पोलिथीन याने कि प्लास्टिक की थैलियाँ हम कितनी उपयोग करते हैं ? और कपड़े के थैले कहाँ गये ?

    आजकल जिधर देखो उधर हर किसी के हाथ में पोलिथीन की थैलियाँ दिखती हैं, कपड़े और जूट के थैले तो हाथों से गायब ही हो गये हैं, अगर कहीं भूले भटके दिख भी गये तो बड़ा आश्चर्य होता है।

    मुझे बहुत अच्छे से याद है कि जब छोटा था तब हमारे घर में कम से कम पाँच छ: थैले हुआ करते थे, जिसमें सब्जी लाने का अलग और किराने लाने का अलग थैला होता था। कपड़े के थैले बाजार में तो मिलते नहीं थे तो मम्मीजी घर पर ही सिलाई मशीन पर सिलती थीं, अगर किसी काम के लिये कोई कपड़ा आया हो और उसमें से कोई कपड़ा बच गया तो उसका थैला सिल जाता था, और थैले भी अलग अलग अनुपात के होते थे, कम सब्जी वाले और ज्यादा सब्जी वाले, इसी तरह कम किराने वाले और ज्यादा किराने वाले।

    आज भी घर पर समान लाने के लिये पापाजी थैले का ही उपयोग करते हैं, प्लास्टिक की थैलियों को तरजीह नहीं देते हैं, परंतु बहुत सारी चीजें बदल गई हैं, पहले जब कपड़े के थैले उपयोग करते थे तो सब्जी को घर पर आकर छांटना पड़ता था और उसमें भी काफ़ी मजा आता था, फ़ली, भिंडी, मटर और मिर्ची तो आपस में गुत्थमगुत्था ही मिलती थीं, शिमला मिर्च, आलू, प्याज और टिंडे एक दूसरे में मिल जाते थे, उनको अलग अलग करना एक रोमांच ही होता था। पर धीरे धीरे प्लास्टिक की थैलियों ने जगह बनाई, अब जब दुकान पर सब्जी खरीदी तो बेचारी सारी सब्जियाँ अपने अपने थैलियों में सिमट कर रह गई हैं, कभी एक दूसरे से गुत्थमगुत्था हो ही नहीं पाती हैं, खैर उस जमाने में फ़्रिज नहीं हुआ करता था तो लगभग रोज ही ताजी सब्जी मिलती थी, परंतु आजकल फ़्रिज आने से इतनी खराब आदत हो चली है कि शनिवार या रविवार को पूरे सप्ताह की सब्जियाँ लाकर फ़्रिज भार लेते हैं, और फ़िर पूरे सप्ताह भर खाते रहते हैं। बस पत्तेदार सब्जियाँ अब भी तभी आती हैं जिस दिन खानी होती हैं।

    अब मॉल में जाते हैं, कोल्डस्टोरेज की निकली हुई ताजी सब्जियाँ लेकर आते हैं, हर सब्जी के लिये अलग छोटी छोटी प्लास्टिक की थैलियाँ मौजूद रहती हैं, आजकल तो सब्जियाँ रेडीमेट पोलिथीन मॆं पैक वजन के साथ दाम लिखी हुई भी मिलती हैं, बस ये थोड़ी महंगी होती हैं ३०-३५% तक। हमने एक बात तो देखी कि बाजार में सब्जियाँ महंगी हैं और मॉल में सब्जियाँ सस्ती हैं, और कई बाहर ठेला लगाने वाले तो इन मॉलों से ही सब्जी खरीदते हैं और ज्यादा दामों पर बाहर बेचते हैं।

    खैर हमने वापिस से कपड़े के थैले का उपयोग करना शुरू किया है, जिसमें दूध, ब्रेड वगैरह लेकर आते हैं, वैसे यह भी मजबूरी में है क्योंकि सरकार ने प्लास्टिक की थैलियों पर रोक लगाई हुई है, जब रोक लगी थी, तब लगभग सभी दुकानों से थैलियाँ गायब हो गई थीं, परंतु थैलियाँ ना होने के वजह से धंधे पर असर होने लगा तो अब रोक के बाबजूद प्लास्टिक की थैलियाँ दुकानदारों को रखना पड़ती हैं।

    पहले कचरे के डिब्बे के लिये अलग से पोलिथीन लानी पड़ती थी, परंतु अब माह भर में मॉल से इतनी खरीदारी हो जाती है कि अलग से कचरे के लिये पोलिथीन खरीदने की जरूरत ही नहीं पड़ती है। एक प्रकार से हम पोलिथीन का सदुपयोग भी कर रहे हैं। पर हाँ अब कपड़े के थैले पर जाना बहुत मुश्किल लगता है।

16 thoughts on “पोलिथीन याने कि प्लास्टिक की थैलियाँ हम कितनी उपयोग करते हैं ? और कपड़े के थैले कहाँ गये ?

