ कांदिवली में और कार्यालय है मालाड़ में, जो कि मुंबई महानगरी के उपनगर कहलाते हैं। जब बोरिवली या कांदिवली से लोकल ट्रेन में चढ़ेंगे तो पायेंगे कि कई लोग फ़ोन पर बात करते हुए कह रह होंगे कि आज मुंबई जा रहा हूँ। बाहर से आने वाला व्यक्ति तो बिल्कुल चकित ही होगा कि मुंबई में रहकर भी बोल रहे हैं, कि “मुंबई जा रहे हैं”, वैसे यहाँ अगर चर्चगेट, फ़ोर्ट, नरीमन पाईंट या कोलाबा की तरफ़ जा रहे हैं तो लोग यह भी कहते हुए पाये जाते हैं कि “टाऊन” जा रहा हूँ।
    कार्यालय से चर्चगेट का सफ़र सबसे पहले शुरु हुआ ऑटो से, हम उतरे मालाड़ एस.वी.रोड याने कि स्वामी विवेकानन्द रोड जो कि बोरिवली से शुरु होकर लोअर परेल तक है। और हमेशा इस पर जबरदस्त ट्रॉफ़िक रहता है, क्योंकि इस सड़क की चौड़ाई बहुत ही कम है और वाहनों का दबाब ज्यादा, हालांकि लिंक रोड और पश्चिम महामार्ग (Western Express High Way) से काफ़ी सहारा है, नहीं तो अगर एस.वी.रोड पर फ़ँस गये तो बस फ़िर तो गई भैंस पानी में।
    एस.वी.रोड पर ऑटो से उतरकर मालाड़ स्टेशन शार्टकट से निकले। बहुत कम ऑटो स्टेशन तक जाते हैं क्योंकि वहाँ ट्रॉफ़िक ज्यादा होता है, ऑटो में बैठने वाला भी सोचे कि इससे तो मैं पैदल ही चलकर चला जाता। टिकिट खिड़की पहले माले पर है, गोरेगाँव की तरफ़ वाली, कांदिवली की तरफ़ वाली टिकिट खिड़की के लिये चढ़ना नहीं पड़ता। अपने पर्स से रेल्वे का कार्ड निकाला और ऑटोमेटिक टिकिट वेन्डिंग मशीन पर जाकर अपना टिकिट लिया, चर्चगेट का। आमतौर पर लोकल के टिकिट के लिये लंबी लाईन होती है और कम से कम १५-२० मिनिट लगते ही हैं, अगर व्यक्ति किसी और शहर से आ रहा हो तो सोचेगा कि कम से कम २ घंटे लगेंगे परंतु यहाँ उतनी ही लंबी लाईन १५-२० मिनिट में निपट जाती है, रेल्वे टिकिट खिड़की पर बैठने वाले कर्मचारी अपने इस कार्य में सिद्धहस्त हैं। आजकल तो कंप्यूटर से टिकिट निकालते हैं, तो प्रिंटर को जितना समय लगता है प्रिंट निकालने में उतना ही, नहीं तो इसके पहले तो जब ये खिड़्कियाँ कम्प्यूटरीकृत नहीं हुई थीं, इससे भी जल्दी टिकिट मिलती थी, तब इतनी लाईन को मात्र १० मिनिट लगते थे, पहली बार कम्प्यूटरीकरण के कारण देरी देखी।
    प्लेटफ़ॉर्म नंबर २ और ४ पर चर्चगेट की और जाने वाली लोकल आती हैं, और जहाँ से आप टिकिट लेते हैं, वहीं पर टीवी स्क्रीन पर समय के साथ कौन से प्लेटफ़ार्म नंबर पर लोकल आने वाली है और फ़ास्ट है या स्लो, इतनी सब जानकारी वहाँ पर उपलब्ध होती है। इस जानकारी को देखकर आप अपना निर्णय एकदम ले सकते हैं।

मुंबई की बस के सफ़र के कुछ क्षण..आगे..३ (श्रंखला पद्धति से टिकट मंगवाया गया) (Mumbai experience of Best Bus)

    आज घर से निकलने में तनिक १-२ मिनिट की देर हो गई, तो ऐसा लगा कि कहीं बस न छूट जाये, चूँकि  मुंबई की बस पीछे डिपो से बनकर चलती है, इसलिये हमेशा समय पर आती है। तो हम बिल्कुल मुंबईया तेज चाल से चलने लगे, जिससे बस मिल जाये और वाकई रोज जो दूरी हम ४ मिनिट में पूरी करते थे वह हमने लगभग ३ मिनिट में पूरी कर ली।

    बस स्टॉप से निकल चुकी थी, जैसा कि हमको अंदेशा था, परंतु हमको आता देख ड्राईवर ने आँखों से ही इशारा किया कि आगे के दरवाजे से ही चढ़ जाओ, पर हमें संकोच हुआ और हम पीछे के दरवाजे की ओर देखने लगे, तो ड्राईवर को लगा कि संकोच कर रहे हैं तो हाथों से इशारा कर बोला कि इधर से ही चढ़ जाईये।

    इतनी देर में हमें आगे से किनको चढ़ना चाहिये उसकी सूचना जो कि बस में लगी रहती है, आँखों के सामने घूम रही थी, पर फ़िर भी ड्राईवर जो कि अब हमें पहचानने लगा था क्योंकि रोज ही हम उनको नमस्ते करते थे, तो उन्होंने अपनी दोस्ती आज निभाई थी।

    फ़िर ध्यान आया कि मास्टर तो पीछे है, हमने जेब से पैसे निकाले और श्रंखला पद्धति से टिकट मंगवाया गया, तो हमें याद आया कि दिल्ली में भी डीटीसी की बस में ऐसे ही टिकट मंगवाते थे। आज हम जिस सीट के आगे खड़े थे वह थी अपंगों वाली सीट, थोड़ी देर में ही वह खाली हो गई, तो हम बैठ लिये कि अगर कोई सही उत्तराधिकारी आयेगा तो खुद ही उठ जायेंगे, आगे स्टॉप पर ही एक ज्येष्ठ सज्जन आये तो हम उठने लगे तो बोले नहीं बैठिये, हम बोले नहीं आप बैठिये, हालांकि ज्येष्ठ की परिभाषा बस में ६० वर्ष से अधिक उम्र की होती है, परंतु सफ़ेद बाल को देखकर हम उठ ही गये, हालांकि थोड़े थोड़े हमारे भी बाल सफ़ेद हैं, परंतु फ़िर भी उठ ही गये।

    उन सज्जन ने बैठते ही, अपनी पाकिट में से तीन गुटके निकाले पहले पढ़ा हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा फ़िर गौरी चालीसा (नाम ठीक से याद नहीं), हमारा भी साथ में हनुमान चालीसा हो गया, हालांकि उनका गुटका गुजराती में था, पर हमें याद था इसलिये कोई परेशानी नहीं हुई।

    ड्राईवर को फ़िर हँसते हुए नमस्ते करते हुए बस से उतर कर आज फ़िर बिल्कुल अपने समय से ऑफ़िस पहुँच गये। लालबागचा राजा के मन्नत के दर्शन करने के बाद हमारे क्यूबिकल के तीन लोग आये थे पूरे १७ घंटे लाईन में लगने के बाद उनको दर्शन हुए थे और वहाँ का प्रसाद भी हमें मिल गया।

मुंबई की बस के सफ़र के कुछ क्षण… आगे..२.. गरोदर स्त्रियाँ (Mumbai experience Best Bus)

    पिछली पोस्ट पर अरविन्द मिश्रा जी ने पूछा था कि गरोदर स्त्रियाँ कौन सी प्रजाति होती हैं, गर्भवती स्त्री को मराठी में गरोदर कहते हैं, सच कहूँ तो इसका मतलब तो मुझे भी नहीं पता था और न ही जानने की कोशिश की थी, परंतु अरविन्द जी ने पूछा तो ही पता किया।

    इसका मतलब जो स्त्रियाँ आगे के दरवाजे से बेस्ट की बसों में चढ़ती हैं, मतलब जवान स्त्रियाँ वे गरोदर होती हैं, बहुत कठिन है यह भी कहना, खैर सरकार ने जनता को सुविधा देने के लिये नियम बनाया है तो जो स्त्री गरोदर नहीं है वह भी आगे के दरवाजे से चढ़कर नियम तोड़ती हैं, बेचारा ड्राईवर भी क्या बोलेगा। नारी शक्ति से तो सभी का परिचय है। इसलिये पुरुष बेचारा अपनी शक्ति को छिपा लेता है।

    खैर छोड़िये नहीं तो अभी नारी शक्ति वाली आती होंगी काली पट्टी लिये और झाड़ू हाथ में लिये… हम क्या कहना चाह रहे हैं और वे क्या समझकर हमारी लू उतार दें।

    तो नियम केवल पुरुषों के लिये होते हैं, यह बात तो तय है, हमने बेस्ट की बस में चढ़कर जाना है। वैसे तो यह हम पहले से ही जानते हैं परंतु यह बात बेस्ट की बसों में चढ़कर कन्फ़र्म हो गई है।

    आज भी बस के लिये हम तो समय पर अपने स्टॉप पर पहुँच लिये परंतु बस थी कि आ ही नहीं रही थी, समय होता जा रहा था और बैचेनी बढ़ती जा रही थी, फ़िर १० मिनिट लेट बस आई, और हम चढ़ लिये, वैसे तो हमारे स्टॉप से चढ़ने वाले ३-४ लोग ही होते हैं, परंतु बस ठसाठस सी होती है, आखिरी में चढ़े यात्री को डंडा पकड़कर लटकना ही पड़ता है और १-२ मिनिट में ही बस के अंदर हो जाता है। आज आखिरी यात्री हम थे तो हमने जैसे ही डंडा पकड़ा देखा कि बेचारा डंडा भी जंग लगकर सड़ गया है तो उल्टे हाथ की तरफ़ वाला डंडा पकड़कर अंदर हो लिये।

    फ़िर वही राम कहानी सीट के पास खड़े होकर सफ़र करने की, मास्टर और ड्राईवर आज दोनों नये थे, ३-४ लड़के पास खड़े होकर बतिया रहे थे, और कहीं साक्षात्कार देने जा रहे थे। तो उनके डेबिट और क्रेडिट के सिद्धातों को सुन रहा था, बेचारे बोल रहे थे जो पढ़ा इतने साल सब पानी में, व्यवहारिक दुनिया में तो सब उल्टा होता है। अब बेचारा इंटर्व्यूअर भी क्या करे, जो उसे आता होगा वही तो पूछेगा ना, स्स्साले को क्या डेबिट और क्रेडिट भी नहीं पता होता है, और इतनी पढ़ाई करने के बाद हमें क्या समझा है कि हमें ये भी पता नहीं होगा। चल छोड़ न यार आज देखते हैं, कि आज के इंटर्व्यू में क्या होता है।

    तभी पीछे से एक लड़की धक्के मारते हुए आगे की ओर निकल गई और जबरदस्ती उल्टी हाथ की सीट की तरफ़ खड़ी हो गई, जबकि सीधे हाथ की ओर स्त्रियों की आरक्षित सीट होती है, और बड़ी आसानी से सीट मिल भी जाती है, कोई न कोई आरक्षित वर्ग उतरता रहता है और चढ़ता रहता है, और अगर नहीं होता है तो सीट बेचारी खाली ही जाती है, कोई नहीं बैठता, कब कौन कहाँ से आरक्षित वर्ग आ जाये कुछ बोल नहीं सकते।

    अब वह लड़की जहाँ खड़ी थी, थोड़े ही देर में वही सीट से बंदा उतर गया और आम आदमी की सीट आरक्षित वर्ग ने हथिया ली, और सीधे हाथ की एक सीट खाली पड़ी आरक्षित वर्ग के यात्री का इंतजार कर रही थी, हमें बहुत ही कोफ़्त हो रही थी, पर क्या करते चुपचाप शक्ति के आगे नतमस्तक थे, आखिर सरकार ने नियम बहुत सोच समझकर बनाया होगा।

    खैर जैसे तैसे करके अपना स्टॉप आया और बिल्कुल टाईम पर उतर गये, चले भले ही १० मिनिट लेट थे परंतु पहुँच समय पर ही गये, ड्राईवर ने क्या गाड़ी भगाई, बस मजा ही आ गया।

    ऑफ़िस पहुँचे तो सहकर्मियों से बात हुई, बताया गया कि वे लोग लालबागचा राजा के दर्शन करके आये हैं, शनिवार की रात को, और एक सहकर्मी से सिद्धिविनायक का प्रसाद भी खाने को मिला। दिन बढ़िया रहा।

मुंबई की बस के सफ़र के कुछ क्षण… आगे …१..सीट पर कब्जा कैसे करें (Mumbai Experience of Best Bus)

पिछली पोस्ट को ही आगे बढ़ाता हूँ, एक सवाल था “कंडक्टर को मुंबईया लोग क्या कहते हैं।” तो जबाब है – “मास्टर” ।

अगर कभी टिकट लेना हो तो कहिये “मास्टर फ़लाने जगह का टिकट दीजिये”, बदले में मास्टर अपनी टिकट की पेटी में से टिकट निकालेगा, पंच करेगा और बचे हुए पैसे वापिस देगा, फ़िर बोलेगा “पुढ़े चाल” मतलब आगे बढ़ते जाओ।

जैसे हमारे देश में आरक्षण है वैसे ही बेस्ट बस में आरक्षण को बहुत अच्छॆ से देखा जा सकता है, ४९ सीट बैठने की होती है, जिसमें उल्टे हाथ की पहली दो सीटें विकलांग और अपाहिज और फ़िर उसके बाद की दो सीट ज्येष्ठांचा लोगों के लिये आरक्षित होती हैं, सीधे हाथ की तरफ़ तो महिलाओं के लिये ७ सीटें आरक्षित होती हैं। याने कि लगभग ५०% आरक्षण बस में, जैसे हमारे देश में।

अनारक्षित सीटों पर महिलाओं और ज्येष्ठ लोगों को बैठने से मनाही नहीं है, अब बेचारा आम आदमी इस आरक्षण में पिस पिस कर सफ़र करता रहता है।

अभी कुछ दिनों पहले एक ए.सी. बस में चढ़े तो अनारक्षित सीटों पर महिलाएँ काबिज थीं और महिलाओं की आरक्षित सीटें खाली थीं, सब महिलाएँ भी पढ़ी लिखी सांभ्रांत परिवार की थी जिन्हें शायद महिलाओं के लिये चिन्हित सीटों की समझ तो होगी ही, परंतु फ़िर भी न जाने क्यों, आम आदमी की सीट पर कब्जाये बैठी थीं, हमारे जैसे ३-४ आमजन और खड़े थे, मास्टर को बोला कि इन आरक्षण वर्ग को इनकी सीटों पर शिफ़्ट कर दें तो हम भी बैठ जायेंगे, बेचारा मास्टर बोला कि इनको कुछ बोलने जाऊँगा तो ईंग्रेजी में गिटीर पिटिर करके अपने को चुप करवा देंगी, और ये तो रोज की ही बात है।

अब बताईये महिला शक्ति से कोई उलझता भी नहीं, वे सीटें खाली ही रहीं जहाँ तक कि हमें उतरना था, और उन सीटों पर बैठना हमें गँवारा न था, कि कब कौन सी महिला कौन से स्टॉप पर चढ़ जाये और अपनी आरक्षित सीट की मांग करने लगे, इससे बेहतर है कि खड़े खड़े ही सफ़र करना।

