मेरे देश भारत की राजधानी दिल्ली

वैसे तो मैं मुंबई में नौकरी करता हूँ परंतु दिल्ली में क्लाईंट है तो दिल्ली का चक्कर लगता ही रहता है, वैसे तो मैं भी दिल्ली साईड का रहने वाला हूँ परंतु फ़िर भी यह शहर और यहाँ के लोग मुझे कम ही पसन्द आते हैं, उसका एक कारण यह भी हो सकता है कि मुँबई में आम आदमी अनुशासित है परंतु दिल्ली में उत्तर भारतीयों का जलवा अलग ही झलकता है, अनुशासन में रहना उत्तर भारतीय अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। बस हम निजामुद्दीन रेल्वे स्टेशन पर आये थे और अपने होटल जाने के लिये प्रीपेड रिक्शा का रुख किया वहाँ देखा कि पहले ही बहुत लंबी लाईन लगी है (अनुशासित जनता दिल्ली की नहीं मुँबई की !! या भारत की…), आधे घंटे लाईन में खडे रहने के बाद प्रीपेड की पर्ची के लिये हमारा नंबर आया और फ़िर ऑटो का इंतजार और पर्चीवाले अनुशासित लोगों के मारामारी में १ घंटा चला गया । तब लगा कि शायद आम जनता का सपना हमेशा सपना ही रहेगा, दिल्ली मे प्रशासन का, इससे अच्छा प्रशासन तो मुँबई में है वहाँ ऑटो के लिये भावताव नहीं करना पड़ता है वहाँ मीटर से ईमानदारी से चलते हैं, पर यहाँ आते ही भारत की राजधानी की प्रशासनिक हकीकत से रुबरु होना पड़ता है।

4 thoughts on “मेरे देश भारत की राजधानी दिल्ली

  1. दिल्ली में १०० लोगों से पूछिए कि वो कहाँ से हैं, तो ९९ आपको कहेंगे की वो दिल्ली में नहीं पैदा हुए थे, बाहर से आए हैं. मैं भी दिल्ली का रहने वाला हूँ, और ये बात बता दूँ की किसी भी शहर की मानसिकता को उसके ऑटो वालों से न नापें. दिल्ली की सड़कों पे चलने वाले अधिकतर ऑटो ट्रैफिक पुलिस वालों के हैं, वे उन्हें किराये पर देते हैं. यूपी-बिहार से आए काम की तलाश में लोग उन ऑटो को चलाते हैं. ऐसे में ऑटो चलने वाले को ज़्यादा से ज़्यादा पैसे खसोटने पड़ते हैं ग्राहक से ताकि वो अपना पेट भर सके, और ट्रैफिक पुलिस कुछ नही करती उनके खिलाफ क्योंकि वो सरे ऑटो उन्हीं के हैं.

    यह ज्ञान मुझे तब प्राप्त हुआ जब मैंने और एक दोस्त ने एक ऑटो वाले को पीटना शुरू कर दिया था क्योंकि वो मीटर से नहीं चला और हमसे ज़्यादा पैसे मांगे. दो हाथ पड़ते ही उसने सब उगल दिया. हमें बेचारे पर दया आई, और अपने आप पर शर्म भी. उसके बाद कई ऑटो वालों से बात चीत की, सभी की यही दशा है.

    ट्रैफिक पुलिस के अधिकारीयों ने बड़े पैमाने पर ऑटो खरीद कर उन्हें कुछ बेचारों को रोजाना के किराये पर चढाने का धंधा चला रखा है. इसे रोकने के लिए लगता है मुझे या तो कोर्ट जन पड़ेगा, या फिर ऐसा कुछ करना पड़ेगा जो कोई सोच भी नहीं सकता.

  2. सिर्फ ऑटो वाले ही नहीं
    ट्रैफिक पुलिस का पेट
    और भी भर रहे हैं
    पर वो गेट नहीं
    होता है कभी बंद
    न होता है बंद
    न भरता है
    इसीलिए ऑटो वाला
    सीएनजी से चलता है
    मीटर से चलेगा तो
    पुलिस का पेट भरेगा कैसे ?

    अगर आप बस में चलते
    तो कंडक्‍टर होते हुए भी
    चिल्‍लर नहीं देगा वापिस
    इस उम्‍मीद में कि आप
    भूल जाएं और उतर जाएं
    बिना लिए.

    ऐसी उम्‍मीदें उनकी बेमानी
    नहीं है, सबके पीछे माने
    हैं अपने अपने
    सपने अपने अपने
    सबका सपना मनी मनी

    जिसके लिए आप
    भी आते हैं
    मुंबई से दिल्‍ली
    आप भी हैं हनी
    आपका भी सपना
    हमारा भी सपना
    जो है सबका सच
    मनी मनी मनी.

    आप रहते हैं ईमानदार
    उनको बेईमान बना दिया जाता है
    पर बेईमान ठीक हैं
    लुटेरों से, ठगों से, उचक्‍कों से
    और जो सरेआम दाग रहे हैं
    गोली सबको मार रहे हैं.

    ऐसी घटनाएं तो
    मुंबई दिल्‍ली दोनों में आम हैं
    अब तो आपको राहत मिली
    मुंबई का कुछ तो दिल्‍ली में
    मौजूद है, मौजूं है.

    वहां भाई हैं
    यहां पर भाई नहीं हैं
    (इसलिए महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं)
    अब क्‍या क्‍या कहें
    कितना विचारों में बहें
    इससे अच्‍छा है
    यहीं पर थमे रहें.

  3. आपने हकीकत बयां की है, लेकिन मेरे कुछ अलग अनुभव भी हैं, बेशक वे कम ही हैं. वैसे शहरों का अपना चरित्र भी होता है, यह मैं महसूस करता था. इसे बहुत अच्‍छे ढंग से वसंत पोतदार जी ने एक लेख में बांधा था. बड़े शहरों में तो जाते-आते वहां के मुहल्‍लों का चरित्र भी पकड़ में आने लगता है.बनारस का फक्‍कड़पना तो चौक और राजा दरवाजा की ठाट, विश्‍वनाथ गली में एक साथ जीवन्‍त कई पीढि़यां, लखनउ के हजरतगंज की शाम (सुबह बनारस, शाम अवध की)…
    कैलाश गौतम की पंक्तियां याद आ रही हैं, उन्‍होंने इलाहाबाद के लिए दोहा रचा था-
    चौपाटी तुमसे भली, लोकनाथ की शाम.
    आप कभी हमारे छत्‍तीसगढ़ आएं, 24 गुणा 365 ऐसा सब कुछ है, यहां.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *