प्रोड़क्टिव मेन अवर्स बर्बाद और आभिजात्य वर्ग की मानसिक मजदूरी

अभी दो दिनों से कार्यालय जा रहे हैं, नहीं तो घर से ही काम कर रहे थे। इन दो दिनों में आना जाना और कई लोगों से मिलना हुआ।

घर से काम करने में यह तो है कि घर पर परिवार को समय ज्यादा दे पाते हैं, परंतु काम करने में थोड़ी बहुत अड़चनें भी आती हैं, खैर हमेशा परिवार के साथ रहते हैं, और आने जाने का लगभग २ घंटे का समय भी बचता है, जो कि कहीं और निवेश कर दिया जाता है।

कल जब बस स्टॉप पर बस पकड़ने के लिये खड़े थे तो ऐसा लगा कि सदियाँ बीत गईं हैं सफ़र किये हुए, और बस का इंतजार और बस के इंतजार में खड़े लोग पता नहीं कितने सारे प्रोड़क्टिव मेन अवर्स बर्बाद हो रहे थे और हम कुछ कर नहीं सकते थे, केवल देख सकते थे। व परिवार को जो समय दिया जा सकता है, वह भी कम्यूटिंग में निकल जाता है।

कोई भाग रहा है कोई दौड़ रहा है, कोई मुस्करा रहा है कोई टेंशन में है, सबकी अपनी अपनी दुविधाएँ हैं तो सबके अपने अपने सुख दुख हैं।

रोजी रोटी जो न कराये वह कम है, एक लड़की अपने मित्र का एस.एम.एस. पढ़ पढ़कर दुखी हो रही है, उसके ब्वॉय फ़्रेंड ने एस.एम.एस. में कहा है कि मैं तुम्हारे लिये बहुत सारा समय निकाल सकता हूँ परंतु मेरी और भी प्रायोरिटीज हैं, प्लीज समझा करो और मुझसे ज्यादा एक्स्पेक्ट मत करो, मैं सोचने लगा कि वाह लड़के भी आजकल इतना साफ़ साफ़ मैसेज भेजने की हिम्मत रखते हैं।

नहीं तो हम तो सोचते थे कि केवल लड़कियाँ ही साफ़ साफ़ बोलती हैं 🙂 खैर जब लिफ़्ट के पास होते हैं तो सबके हाथों में मोबाईल देखते हैं, अधिकतर आई फ़ोन लिये दिखते हैं, तो अपने ऊपर कोफ़्त होती है कि अपन इतने आधुनिक क्यों ना हुए.. और जिनके पास ब्लैक बैरी है तो पता चल जाता है कि कंपनी ने दिया है कि बेटा २४ घंटे खाते पीते उठते जागते चलते फ़िरते काम करते रहो। इससे यह तो समझ में आ गया कि आई फ़ोन वाला वर्ग विलासिता भोगी हो सकता है और ब्लैक बैरी वाला अच्छे कपड़ों में मानसिक मजदूर।

अच्छा है कि अपन अभी इन दोनों वर्गों से दूर हैं, या भाग रहे हैं, पहले जब कंपनी लेपटॉप देती थी तो लगता था कि २४ घंटे मजदूरी के लिये दे रही है, परंतु धीरे धीरे अब समय बदल गया है और अब सबको ही लेपटॉप ही दिया जाता है, अब डेस्क्टॉप का जमाना लद गया।

खैर आभिजात्य वर्ग की मानसिक मजदूरी कितने लोग देख पाते होंगे पता नहीं, जो ब्लैकबैरी और लेपटॉप में उलझा रहता है।

7 thoughts on “प्रोड़क्टिव मेन अवर्स बर्बाद और आभिजात्य वर्ग की मानसिक मजदूरी

  1. समय कम्यूटिंग में बरबाद होता है। समय बैठे ठाले भी बरबाद होता है। समय हाइपर एक्टिविटी में भी बरबाद होता है! 🙂

  2. @कितने सारे प्रोड़क्टिव मेन अवर्स बर्बाद हो रहे थे

    अमा मशीन बना दिया यार को तो…
    छोडो भाई दुनिया में बहुत कुछ है प्रोड़क्टिव मेन अवर्स के आलावा…

    एक दूसरा चीन थोड़े बनाना है हमको.

    थोड़े सुरती रगड़ने दीजिए, थोडा बकलोल करने दीजिए.:)

  3. एक बार अंडमान प्रवास के दौरान मैंने एक सैलानी को टूर आपरेटर से झगड़ते पाया कि "कहां ला कर फंसा दिया यहां तो देखने को कुछ भी ढंग का है ही नहीं…"

    …हम भूल गए हैं कि समय बस यूं ही चैन से आंखें मूंद कर लेटे रह कर काट देने के लिए भी होता है…

  4. @रोजी रोटी जो न कराये वह कम है

    सही बात है। आधुनिकता का अच्छा विश्लेषण किया है आपने।

  5. इस मानसिक मजदूरी के कारण ही आज परिवारों में तनाव है। यह बात ना तो कम्‍पनियां समझ रही हैं और ना ही व्‍यक्ति। बस जुते जा रहा है कोल्‍हू के बैल की तरह।

  6. बिना ब्‍लेकबेरीवाले, अच्‍छे कपडों में कुछ मानसिक मजदूर मुझे मिले हैं। किन्‍तु उनका संकोच देख कर उनके बारे में कुछ कहने का अर्थ होगा, अशालीनता बरतना। लिहाजा, जब कीभी यह संकोच टूटेगा तब उनके बारे में बात करूँगा।

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