जब महिलाओं को समान अधिकार दिये जा रहे हैं, तो ये आरक्षण क्यों, फ़िर भले ही वह सत्ता में हो या फ़िर बस में या फ़िर ट्रेन में…। खैर हम तो ये मामला छोड़ ही देते हैं, भला नारी शक्ति से कौन परिचित नहीं है.. और फ़िर इस मामले में सरकार तक गिर/झुक जाती हैं… तो हम क्या चीज हैं।

बेस्ट की बस में निर्देशित होता है कि आगे वाले दरवाजे से केवल गरोदर स्त्रियाँ, ज्येष्ठ नागरिक और अपंग ही चढ़ सकते हैं। वैसे कोई कुछ भी कहे बेस्ट की बसें और उसकी सर्विस बेस्ट है।

यह वीडियो देखिये जिसमें प्रशिक्षण दिया जा रहा है कि बेस्ट की बसों में कैसे सीट पर कब्जा किया जाये –

मुंबई की बस के सफ़र के कुछ क्षण (Mumbai experience of BEST Bus)

    कुछ दिनों से बस से ऑफ़िस जा रहे हैं, पहले पता ही नहीं था कि बस हमारे घर की तरफ़ से ऑफ़िस जाती है। बस के सफ़र भी अपने मजे हैं पहला मजा तो यह कि पैसे कम खर्च होते हैं, और ऐसे ही सफ़र करते हुए कितने ही अनजान चेहरों से जान पहचान हो जाती है जिनके नाम पता नहीं होता है परंतु रोज उसी बस में निर्धारित स्टॉप से चढ़ते हैं।

    पहले ही दिन बस में बैठने की जगह मिली थी और फ़िर तो शायद बस एक बार और मिली होगी, हमेशा से ही खड़े खड़े जा रहे हैं, और यही सोचते हैं कि चलो सुबह व्यायाम नहीं हो पाता है तो यही सही, घर से बस स्टॉप तक पैदल और फ़िर बस में खड़े खड़े सफ़र, वाह क्या व्यायाम है।

    बस में हर तरह के लोग सफ़र करते हैं जो ऑफ़िस जा रहे होते हैं, स्कूल कॉलेज और अपनी मजदूरी पर जा रहे होते हैं, जो कि केवल उनको देखने से या उनकी बातों को सुनने के बाद ही अंदाजा लगाया जा सकता है।

    कुछ लोग हमेशा बैठे हुए ही मिलते हैं, रोज हुबहु एक जैसी शक्लवाले, लगता है कि जैसे सीट केवल इन्हीं लोगों के लिये ही बनी हुई है, ये रोज डिपो में जाकर सीट पर कब्जा कर लेते होंगे।

    बेस्ट की बस में सफ़र करना अपने आप में रोमांच से कम भी नहीं है, कई फ़िल्मों में बेस्ट की बसें बचपन से देखीं और अब खुद ही उनमें घूम रहे हैं।

    बेस्ट की बसों में लिखा रहता है लाईसेंस बैठक क्षमता ४९ लोगों के लिये और २० स्टैंडिंग के लिये, परंतु स्टैंडिंग में तो हमेशा ऐसा लगता है कि अगर यह वाहन निजी होता तो शायद रोज ही हर बस का चालान बनता, कम से कम ७०-८० लोग तो खड़े होकर यात्रा करते हैं, सीट पर तो ज्यादा बैठ नहीं सकते परंतु सीट के बीच की जगह में खड़े लोगों की ३ लाईनें लगती हैं।

बातें बहुत सारी हैं बेस्ट बस की, जारी रहेंगी… इनकी वेबसाईट भी चकाचक है और कहीं जाना हो तो बस नंबर ढूँढ़ने में बहुत मदद भी करती है… बेस्ट की साईट पर जाने के लिये चटका लगाईये।

