Monthly Archives: September 2009

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २६

कुसुमशरजात़् – कामदेव के धनुष का दण्ड इक्षु से बना माना जाता है तथा प्रत्यञ्चा काले काले भौरों की श्रेणी से तथा उससे छोड़े जाने वाले वाण पाँच माने जाते हैं


इष्टसंयोगसाध्यात़् – अलका निवासी ज्वरादि से पीड़ित नहीं होते थे और यदि वे किसी से पीड़ित होते थे तो काम जन्य सन्ताप से
और वह प्रिय मिलन से दूर हो जाता था।


प्रणयकलहात़् – प्रेमी पति के किसी अपराध के कारण पत्नी के रुठ जाने को प्रणयकलह कहा जाता है। यक्षों का पत्नियों से केवल मान के कारण ही क्षणिक वियोग होता था, किसी वैधव्य या प्रवास आदि के कारण नहीं।


वित्तेशानाम़् – वित्त का ईश अर्थात धन का स्वामी। वित्तेश कुबेर और यक्ष दोनों के लिये प्रयुक्त होता है। यक्ष चूँकि कुबेर के कोष की रक्षा करते हैं इसलिए उन्हें भी वित्तेश कहा जाता है।


यौवनात़् – यक्ष देवयोनि मानी जाती है, इसलिए उनमें वृद्धावस्था नहीं होती, वे सदा युवावस्था में ही रहते हैं।


मन्दाकिन्या: – गंगा के अनेक नाम हैं; जैसे – जह्नुतनया, जाह्नवी, भागीरथी, मन्दाकिनी आदि। गंगा स्वर्ग, मर्त्य और पाताल तीनों लोकों में अवस्थित है। स्वर्ग में रहने वाली गंगा को मन्दाकिनी, मर्त्यलोक में स्थित गंगा  को भागीरथी तथा पाताल में स्थित गंगा को भोगवती कहते हैं। केदारनाथ से होकर बहने वाली गंगा की धारा को भी मन्दाकिनी कहते हैं। पौराणिक आख्यानों में हिमालय को देवताओं का वास स्थान बताया गया है। इसी कारण कैलाश में स्थित अलका की समीपवर्तिनी गंगा को मन्दाकिनी कहा जाता है।


कनकसिकतामुष्टिनिक्षेपगूडै: – यह एक देशी खेल है । इसमें एक बालक हाथ में मणि आदि को लेकर किसी रेत के ढेर में छिपाता है और दूसरे बालक एकत्रित किये गये रेत में उसे ढूँढते हैं। शब्दार्णव में इस खेल को गुप्तमणि या गूढ़्मणि नाम से पुकारा जाता है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २५

उन्मत्तभ्रमरमुखरा: – अलकापुरी में वृक्षों पर सभी ऋतुओं में सदा पुष्प विकसित रहते हैं, इसीलिये भ्रमर भी नित्य उन पर गुञ्जारते रहते हैं।

पादपा नित्यपुष्पा: – यद्यपि वृक्षों पर समय-समय पर पुष्प विकसित होते हैं परन्तु वहाँ अलकापुरी में वृक्ष सदा पुष्पों से युक्त रहते हैं।

हंसश्रेणीरचितरशना – हंस कमलनाल खाते हैं, अलकापुरी में कमलनियों पर
सदा कमल विकसित होते रहते हैं, इसलिये वहाँ कमलनियाँ सदा हंसों से घिरी रहती हैं।

नित्यभास्वत्कलापा: – वहाँ अलकापुरी में घर-घर में पालतू मोर हैं और मोर वर्षा की काली-काली घटा देखकर कूकते हैं तथा वर्षा ऋतु में ही इनके पंखों में चमक आती है, किन्तु अलकापुरी में सदा मोर कूकते रहते हैं और उनके पंखों में चमक रहती है।

नित्यज्योत्स्ना: – क्योंकि सिर पर चन्द्रमा की कला को धारण किये हुये शिव सदा अलकापुरी के उद्यान में रहते हैं, इस कारण वहाँ की रात्रियाँ सदा चाँदनी से युक्त होती हैं।

प्रतिहततमोवृत्तिरम्या: – इससे ज्ञात होता है कि अलकापुरी में रात्रियाँ सदा प्रकाश से युक्त रहती हैं; इसलिए वहाँ कभी भी कृष्ण पक्ष नहीं होता, सदा शुक्लपक्ष ही रहता है।

आनन्दोत्थम़् – अलकापुरी में यक्षों की आँखों में आँसू हर्ष के कारण ही आते थे, दु:ख के कारण नहीं। भाव यह है कि वहाँ अलकापुरी में दु:ख नाम की कोई वस्तु नहीं है। सब और सदा सुख ही सुख रहता है, इसलिए यक्षों की आँखों में जो आँसू दिखायी देते हैं वे सब आनन्द के कारण हैं, दु:ख के कारण नहीं।

जुहु पटाटी !!

हमने अपने परिवार के साथ जुहु चौपटी घूमने जाने का कार्यक्रम बनाया और साथ मै अपने मित्र से भी पूछा और वे भी हमारे साथ आ गये। हमारे बेटेलाल की जबान पर चौपाटी शब्द चढ़ नहीं रहा था वो बार-बार पटाटी बोल रह था। हमें भी उसकी ये नई शब्दावली अच्छी लगी, कि जुहु

पटाटी कब चलेंगे

पहले हमने विले पार्ले से एक स्पोर्ट शूज लेने का फ़ैसला लिया और् फ़िर चल पड़े जुहु पटाटी की ओर। पर जाते जाते हमारे पुराने जूते ने जवाब दे दिया, हो सकता है कि नया जूता आने का गम नहीं झेल नहीं पाया होगा बेचारा और शहीद हो गया।
जब हम जुहु पटाटी पहुँचे तो बस सूर्यास्त होने ही वाला था और समुद्र का पानी आज बीच के काफ़ी पास था, बस फ़िर क्या था हम सबने अपने जूते चप्पल अपने बैग में डाले और पैंट ऊपर करके चल दिये समुद्र की लहरों से मिलने, बहुत मस्ती की और हमारे बेटेलाल तो पूरे भीग चुके थे। फ़ोटो भी लिये बहुत सुहानी हवा चल रही थी। हम अपने साथ लायी फ़ुटबाल  से खेलना शुरु किया तो बस हमारे बेटेलाल, हमारा छोटा भाई, हमारे दोस्त की पुत्री खेलने में मस्त हो गये। फ़ुटबाल खेलते खेलते हम बीच के किनारे तक पहुँच गये और फ़िर वहाँ हमने स्वादिष्ट  मीठा भुट्टा खाया, नारियल पानी पिया। और बैठकर हम लोग बात ही कर रहे थे कि इस्कॉन की यात्रा आ गई वे महामंत्र जप करते हुए बीच पर आत्मीयता के साथ चल रहे थे और सबसे निवेदन कर रहे थे कि वे भी महामंत्र का जाप करें। बहुत आनंद आया। फ़िर थोड़ी देर में निकलने के समय बहुत जोर से भूख लगने लगी तो मैकडोनल्डस पर वेज मील से तृप्ती की। हमारे पुराने जूते की समाधी वहीं जुहु पटाटी पर बनाकर हम अपने नये जूते पहन कर आये।
तो कैसी लगी आपको जुहु पटाटी की सैर, जरुर बताईयेगा।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २४

हलभृत इव – बलराम गौरवर्ण के थे और वे नीले वस्त्र धारण करते थे। जब वे कन्धे पर नीला दुपट्टा रखते थे तो और भी सुन्दर प्रतीत होते थे। इसी की कल्पना कवि ने की है कि कैलाश पर्वत श्वेत है और उस पर काला मेघ बलराम की शोभा को धारण कर लेगा।

हेमाम्भोजप्रसवि – यह मान्यता है कि गंगा आदि के दिव्य जलों में स्वर्णकमल
उगते हैं, परन्तु यहाँ स्वर्णकमल कहने का अभिप्राय यह है कि उषाकाल में सूर्य की किरणों से उनकी छटा सुनहरी हो जाती है।

कल्पद्रुम – कल्पवृक्ष पाँच देव वृक्षों में से है, ऐसी मान्यता है कि यह मन के अनुकूल वस्तुएँ प्रदान करने वाला वृक्ष है –
नमस्ते कल्पवृक्षाय चिन्तितान्न्प्रदाय च।
विश्वम्भराय देवाय नमस्ते विश्वमूर्तये॥
लीलाकमलम़् – कमल का पुष्प जब क्रीड़ा के लिए हाथ में लिया जाता है तब उसे लीलाकमल कहते हैं। कालिदास ने कुमारसम्भव और रघुवंश में भी उसका उल्लेख किया है। कमल ग्रीष्म और शरद़् में खिलता है। कुन्द हेमन्त ऋतु में, लोध्र शिशिर में, कुरबक वसन्त में, शिरीष ग्रीष्म में खिलता है तथा कदम्ब वर्षा ऋतु के आने के साथ विकसित होता है। इस प्रकार वर्णन करके महाकवि ने यह दिखाया है कि अलकापुरी में छ: ऋतुओं की शोभा सदा रहती है।

लोध्र प्रसवरजसा – लोध्र पुष्प की धूलि से – यह मुख पर लगाने के लिये पाउडर की तरह प्रयुक्त होता है। इससे स्पष्ट होता है कि प्राचीन काल में भी स्त्रियाँ मुख पर पाउडर का प्रयोग करती थीं।

जलती हुई कार पर एक आटोवाले का विश्लेषण !!

कल मतलब कि इस रविवार याने कि २० सितम्बर को हम अपने परिवार के साथ जुहु पटाटी (इसको हम बाद मैं बतायेंगे) गये थे। विले पार्ले से अपने घर ऑटो से आ रहे थे, गोरेगाँव में वेस्टर्न एक्सप्रेस हाईवे पर जाम लगा हुआ था, ट्राफ़िक सुस्त रफ़्तार से बढ़ रहा था। बस ये पता चल रहा था कि सड़क पर किसी गाड़ी में आग

लगी है।

ऑटोवाला बोला कोई छोटी गाड़ी जल रही है। वो आग को देखकर् अंदाजे से बोला, फ़िर बोला कि अरे ये तो छोटी गाड़ी है बड़ी गाड़ियाँ तक जल जाती हैं। तो हमने पूछ ही लिया कि ऐसे कैसे गाड़ियाँ जल जाती हैं, ऑटोवाला बोला कि कार बहुत लम्बे से चल कर आ रही होगी और बहुत गरम होगी, कार्बोरेटर का पानी खत्म हो गया होगा और वायर पिघल कर चिपकने से शार्ट् सर्किट हो जाने से आग लग जाती है।
कई लोग अपने आप गाड़ी जला देते हैं जो लोन की किश्त नहीं चुका पाते हैं और बीमा कंपनियों से पूरी राशि वसूल लेते हैं, और कई बार सही में जल जाती हैं। इनकी सेटिंग सब जगह रहती है।
इतने में हम जलती हुई कार के करीब से निकले हमने पहली बार कार जलती हुई देखी थी बहुत ही खौफ़नाक मंजर था, कार के चारों दरवाजे खुले हुए थे और हवा के साथ साथ आग का रुख था, चिंगारियों ने आसपास के नजारे को और खौफ़नाक बना दिया था। तमाशबीन अपनी गाड़ियाँ खड़ी करके जलती हुई कार देख रहे थे। हम रुके नहीं वहाँ से आगे चल दिये। पर वह जलती हुई कार का खौफ़नाक मंजर अभी भी भूले नहीं भूलता है, हम अपने मोबाईल से फ़ोटो लेना भूल गये।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २३

बलिनियमनाभ्युद्यतस्य विष्णो: – बलि प्रह्लाद का पौत्र तथा विरोचन का पुत्र था। वह असुरों का राजा था तथा दानशीलता के लिये प्रसिद्ध था। विष्णु वामन का अवतार लेकर ब्राह्मण के वेश में बलि के यहाँ पहुँचे और तीन पग पृथ्वी की याचना की और बलि के स्वीकार कर लेने पर पहले पग में पृथ्वी और दूसरे

पग में आकाश को नाप लिया। तीसरे पग के लिये जब कोई स्थान न रहा तब बलि ने अपना सिर विष्णु के समक्ष रख दिया। विष्णु ने तीसरे पग में उसे नापकर बलि को पाताल भेज दिया।


दशमुखभुजोच्छ्वासितप्रस्थसन्धे: – यहाँ महाकवि कालिदास ने वा.रा. के उत्तरकाण्ड सर्ग १६ की कथा की ओर संकेत किया है कि जब रावण अपने भाई कुबेर को जीतकर वापिस आ रहा था तभी उसका पुष्पक विमान रुक गया। रावण ने देखा वहाँ शिव के गण खड़े थे। उन्होंने रावण को पर्वत से होकर जाने को मना किया, जब गण नहीं माने तब रावण को बड़ा क्रोध आया और उसने कैलाश पर्वत को उखाड़ फ़ेंकना चाहा। तभी शिव ने पर्वत को अपने पैर के अँगूठे से दबा दिया। पीड़ा से वह जोर-जोर से चिल्लाने लगा; इसलिये उसे रावण (रुशब्दे – रवीति इति रावण:) कहने लगे। तब उसने शिव की पूजा की तथा शिव ने प्रसन्न होकर चन्द्रहास खड़्ग दी।

त्रिदशवनितादर्पणस्य – कैलाश पर्वत इतना निर्मल है कि उसमें देवाड्गनाएँ अपना मुख देखकर प्रसाधन कर लेती हैं। इसीलिए इसको देवताओं की स्त्रियों का दर्पण कहा गया है। त्रिदश देवता को कहते हैं। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार दी है – तिस्र: दशा: येषां ते त्रिदशा: अर्थात़् जिनकी तीन अवस्थाएँ शैशव, कौमार्य और युवावस्था होती हैं, उनकी वृद्धावस्था नहीं होती। दूसरे – तृतीया दशा येषां ते अर्थात जिसकी केवल तृतीय ही अर्थात़् युवावस्था ही होती है। तीसरे – त्रि:दश परिमाणमेषामस्तीति त्रिदशा: अर्थात़् तीन बार दश – तीस अर्थात ३० वर्ष की अवस्था वाले, देवता सदा तीस वर्ष की अवस्था के ही रहते हैं।

झाबुआ की कुछ यादें नवरात्र गरबा डांडिया की….

          झाबुआ छोड़े हुए काफ़ी समय हो गया लगभग १४ वर्ष परंतु नवरात्र की बात याद आते ही अकस्मात ही झाबुआ की यादें आ जाती हैं क्योंकि उन दिनों हम कालेज में थे और अपना दोस्तों का दायरा भी अच्छाखासा था। नवरात्र शुरु होने के १०-१५ दिन पहले से ही

रोज शाम को गरबा की प्रेक्टिस करने वालों की और सीखने वालों की भीड़ लगी होती थी। चूँकि झाबुआ गुजरात से बिल्कुल लगा हुआ है इसलिये पारंपरिक गुजराती गरबा वहाँ देखने को मिलता है।

          गरबा लगभग ७ बजे से शुरु होता था और देर रात तक चलता रहता था लगभग १२ बजे तक, गरबा आयोजक मंडलियां अच्छे गरबा गायकों को पहले से ही बुक करके रखती थीं जिनकी डिमांड बाहर से भी खूब आती थी। गरबा करने के लिये कोई ड्रेस कोड नहीं होता था बस आपको गरबा आना चाहिये, ड्रेस कोड केवल आखिरी २-३ दिनों के लिये होता था। डांडिये भी जरुरी नहीं कि आप अपने साथ लायें और उस गरबा आयोजक से पहचान होना भी जरूरी नहीं था बस श्रद्धा होनी चाहिये मन में। वहाँ हरेक आयोजन में १ या २ गोले वाला गरबा नृत्य करने वाले होते थे और लगभग २०-३० मिनिट का एक गरबा होता था। पर आजकल के गरबे में पहले आयोजक के साथ रजिस्ट्रेशन करवाना जरुरी होता है हरेक जगह पर, झाबुआ में अभी भी ये सब जरुरी नहीं है। हाँ एक और बात सब जगह केवल लड़्कियों को ही गरबे करते देखते हैं, लड़्कों को नहीं परंतु झाबुआ में ऐसा नहीं है। जब तक हम झाबुआ में थे तब तक हमने भी गरबा किया परंतु उसके बाद कहीं गरबा करने को न मिलने के कारण हम डांडिया से दूर हो गये।
           वहाँ हमने गरबे में बहुत से करतब देखे जैसे कि गरम कटोरों में कण्डों में आग लगाकर दोनों हाथों में और सिर पर तगारी रखकर नृत्य करते हुए, २ तलवारों के साथ नृत्य करते हुए। लोग कहते थे कि जिनको देवीजी आती है केवल यह सब कठिन नृत्य वही कर पाते हैं। हमें पता नहीं कि ये सब आराधना से आता है या प्रेक्टिस से पर इतना पता है कि कोई न कोई शक्ति जरुर होती है।
            नवरात्री सबके लिये मंगलमय हो और माँ अपना आशीर्वाद सबके ऊपर बनाये रखें यही कामना है।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २२

त्रिपुरविजय: – पुराणों के अनुसार मय नामक राक्षस ने आकाश, अन्तरिक्ष और पृथ्वी पर सोने, चाँदी, और लोहे के तीन नगर बनाये थे। त्रिपुर में स्थित होकर विद्युन्माली, रक्ताक्ष और हिरण्याक्ष देवताओं को सताने लगे। इसके बाद देवताओं ने शिव से प्रार्थना की। शिव ने देवताओं की प्रार्थना से उन दैत्यों पर वाणों की वर्षा की, जिससे वह निष्प्राण होकर गिर पड़े। मय राक्षस ने त्रिपुर में स्थित सिद्धाऽमृत रस

के कूप में उन्हें डाल दिया, इससे वे पुन: जीवन धारण करके उन देवताओं को पीड़ित करने लगे। तब फ़िर विष्णु और ब्रह्मा ने गाय और बछ्ड़ा बनकर त्रिपुर में प्रवेश करके उस रसकूपाऽमृत को पी लिया, तदन्तर शिव ने मध्याह्न में त्रिपुर-दहन किया।



हंसद्वारम़् – पौराणिक प्रसिद्धि के अनुसार वर्षा ऋतु में हंस मानसरोवर जाने के लिये क्रौञ्च रन्ध्र में से होकर जाया करता हैं। इसी कारण इसे ’हंस द्वार’ कहा जाता है।


भृगुपतियशोवर्त्म – परशुराम भृगु ने कुल में प्रमुख पुरुष माना जाता है, इसलिये इसे भृगुपति या भृगद्वह कहा जाता है। क्रौञ्चारन्ध्र को परशुराम के यश का मार्ग कहा जाता है। इस विषय में दो कथाएँ प्रचलित हैं –
१. जब परशुराम शिव से धनुर्विद्या सीख कर आ रहे थे तो उन्होंने कौञ्च पर्वत को बींधकर अपना मार्ग बनाया था, इसलिये क्रौञ्चरन्ध्र को परशुराम के यश का मार्ग कहते हैं।
२. जब परशुराम कैलाश पर शिव से धनुर्विद्या सीख रहे थे, तब एक दिन कार्तिकेय की क्रौञ्च भेदन की कीर्ति की ईर्ष्या के कारण परशुराम ने क्रौञ्च भेदन किया। कारण चाहे जो हो, किन्तु इस कार्य को करके परशुराम की संसार में कीर्ति फ़ैल गयी थी।


क्रौञ्चरन्ध्रम़् – महाभारत में इसे मैनाक पर्वत का पुत्र बताया गया है। इसकी भौगोलिक स्थिती अस्पष्ट है।


तिर्यगायामशोभी – क्रौञ्च पर्वत का छिद्र छोटा है और मेघ बड़ा है; अत: उस छिद्र में से मेघ नहीं निकल पायेगा।  उसमें से निकलने के लिये उसके तिरछा होकर जाने की कल्पना कवि ने विष्णु के वामन अवतार से की है। तिरछा होने पर उसका आकार लम्बा हो जायेगा, जिससे वह विष्णु के फ़ैले हुए पैर के समान प्रतीत होगा।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २१

शुभ्रत्रिनयनवृषोत्खातपड़्कोपमेयाम़् – बैल आदि जब सींगों से मिट्टी आदि को उखाड़्ते हैं तब उसे उत्खातकेलि कहते हैं। यहाँ कवि ने कल्पना की है कि श्वेत हिम युक्त हिमालय पर स्थित काला मेघ ऐसा लगता है जैसे शिव के नन्दी बैल, ने जो कि श्वेत है, अपने ऊपर उखाड़ी हुई कीचड़ डाल दी हो।
                          यहाँ महाकवि ने शिव के लिए त्रिनयन शब्द का प्रयोग कर एक कथा की ओर संकेत किया है यह कथा महाभारत के अनुशासन पर्व

के अ. १४० में आयी है कि एक बार हास परिहास में पार्वती जी ने शिव के दोनों नेत्र बन्द कर लिये, जिससे सम्पूर्ण संसार में अन्धकार व्याप्त हो गया। तब शिव ने ललाट में तृतीय नेत्र का आविर्भाव किया। शिव का यह नेत्र क्रोध के समय खुलता है; क्योंकि कामदेव भी तृतीय नेत्र की अग्नि से ही भस्म हुआ था।



शरभा: – शरभ का अर्थ स्पष्ट नहीं है। आठ चरणों से युक्त यह एक प्राणी विशेष होता है। आजकल यह प्राप्त नहीं होता है। प्रो. विल्सन ने शरभ को शलभ का रुपान्तर माना है और उसका अर्थ टिड्डा किया है। पुराणों में वर्णित कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने नृसिंह का अवतार लेकर हिरण्यकशिपु को चीरकर मार डाला। जब इतने पर भी उनका क्रोध शान्त नहीं हुआ और उनके क्रोध से लोक संहार का भय उपस्थित हो गया, तब देवताओं ने महादेव ने महादेव से प्रार्थना की। तब महादेव ने शरभ का रुप धारण कर नृसिंह को परास्त कर संसार को संरक्षण प्रदान किया।


संरम्भोत्पतनरभसा: – यह शरभ का विशेषण है। शरभ को सिंह का प्रतिपक्षी कहा जाता है तथा इसे सिंह से भी शक्तिशाली माना जाता है; अत: मेघ की गर्जन को सिंह की दहाड़ समझकर अहंकार के कारण शरभ का मेघ पर आक्रमण करना स्वाभाविक है। अत: कवि यहाँ मेघ पर आक्रमण की कल्पना करता है।


चरणन्यासम़् – पूर्वी देशों में ऐसी मान्यता है कि पर्वत आदि स्थानों पर देवों तथा सन्तों आदि के निशान होते हैं। शम्भुरहस्य में शिव के पैरों के चिह्नों को श्रीचरणन्यास कहा जाता है। चरणन्यास को कुछ लोग हरिद्वार में हर की पैड़ी स्थान मानते हैं।


परीया: – हिन्दू धर्म में देव आदि की परिक्रमा का विशेष विधान है। इसमें श्रद्धा के साथ भक्त लोग अपने दायें हाथ की ओर देवमूर्ति करके उसका चक्कर लगाते हैं, इसे परिक्रमा कहते हैं।

कुछ बातें कवि कालिदास और मेघदूतम़ के बारे में – २०

वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड अ. ३९-४० के अनुसार राजा सगर ने इन्द्र पद प्राप्ति के लिये अश्वमेध यज्ञ प्रारम्भ किया, परन्तु पर्व के दिन इन्द्र ने राक्षस का रुप बनाकर अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को चुराकर पाताल में कपिल मुनि के आश्रम में बाँध दिया। सगर के साठ हजार पुत्र घोड़े को खोजते हुए कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे और उनको ही उस अश्व का चोर

समझ लिया। उन्होंने मुनि का अपमान किया। मुनि ने भी अपने तेज से उन सभी को भस्म कर दिया। जब वे नहीं लौटे तो अंशुमान ने उनकी भस्मी खोजी तथा मुनि से प्रार्थना की। तब मुनि ने कहा यदि गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर आ जाये तो इनका उद्धार हो सकता है। इस पर राजा भगीरथ घोर तपस्या करके गंगाजी को पृथ्वी पर लाये तथा अपने पितरों का उद्धार किया। इसलिये गंगा को सगर पुत्रों के लिये स्वर्ग की सीढ़ी कहा जाता है।



गौरीवक्त्रभ्रुकुटिरचनाम – पौराणिक कथा के अनुसार ब्रह्मा ने भगीरथ ने कहा कि तुम तपस्या करके शिव को प्रसन्न करो, जिससे कि वे स्वर्ग से गिरती हुई गंगा को सिर पर धारण कर लें। राजा भगीरथ ने वैसा ही किया। इससे यहाँ कवि ने कल्पना की है कि जब शिव ने गंगा को सिर पर धारण कर लिया, तब पार्वती का भी सौतिया डास से भृकुटि तान लेना स्वाभाविक था। इसे देखकर गंगा ने अपने झाग से पार्वती का उपहास किया, परन्तु गंगा ने प्रौढ़ा नायिका के समान पार्वती की उपेक्षा करके शिव के केश पकड़ लिये।
सुरगज देवताओं का हाथी है, दिग्गज आठ माने जाते हैं। अमरकोश के अनुसार यह निम्न हैं –
ऐरावत: पुण्डरीको वामन: कुमुदोऽञ्जन: ।
पुष्पदन्त: सार्वभौम: सुप्रतीकश़्च दिग्गजा: ॥
अस्थानोपगतयमुनासड़्गमा – स्थान से भिन्न प्राप्त कर लिया है, यमुना का संगम जिसने। भाव यह है कि गंगा और यमुना का संगम का स्थान प्रया है, किन्तु रवि ने कल्पना की है कि कनखल में गंगा पर पहुँचकर जब मेघ जल लेने के लिये नीचे झुकेगा तो उसकी परछाई से ऐसा लगेगा कि जैसे कनखल में ही गंगा-यमुना का संगम उपस्थित हो गया हो। यमुना का जल श्याम होता है और मेघ का रंग भी श्याम है।