हमारे शौक ही हमारी सोच को बदल देते हैं

समाज को बहुत तेजी से बदलते हुए हमने देखा है, समाज की सोच को बदलते हुए देखा है, इंसान की सोच को बदलते हुए देखा है, दरअसल हमारे शौक ही हमारी सोच को बदल देते हैं। हम समय कैसे बिताते हैं यह भी हमारे शौक पर निर्भर करता है।
मुझे बचपन की याद है, जब पापाजी शासकीय वाचनालय से २-३ हिन्दी की साहित्यिक किताबें लाते थे और सप्ताह भर में पढ़ भी लिया करते थे और लगभग हर रविवार मैं उनके साथ वाचनालय किताबें बदलने जाया करता था, मेरा लालच यह होता था कि वहाँ बहुत सारे अखबार होते थे और बच्चों की किताबें भी पढ़ने को मिल जाया करती थीं, पापाजी को हमारा इंतजार करना पड़ता था।
उस समय हमें साहित्य की तो इतनी समझ नहीं थी तो हम किताबें तो नहीं पढ़ते थे परंतु हाँ घर में पढ़ने का महत्व समझ आ गया और यह समझ बचपन से आ गई कि किताबें सबसे अच्छी दोस्त होती हैं और हमेशा इन किताबों से कुछ न कुछ नया सीखने को मिलता रहता है।
उस समय टीवी की इतनी ज्यादा धूम नहीं थी, और फ़ेसबुक, ट्विटर, लिंकडिन के पते भी नहीं थे क्योंकि इंटरनेट नहीं था, और फ़ोन होना उस समय विलासिता माना जाता था।
पापाजी जब शाम को कार्यस्थल से घर आते तो यदाकदा कहते आज फ़लाने अंकल के यहाँ खाने पर चलना है या फ़िर आज वो अंकल अपने परिवार के साथ मिलने आ रहे हैं या खाने पर आ रहे हैं, और इस मिलने का अंतराल आज की तुलना में बहुत ज्यादा होता था। उस समय फ़ोन न होने के कारण सारी बातें पहले से ही तय कर ली जाती थीं और सारे कार्य आसानी से हो जाते थे।
आज हम इंटरनेट, टीवी के सीरियलों में ही इतने व्यस्त हैं कि हमें बाहर की बात तो छोड़िये अपने परिवार के लिये भी समय नहीं है। परिवारों में आजकल कई बार तो कुछ दिन ऐसे निकल जाते हैं कि किसी सदस्य से बात ही नहीं होती, तो बाहर के अंकल से मिलने की बातें तो छोड़ ही दो।
समाज की सोच और धारणा तेजी से बदल रही है, आगे पता नहीं क्या होगा, परंतु जितना समय हमने देखा उतने में ही इतना सब कुछ  बदल गया, पता नहीं आगे क्या होगा ।

14 thoughts on “हमारे शौक ही हमारी सोच को बदल देते हैं

  1. समाज से दूरी बनने के कारण ही बहुत सारी समस्‍याएं उत्‍पन्‍न हुई हैं।

    1. यही तो समस्या है प्रगतिशील दिखती हैं, उसका सही तरह से हम उपयोग नहीं कर पा रहे। केवल अपना समय जाया कर रहे हैं ।

  2. ये इस समय के संकट भी हैं और चुनौतियॉं भी। संकटों से पार भी हमें ही पाना है और चुनौतियों का सामना भी हमें ही करना है। वैसे, घबराने की कोई बात नहीं – 'यह वक्‍त भी गुजर जाएगा।'

  3. व्यक्तिगत स्वतंत्रता और व्यक्तिगत स्वार्थ नें हमसे बहुत कुछ छीन लिया है।
    पहले हर परिवार के बडे बडे समाज संगठन हुआ करते थे, तब व्यक्तिगत मामले पूरे समाज में चर्चित हो जाते और हम कहते हम व्यक्तिगत कुछ भी करें समाज को क्या? और हमनें एक छोटे कुल तक स्वयं को सीमित किया, वहां भी समस्या आई तो हमनें संयुक्त परिवार तक सीमित किया, वहां भी व्यक्तिगत सहजता में समस्या आई तो हम एकल परिवार तक सिकुड गए, वहां भी प्रायवेसी के सवाल पर अलग अलग कमरे बना दिए। अन्ततः एकांतचारी बनकर व्यक्तिगत लेपटॉप गोद ले लिया। अब उसी के माध्यम से विशाल सामाजिकता ढ़ूंढ़ते फिर रहे है।

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