एक गाना याद आ गया जो कि अमिताभ बच्चन पर फ़िल्माया गया था –

आप लोगों के लिये एक सवाल कंडक्टर को मुंबईया लोग क्या कहते हैं।

मुंबई की बारिश, जीवन अस्त व्यस्त है, बारिश बड़ी मस्त है, बारिश के बहाने जीवन की कुछ बातें.. (Rain in Mumbai)

    मुंबई में आज लगातार तीसरा दिन है बारिश का, वो भी झमाझम बारिश का। पारिवारिक मित्रों के साथ सप्ताहांत पर बाहर जाने का कार्यक्रम बनाया गया था परंतु बारिश ने सब चौपट कर दिया सुबह से ही बारिश ऐसी जमी कि सब चौपट हो गया। जाना भी दूर था सोचा कि अगर अकेले होते तब तो कोई बात ही नहीं थी, परंतु साथ में बीबी और बच्चा हालत खराब कि कहीं कोई विकेट डाउन न हो जाये, क्योंकि अगले दिन बेटे को स्कूल भी जाना था।
    बारिश भी ऐसी की छतरी भी फ़ेल है, इस बारिश के सामने !! बारिश की फ़ुहारें कभी हल्की कभी तेज और हवा चारों तरफ़ से चलती हुई, छतरी होते हुए भी पूरे भीगे हुए, और जब ऑफ़िस पहुँच जायें तो एक दूसरे को देखें कि “अरे सूखे कैसे आ गये !”
    आज सुबह की ही बात थी, ऑफ़िस पहुँचे वो भी पूरे हल्के से गीले, भीगे हुए, धीमी धीमी बौछारों से, छतरी भी पूरी तरह से बारिश के पानी से तरबतर, लिफ़्ट में गये तो लिफ़्ट में भी ऐसा लगा कि आधा इंच पानी भरा हुआ है, वैसे तो हम रोज ही सीढ़ियों का उपयोग करते हैं, परंतु बारिश में जोखिम नहीं ले सकते क्योंकि सभी जगह फ़िसलन होती है, कब कहाँ रपट जायें कुछ कहा नहीं जा सकता।
    वैसे आजकल मोबाईल पर एस.एम.एस. आ जाते हैं कि फ़लाने समय पर हाईटाइड है, कभी मुंबई पोलिस से कभी हिन्दुस्तान टाईम्स से, पर मुंबई को बारिश से कोई फ़र्क नहीं पड़ता, मुंबई की रफ़्तार कम नहीं होती, तभी तो कहते हैं, “ई है मुंबई नगरिया तू देख बबुआ”।
    बारिश की बात की जाये और गाना न हो तो मजा ना आये, ये देखिये “आज रपट जायें तो हमें न उठइयो”।
    शाम घर के लिये निकलते समय फ़िर बारिश जोरों से आ गई वो भी चारों तरफ़ हवाओं के साथ, बारिश में मुंबई के ट्राफ़िक की हालत बिल्कुल खराब होती है, बड़ी मुश्किल से २५-३० मिनिट बाद ऑटो मिला, सड़क पर गड्डे जिनमें बारिश का शुद्ध पानी भरा हुआ था, पता ही नहीं चलता कि वाहन निकल जायेगा या फ़ँस जायेगा। रास्ते में एक जगह ऐसी पड़ती है जहाँ सड़क के बीचों बीच में सीवर का ढ़क्कन है, और दो दिनों से उसमें से पानी निकलता हुआ देख रहा हूँ, ऐसा लगता है कि जमीन में से फ़व्वारा फ़ूटा हुआ है। वाह रे दरिया से घिरे हुए मुंबई जिसके चारों ओर दरिया हो और अब बीच शहर में भी दरिया जैसा ही हो रहा है।
    घर आकर फ़िर बाजार जाना हुआ तो सड़क की दुर्दशा देखकर मन बैचेन हो गया और कुछ कविता करने को मन मचलने लगा, दो ही पंक्ति बन पाईं, और भी बनी थीं पर घर आते आते भूल गया –
“जीवन अस्त व्यस्त है
बारिश बड़ी मस्त है”
    सड़क पर बने गड़्ड़ो को लांघते हुए निकल रहे थे, तो ऐसा लग रहा था कि ऐसे ही जाने कितने गड्ड़े अपने जिंदगी में भी बने हुए हैं जिनको लांघकर हम निकल लेते हैं और जब वह गड्ड़ा बड़ा होता है तो उसमें पैर रखकर आगे बढ़ना ही होता है बस वैसे ही जिंदगी की कुछ मुश्किलें जिन्हें हम लांघ नहीं पाते, उन मुश्किलों में से निकलना ही पड़ता है। और एक बार जब जूता गीला हो जाता है फ़िर हम बारिश के पानी से भरे गड्ड़ों की परवाह न करते हुए फ़टाफ़ट अपनी मंजिल पर पहुँच जाते हैं वैसे ही जिंदगी के साथ भी होता है, मुश्किलें सहते सहते हमें उनकी आदत पड़ जाती है और हम अपनी जिंदगी में उन मुश्किलों की परवाह किये बिना आगे बड़ते रहते हैं, कभी बुझे मन से कभी प्रफ़ुल्लित होकर अच्छे मन से, केवल समय का फ़र्क होता है।
    एक मुहावरा जो कि पत्नी जी के मुँह से कई बार सुन चुके थे आज फ़िर से सुना “ऐसा लगा कि कोई आज खरहरी खाट से सोकर उठा है”।

