क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? क्या इसीलिये आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं ? (Why Childs are not emotional ? why suicidal cases are increasing ?)

शिक्षा में बदलाव बेहद तेजी से हो रहे हैं और शिक्षक और छात्र के संबंध भी उतनी ही तेजी से बदलते जा रहे हैं। कल के अखबार की मुख्य खबर थी यहाँ बैंगलोर में इंजीनियरिंग महाविद्यालय के छात्र ने होस्टल के कमरे में पंखे से फ़ांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। खबर लगते ही हजारों के झुंड में छात्र इकठ्ठे हो गये और महाविद्यालय प्रशासन के खिलाफ़ नारेबाजी करने लगे। पुलिस बुलाई गई, परंतु छात्रों ने पुलिस को भी खदेड़ दिया और महाविद्यालय की इमारत को भी नुक्सान पहुँचाया। बाद में महाविद्यालय के मालिक का बयान आया कि वह छात्र कमजोर दिल का था और लगातार पिछले तीन वर्षों से उस छात्र का प्रदर्शन बहुत कमजोर था।

विषादग्रसित यह खब्रर पढ़ने के लिये नहीं लिखी हैं मैंने, सही बताऊँ तो मैंने कल अखबार ही नहीं पढ़ा था पर कल रात्रि  भोजन पर भाई से चर्चा हो रही थी तब इस और ध्यान गया और आज सुबह कल का अखबार पढ़ पाया । मन अजीब हो उठा और लगा क्या महाविद्यालय प्रशासन ने कभी उस छात्र के मन में क्या चल रहा है, यह जानने की कोशिश की। महाविद्यालय प्रशासन महज छात्र के घर एक पत्र भेजकर अपनी जिम्मेदारी से तो नहीं बच सकता ।

आज छात्र बहुत ही संवेदनशील परिस्थितियों से गुजर रहे हैं, क्योंकि वे अब भावुक नहीं रहे, अब छात्रों से भावनाओं के बल पर कोई भी कार्य करवाना असंभव है। उसके पीछे बहुत सारे कारण जिम्मेदार हैं, परवरिश के बेहतर माहौल में कमी, शिक्षकों से अच्छा समन्वयन न होना । ऐसे बहुत सारे कारण हैं। क्योंकि आजकल बच्चों को इंटरनेट पर सब मिल जाता है तो कई बच्चे तो दोस्त भी नहीं बनाते हैं और इंटरनेट पर ही अपना समय बिताते पाये जाते हैं।

अब मेरे मन में जो सवाल उठ रहे हैं कि क्या महाविद्यालय का छात्र पर अच्छे प्रदर्शन के लिये दबाब बनाना उचित था, और अगर दबाब बनाया गया तो उसे क्या उचित मार्गदर्शन दिया गया । छात्र के घर पर पत्र भेजने से छात्र की मानसिक हालात को समझा जा सकता है। हरेक छात्र के माता-पिता यही सोचते हैं कि बेटा अच्छा पढ़ रहा है परंतु अगर महाविद्यालय से इस प्रकार का पत्र मिले तो वे यकीनन ही अपने बेटे पर क्रुद्ध होंगे, और उसे परिस्थिती से बचने के लिये उस छात्र ने आत्महत्या कर ली हो ? छात्र तो पहले से ही विषादग्रसित था, उसको मनोवैज्ञानिक तरीके से संभालना चाहिये था। परंतु ऐसा ना हुआ, अब उन माता-पिता पर क्या गुजर रही होगी जिन्होंने अपना जवान बेटा इसलिये खो दिया क्योंकि वह पढ़ाई में कमजोर था, नहीं ? वह पढ़ाई में कमजोर होने के कारण विषादग्रसित हो चला था।

पढ़ाई में कमजोर होना कोई बुरी बात तो नहीं, पढ़ाई ही तो सबकुछ नहीं है, उससे बढ़कर होता है जीवन जीने का हौसला और उस विषादित परिस्थिती से निकालने में सहायक परिवेश और परवरिश। कमजोर पढ़ाई वाले पता नहीं कितनी आगे निकल गये हैं और पढ़ाई वाले कहीं पीछे रह गये हैं।

मुख्य सवाल जो मेरे मन में है और उसका उत्तर खोजने की कोशिश जारी है मनन जारी है, क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? और उनके आधुनिक परिवेश में उन्हें कैसी परवरिश देनी चाहिये ?

9 thoughts on “क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ? क्या इसीलिये आत्महत्या के आंकड़े बढ़ रहे हैं ? (Why Childs are not emotional ? why suicidal cases are increasing ?)

  1. पहले बच्चों में कठोरता रहती थी. अब वे अधिक भावुक और छुई-मुई हो गए हैं. पहले एक घर में चार-पांच बच्चे होते थे. अब एक या दो होते हैं और वे नाज़ों से पलते हैं. उनकी हर इच्छा पूरी होती है और उन्हें कोई कष्ट नहीं झेलने पड़ते. इसलिए वे दुनिया की विसंगतियों का डटकर मुकाबला नहीं कर पाते.
    बहुत से बच्चे जब माँ-बाप को उनके नखरे उठाते देखते हैं तो और अधिक हठी हो जाते हैं और इच्छापूर्ति न होने पर गलत कदम भी उठा लेते हैं.
    बच्चों पर दबाव भी बहुत है. हर क्लास में अधिकांश बच्चे लगभग सौ प्रतिशत अंक ला रहे हैं. अब उनमें अव्वल कौन रहे!? इसके अलावा माता-पिता चाहते हैं की वह हर चीज़ में आगे रहे. पहले के माता-पिता बच्चे को पढाई में आगे देखकर ही खुश हो लेते थे.
    कुल मिलकर, न तो वैसे पालक रहे और न ही वैसे बालक. अब तो बच्चों को किसी गलती के लिए आप ठीक से डांट भी नहीं सकते क्योंकि दसियों रिसर्च और स्टडी बताती हैं कि इससे उनके 'कोमल मन' पर विपरीत प्रभाव पड़ता है.
    बच्चों को भावुक नहीं, मजबूत बनाइये. बच्चों में भावनात्मकता रहना अच्छी बात है पर उन्हें कठनाइयों से जूझना आना चाहिए.

  2. पहले बच्चों में कठोरता रहती थी. अब वे अधिक भावुक और छुई-मुई हो गए हैं. पहले एक घर में चार-पांच बच्चे होते थे. अब एक या दो होते हैं और वे नाज़ों से पलते हैं. उनकी हर इच्छा पूरी होती है और उन्हें कोई कष्ट नहीं झेलने पड़ते. इसलिए वे दुनिया की विसंगतियों का डटकर मुकाबला नहीं कर पाते.
    बहुत से बच्चे जब माँ-बाप को उनके नखरे उठाते देखते हैं तो और अधिक हठी हो जाते हैं और इच्छापूर्ति न होने पर गलत कदम भी उठा लेते हैं.
    बच्चों पर दबाव भी बहुत है. हर क्लास में अधिकांश बच्चे लगभग सौ प्रतिशत अंक ला रहे हैं. अब उनमें अव्वल कौन रहे!? इसके अलावा माता-पिता चाहते हैं की वह हर चीज़ में आगे रहे. पहले के माता-पिता बच्चे को पढाई में आगे देखकर ही खुश हो लेते थे.
    कुल मिलकर, न तो वैसे पालक रहे और न ही वैसे बालक. अब तो बच्चों को किसी गलती के लिए आप ठीक से डांट भी नहीं सकते क्योंकि दसियों रिसर्च और स्टडी बताती हैं कि इससे उनके 'कोमल मन' पर विपरीत प्रभाव पड़ता है.
    बच्चों को भावुक नहीं, मजबूत बनाइये. बच्चों में भावनात्मकता रहना अच्छी बात है पर उन्हें कठनाइयों से जूझना आना चाहिए.

  3. आशाओं पर आरोपण और समस्याओं में संवादहीनता, यही दो प्रमुख कारण हैं बढ़ती आत्महत्याओं के। विश्व इतना छोटा भी नहीं कि कोई राह ही न निकले।

  4. भावनाओं का स्‍थान भौतिकता ने ले लिया है। कितना पेकेज मिलेगा बस यही चिंतन है, इसकी विफलता ही जीवन की विफलता दिखायी देती है। वर्तमान में प्रत्‍येक कॉलेज में एक काउंसलर होना चाहिए, जो छात्रों को उचित सलाह दे सके।

  5. इस बात में कोई शक नहीं कि आजकल बच्चो पर पढाई का दबाव बेहद ज्यादा है … बहुत छोटी उम्र से ही उनको इसका सामना करना पड़ रहा है … उसका ही नतीजा है कि इस तरह की घटनाएँ सामने आती है … इस सार्थक आलेख के लिए आपका आभार !

  6. @क्यों बच्चे आज भावनात्मक नहीं हैं ?

    पता नहीं मैं तो ये महसूस करता हूँ, आज के बच्चे ज्यादा भावनात्मक हैं…

  7. आपने बहुत ही अच्छे प्रश्न उठाए हैं। लेकिन अधिकांश परिस्थियों में देखने को मिलता है कि धन के सहारे माता-पिता अपनी महत्वाकांक्षा बच्चों पर थोप देते हैं, जो वास्तव में उस शिक्षा के लिए तैयार नहीं होते। अतएव इस प्रकार के परिणाम देखने को मिल रहे हैं।

  8. ऐसे सारे सवाल मरने के बाद ही उठते हैं। अध्‍ययनरत बच्‍चों की मनोदशा समझने क लिए न तो पालकों के पास समय है न ही महाविद्यालय प्रशासन के पास।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *