Monthly Archives: October 2009

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ९

       जो कुछ हुआ था, उसका पूरा हाल शाम को शोण ने मुझे सुनाया कि उस वृषभ ने मुझको परास्त करने का बहुत प्रयास किये थे, लेकिन मेरे आगे उसकी एक न चली। लगभग दो घण्टों तक वह उछल-उछलकर अपने सिर को झटकता रहा था। उसने अपने शरीर को बहुत-से विचित्र झटके दिये। बीच-बीच में वह जोर से कूदता, पैरों के खुरों से जमीन कुरेदता; लेकिन अन्त में वह थक गया और चुपचाप खड़ा हो गया। उसके मुँह से झाग निकलने लगा। वह लगातार ’फ़ूँ-फ़ँ’ कर रहा था। इतने में शोण भागते हुए गया और पिताजी को बुला लाया। उन्होंने ही उसके नाथ डाली, लेकिन मेरे हाथों की पकड़ छुड़ाते समय उन्हें बहुत ही परेशानी हुई। सुनते हैं कि मेरी देह के हाथ लगाते ही ऐसी जलन होती थी, जैसे कि आग को छू लिया हो।

      मैं विचारम्ग्न हो गया। दो घंटे तक एक जंगली पशु से जूझते रहने पर भी मेरे शरीर पर कोई खरोंच तक नहीं आयी। क्यों ? मेरा शरीर इतना कैसे तप्त हो गया कि छूते ही छाला पड़ जाता था ?

     मैंने उत्सुकतावश शोण से पूछा, “शोण, खेलते समय कभी तुझे चोट लगी है क्या ?”

वह बोला, “अनेक बार”।

      शोण को चोट लगती है। उसकी देह से रक्त बहता है। तो फ़िर मेरी देह से भी वह बहना ही चाहिए। मैं झटपट उठा और सीधा पर्णकुटी में गया। वहाँ अनेक धनुष-बाण पंक्ति-बद्ध रखे हुए थे। सर्र से उनमें से एक बाण मैंने खींच लिया । निश्चय कर हाथ से उस बाण को मैंने सिर से ऊँचा उठाया कि अब उसकी तीक्ष्ण नोक ठीक पैर के पंजे पर आयेगी, और उस बाण को हाथ से छोड़ दिया। अब वह कच से मेरे पैर में घुस जायेगा, यह सोच सिहरकर मैंने तत्क्षण आँखें मीच लीं। बाण पैर पर पड़ा, लेकिन मुझको केवल इतना ही लगा जैसे कि घास की सींक-सी चुभ गयी हो ! बाण की नोक मेरे पैर की खाल में घुसी नहीं थी। मुझे लगा कि मैंने बाण छोड़ने में ही भूल कर दी है, इसलिये बार-बार मैंने वो बाण अपने पैरों पर गिराया। लेकिन एक बार भी उसकी नोक मेरे पैर की त्वचा में नहीं घुस पायी। मैंने गौर से अपने पैर की ओर देखा। वहाँ छोटा सा घाव तक नहीं हुआ था।

        उत्सुकता और संदेह का राक्षस मेरे सामने अनेक प्रश्नों की लटें बिखारकर नाचने लगा। मैं अपने हाथ में लगे बाण को नोक को विक्षिप्त की तरह जंघा में, बाँहों में, छाती में, पेट में – जहाँ जगह मिली वहीं पूरी शक्ति से घुसाने का प्रयत्न करने लगा। लेकिन कहीं भी वह शरीर के भीतर तिल-भर भी नहीं घुस सका। क्यों नहीं घुस सका वह ? क्या मेरे शरीर की त्वचा अभेद्य है ? मन के आकाश में सन्देह की एक बिजली इस ओर से उस छोर तक चमक गयी। हाँ ! निश्चय ही मेरी सम्पूर्ण देह पर किसी से भी न टूट सकनेवाला अभेद्य कवच होना चाहिये। अभेद्य कवच ! वाह, दौड़ते हुए रथ में से भी यदि मैं कूद पड़ूँ तो मुझको कभी चोट नहीं लगेगी ! पत्थर, कंकड़ या किसी शस्त्र से भी मैं कभी घायल नहीं हो सकूँगा। घायल नहीं हो सकूँगा मतलब – मैं कभी मरुँगा नहीं। कभी नहीं मरुँगा। मेरी यह सुवर्ण रंगी त्वचा सदैव इसी तरह चमकती रहेगी। मैं अमर रहूँगा। मुझे कवच मिला है, मेरे कानों मे जगमगाते हुए कुण्डल हैं। अकेले मुझे ही क्यों मिले हैं ? मैं कौन हूँ ?