  1. थैला मुबारक ….थैला लेकर पैसा जायं ..थैली में सब्जी लायें 🙂
    मैं भी थैला लेकर ही जाता हूँ खरीददारी करने!उसकी गरिमा ही अलग है !

  2. आज दिल्ली की 'मदर डेयरी' पर लगा एक पोस्टर देखा जिसमें डेयरी ने उन लोगों को धन्यवाद कहा था जो अपने घर से दूध का बर्तन लेकर आते हैं व मशीन मे डालने वाला सिक्का लेकर दूध ख़रीदते हैं.

    'मदर डेयरी' का कहना था कि जितना दूध इस तरह से उन्होंने बेचा है उसे अगर थेलियों में भर कर बेचा जाता तो 17,00,000 kgs (17 लाख किलोग्राम) प्लास्टिक use होता. पर्यावरण को 17 लाख किलोग्राम प्लास्टिक से बचाने के लिए धन्यवाद.

    यह तो मैंने भी कभी नहीं सोचा था. दिल्ली में अब कई दुकानदार प्लास्टिक की थैली देने से मना कर देते हैं…. कोशिश रहती है कि गाड़ी में एक आध कपड़े का थैला रखा ही जाए..

  3. @ अरविन्द जी – हम आजकल नकद रूपये लेकर चलते ही कहाँ हैं, और हमें तो वाकई याद नहीं कि नकदी से कब सब्जी खरीदी थी। आजकल तो प्लास्टिक मनी का जमाना है, बस कार्ड डालो जेब में और चल दो खरीदारी करने ।

    जब किसी को कपड़े का थैला लिये देखता हूँ तो मन ही मन उसे धन्यवाद जरूर देता हूँ। आपको बधाई ।

  4. @ काजल जी – मदर डेयरी ने बिल्कुल सही कहा है कि पर्यावरण की कितनी रक्षा हो सकती है। और आपने तो मेरे बचपन की याद दिला दी जब मैं बचपन में दिल्ली जाता था तो भाई के साथ मदरडेयरी की मशीन पर जाता था दूध लेने और हमेशा मैं ही सिक्का डालता था और केतली में दूध निकल कर आ जाता था, और आजकल सब प्लास्टिक की थैली में सिमट गया है।

  5. हम तो बाकायदा थैला लेकर चलते है! प्लास्टिक की थैलीयो को सधन्यवाद वापिस कर देते है। बीवी थोड़ा भुनभुनाती है! कभी कभार लोग घूर कर भी देखते है लेकिन हमे उनकी परवाह नही !

  6. @ भारतीय नागरिक जी – बिल्कुल सही पुरानी पैंटों का अच्छा उपयोग होता था, केवल दो बद्दी ऊपर लगाई और नीचे सिलाई लगाई और थैला तैयार।

  7. @ आशीष श्रीवास्तव जी – बस यही थैले वाली आदत हमें भी डालनी है, और प्लास्टिक की थैलियों को वापिस करने की आदत भी, आपको बहुत बधाई ।

  8. प्लास्टिक की थैलियां एक अपरिहार्य बवाल हो गयी हैं। घर से आप सामान लेने जायें तो थैला लेकर जा सकते हैं। कभी-कभी बाहर ही हों और कुछ सामान लेना हो तो सोचते हैं थैली ही सही।

    लेकिन आदत बनती-बिगड़ती रहती है। यह पोस्ट बांचकर अच्छा लगा। 🙂

  9. मुश्किल तो कुछ भी नहीं –

    है वही मुश्किल जिसे इन्‍सान मुश्किल मान ले
    मन के जीते जीत है और मन के हारे हार

    मैं तो लम्‍बे अरसे से घर से थैली लेकर ही निकलता हूँ। मेरे वाहन की डिकी में यथा सम्‍भव एक खाली थैली रखी रहती है। कभी-कभी चूक भी जाता हूँ।

  10. हमारे शहर में कुछ-कुछ समय बाद फिर प्लास्टिक पर बैन को लेकर सख्ती होती है लेकिन कुछ समय बाद फिर प्रशासन ढीला हो जाता है और प्लास्टिक फिर शुरु हो जाती है। आजकल फिर काफी समय से काफी कम है।

    वैसे हम तो अपनी इलैक्ट्रिक स्कूटी की बड़ी डिक्की में खूब सामान रख सकते हैं, थैले की जरुरत नहीं रहती।
    —-
    ePandit

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