मुंबई से उज्जैन यात्रा बाबा महाकाल के दर्शन और रक्षाबंधन पर सवा लाख लड्डुओं का भोग ४ (Travel from Mumbai to Ujjain 4, Mahakal Darshan)

    सुबह उठते ही नई उमंग थी क्योंकि आज रक्षाबंधन था, कोई बहन नहीं है परंतु खुशी इस बात की थी कि हमारे बेटेलाल की अब बहन घर में आ गई थी और उसने राखी भेजी थी, एक त्यौहार जो हमने कभी मन में तरंग नहीं जगा पाता था वह त्यौहार अब हमारे घर में सबको तरंगित करता है।

    पापा की बहनें हैं और उनकी ही राखियाँ हम भी बाँध लेते हैं, क्योंकि हमें भी भेजी जाती हैं। देखिये राखी के कुछ फ़ोटो और साथ में मिठाई –

Rakhi aur Mithai Harsh aur mere papaji

    फ़िर चल दिये महाकाल के दर्शन करने के लिये, महाकाल पहुँच कर पता चला कि बहुत लंबी लाईन है और ज्यादा समय लगेगा, हमारे पास समय कम था क्योंकि शाम को वापिस मुंबई की ट्रेन भी पकड़नी थी। हमने पहली बार विशेष दर्शन के लिये सोचा जो कि १५१ रुपये का था, और वाकई मात्र ५ मिनिट में बाबा महाकाल के सामने थे, १५१ रुपये के विशेष दर्शन के टिकट से हम तीनों ने दर्शन किये और धन्य हुए। अटाटूट भीड़ थी महाकाल में।

Mahakal bahar se darshan

    महाकाल में रक्षाबंधन पर्व पर सवा लाख लड्डुओं का भोग लगाया जाता है और हरेक दर्शनार्थी को एक लड्डू का प्रसाद दिया जाता है। यह परंपरा हम सालों से देखते आ रहे हैं, जब भी रक्षाबंधन पर उज्जैन होते हैं तो दर्शन करने जरुर जाते हैं और साथ ही लड्डुओं का प्रसाद लेने भी। ये वीडियो फ़ोटो देखिये सवा लाख लड्डुओं के भोग का –

Mahakal sava lakh ladduo ka bhog Mahakal sawa lakh ladduo ka bhog

जय महाकाल

ऊँ नम: शिवाय !