      सन्देह की टिटहरी मेरे मन के आकाश में कर्कश स्वर में किकियाने लगी। ऐसा प्रतीत होने लगा कि मैं इन सबसे अलग कोई हूँ, इनमें और मुझमें बहुत बड़ा अन्तर है। लेकिन इन विचारों से स्वयं मुझको बहुत दुख होने लगा । जिस राधामाता का मैंने दूध पिया था, जिसके रक्त-मांस का उत्तराधिकार पाकर मैं बड़ा हुआ था, जिसने मेरे लिए कठिन परिश्रम के पर्वत को धारण किया, उसके प्रेम से – उपर्युक्त विचारों द्वारा क्या मैं कृतघ्न नहीं हो रहा था ? मेरा मन विद्रोह कर उठा और कठोर शब्दों में मुझको चेतावनी देने लगा, “मैं कौन हूँ ? मैं कौन हूँ ? – यह पागलों की तरह मत चिल्ला ! ध्यान रख कि तू तात अधिरथ और राधामाता का पुत्र है ! सूतपुत्र कर्ण है ! शोण का बड़ा भाई कर्ण है ! सारथियों के कुल का एक सारथी है ! एक सारथी !”

हमारे एक मित्र का जीमेल पर स्टेटस …. प्रबंधन पर खरी खरी

हमारे एक मित्र नीरज आनंद के जीमेल स्टेटस से ये पंक्तियां ली गई हैं –

A team of Lion lead by donkey can be defeated by a team of donkies lead by a Lion…

एक शेर के समूह का नेतृत्व अगर गधा करता है तो वो अवश्य हारेगा, उस गधों के समूह से जिनका नेतृत्व एक शेर कर रहा है….

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ८

      इस प्रकार हमारी बातें हो ही रही थीं कि एक विशालकाय वृषभ जय-जयकार की चिल्लाहट से बिदक गया। अपनी झब्बेदार पूँछ एकदम खड़ी कर ली। आवाज जिस ओर से आ रही थी, उस ओर कान लगाये, फ़ुफ़कारते हुए, नथुने फ़ुलाये और सींगों को आगे किये हुए वह कान उठाकर सीधा उस और दौड़ने लगा, जिस ओर हम सब बैठे हुए थे। ब्रह्मदत्त ने उसका वह भयंकर रुप देखा और जान बचाकर जिधर अवसर मिला उधर भागता हुआ, वह हाथ ऊँचा कर चिल्लाया, “सेनापति…. महाराज… भागिए-भागिए … राज्य पर … संकट…..”

      वर्षा का पानी धरती पर पड़ते ही जैसे क्षण भर में ही, सब और फ़ैल जाता है, वैसे ही सबके सब क्षण-भर में नौ-दो ग्यारह हो गये। शोण मेरे पास आकर भाग जाने के लिये मेरा हाथ पकड़कर खींचने लगा। मैं झटपट उसी पाषाण पर तनकर खड़ा हो गया। शोण को ऊपर चढ़ाकर उसको अपने पीछे खड़ा कर लिया। झंझावत की तरह वह वृषभ हमारी और आने लगा। उसकी आँखें आग उगल रही थीं। सामने जो कोई वस्तु दिखाई दे, उसी को ठोकर मारकर उसकी धज्जी उडाने के लिये उसके मस्तक की नस-नस शायद व्याकुल हो उठी थी। उसके मुख से निरन्तर लार टपक रही थी। सिंहासन के सम्मुख आते ही वह क्षण-भर रुका। अगले पैरों के खुरों से उसने खर-खर मिट्टी खोदी और सींग गड़ाकर वह सूची बाण की तरह एकदम उछला। मैंने क्षण-भर आकाश की ओर देखा।

       सूर्यदेव अपने रथ के असंख्य घोड़ों को केवल अपने दो हाथों से ही सरलता से सँभाल रहे थे। कुछ समझ में आये, इसके पहले ही मैंने शोण को पीछे धकेल दिया और दूसरे ही क्षण मेरे हाथों की दृढ़ पकड़ वृषभ के सींगों के चारों ओर कस गयी। शोण ने “भै‍ऽयाऽऽ“ कहकर जो चीत्कार किया वह मुझको अस्पष्ट-सा सुनाई दिया। इसके बाद क्या हुआ, यह मुझको अच्छी तरह याद नहीं रहा। लेकिन मुझको उठाकर फ़ेंकने के लिए उसकी सींगों के चारों ओर कसकर लिपटते गये थे। मुझको ऐसा लगा, जैसे कि मेरा शरीर रथचक्र की तप्त लौह-हाल की तरह प्रखर हो गया हो। इसके बाद वसु कौन था, कहाँ था, इसका कुछ भी पता मुझको नहीं चला।

       जिस समय मेरी आँख खुली, मैं उसी पठार पर था, लेकिन मेरा सिर माँ की गोद में था। समीप ही पिताजी खड़े थे। उन्होंने हाथ में उस वृषभ की नाथ पकड़ रखी थी। थोड़ी देर पहले आँखें लाल किये उछलनेवाला वृषभ अब थककर हाँफ़ता हुआ खड़ा था। उसके मुँह से शायद झाग निकल रहा था। मैंने जैसे ही आँखें खोली शोण के मुँह पर एक हँसी आ गई जो कि पहले से मेरे सिर के पास खड़ा था। सब बच्चे मुझे घेरकर खड़े थे, फ़िर मैं अपनी सारी शक्ति एकत्रित करके खड़ा हुआ ये देखने के लिये कि मुझे चोट आ गई होगी क्योंकि मुझे थकान का अनुभव हो रहा था। देह पर कहीं भी जरा-सी खरोंच तक नहीं आयी थी। पिताजी से उस वृषभ की नाथ अपने हाथ में ले ली और हाँफ़ते हुए वृषभ की पीठ पर कसकर थाप मारी। उसकी त्वचा भय से क्षण-भर को सिहर उठी। अपनी पूँछ अन्दर की ओर करता हुआ वह तत्क्षण मुझसे दूर हट गया। पास ही उस वृषभ का गोपाल खड़ा था, मैंने उस वृषभ की नाथ उसके हाथ में दे दी। वह गोपाल आँखें फ़ाड़कर मेरी ओर देखता हुआ अपना वृषभ लेकर चला गया। राजसभा भी समाप्त हो गई।

बापू ने बोला है कि कभी दोस्ती मत तोड़ो.. (Netver Break Dosti…. ) :)

यह कटु सत्य है

कि दोस्ती कैसे टूटती है ?

ATT000131 

दोनों दोस्त सोचते हैं कि दूसरा कार्य में व्यस्त हैं
ATT000102 ATT000083

और बात नहीं करते हैं ATT000054 ये सोचकर कि शायद वो उन्हें परेशान कर देंगे..

जबकि दोनों ही टाईम पास कर रहे होते हैं
ATT000215 

दोनों सोचते रहते हैं कि दूसरे को पहले बात करने दो
ATT000166 

उसके बाद दोनों सोचते हैं कि पहले मैं क्यों बात करुँ ?
ATT000068ATT000037 

आखिरकार बिना बात करे यादें कमजोर हो जाती हैं

ATT000099 

और फ़िर एक दूसरे को भूल जाते हैं।

ATT0000210

तो सबसे बात करते रहो और ये बात सभी दोस्तों को भॆज दो..

ATT0000411, ATT0001912  

मैं इस तरह का नहीं होना चाहता हूँ।
ATT0001713 

इसलिये मैं सभी को ईमेल भेज रहा हूँ
ATT0000114

कहने के लिये ATT0001415

ATT0001516
प्रिय,

मैं यहाँ ठीक हूँ

ATT0002217

हमेशा अपना ख्याल रखना और अपने बारे में बताते रहना
ATT0002018

बापू ने बोला है

’अगर कोई तुमको ईमेल न करे, सुप्रभात/ शुभरात्रि न बोले,’

काल/ एस.एम.एस. न करे …. तो कोई बात नहीं, तुम ईमेल/ चेट करते रहो ……

सुप्रभात / शुभरात्रि बोलते रहो ……..

काल / एस.एम.एस. भी करते रहो……..

देखना उसकी आत्मा एक दिन जरुर जागेगी

और वो भी तुम्हें ईमेल/काल/एस.एम.एस./चेट जरुर करेगा / करेगी
ATT0000719
और अगर फ़िर भी कोई ईमेल/काल/एस.एम.एस. नहीं आये

तो उसके पास जाना, उसे एक गुलदस्ता देना…. और कहना……

‘GET WELL SOON MAAMU’
ATT0001220

टिप्पणी दे दो मामू

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सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ७

              एक दिन नगर के सभी बालक इकट्ठे होकर नगर के बाहर पठार पर खेल रहे थे। किसी ने राजसभा का खेल खेलने की कल्पना निकाली थी। राजसभा का चित्र गढ़ रखा था। पिताजी हस्तिनापुर से आये थे और मैं शोण को बुलाने गया था, वो सेनापति बना था। आते ही पिताजी ने एक बड़ी आनन्ददायक बात बतायी कि हस्तिनापुर वापिस जाते समय वे मुझको भी अपने साथ ले जाने वाले थे वहाँ द्रोण नामक अत्यन्त युद्ध-कुशल और विद्वान गुरुदेव हैं, पिताजी मुझको युद्ध-विद्या की शिक्षा प्राप्त करने के लिये उनकी देख-रेख में रखना चाहते थे। इसलिये मैं एकदम शोण को ढूँढ़ता हुआ आया कि मैं उसे समझा बुझाकर यह समाचार बताऊँगा। क्योंकि भय था कि समाचार सुनकर कहीं वह भी हस्तिनापुर चलने की हठ न कर बैठे ! उसको समझाना हम सबके लिये टेढ़ी खीर था।

         पठार के पास जैसे ही मैं पहुँचा शोण ने जोर से पुकारा “वसु भैया, जल्दी आ।“ मैं झटपट उनके पास गया। जैसे ही वहाँ पहुँचा, सब मुझको घेर कर खड़े हो गये। सबके सब बहुत जोर-जोर से चिल्लाने लगे, इसलिए मैं तत्क्षण यह समझ ही नहीं पाया कि वे क्या कह रहे हैं ?

        “राजा…वसु…कुण्डल…सेनापति” आदि विचित्र शब्द गूँजते हुए कानों से टकराने लगे। अन्त में मैं ही जोर से चिल्लाया , “पहले सब चुप तो हो जाओ !”

      “हम सबने राजसभा तैयार की है। केवल योग्य राजा ही हमको नहीं मिल रहा था। तेरे कुण्डलों के कारण हमने तुझी को राजा बनाने का निश्चय किया है।“ सबकी और से ब्रह्मदत्त बोला और सबने एक साथ चिल्लाकर उसका समर्थन किया।

“अरे मैं तो शोण को बुलाने के लिये आया हूँ”। मैं बोला।

       “ऊँहूँ, शोण नहीं, सेनापति ! और सेनापति को बुलाने के लिये महाराज नहीं जाया करते हैं। हम जैसे सेवकों को आज्ञा दी जाती है ।“ नटखट ब्रह्मदत्त धूर्तता से बोला।

     “और आप हैं सेनापति ! आपको महाराज को इस प्रकार नाम लेकर बुलाना उचित है क्या ? कह रहे थे, ’अरे वसु इधर आ !’ सेनापति ही अनुशासन भंग करने लगेंगे तो फ़िर सेना क्या करेगी ?” अमात्य बने हुए ब्रह्मदत्त ने शोण को चेतावनी दी।

     मुझे जबरदस्ती एकदम उस काले पत्थर के सिंहासन पर बैठा दिया और अत्यन्त आदर से झुकता हुआ ब्रह्मदत्त बोला, “चम्पानगराधिपति वसुसेन महाराज की……”

      सबने अत्यन्त आनन्द से उसके प्रत्युत्तर में कहा, “जय हो !” सब नीचे बैठ गये। अब मेरा छुटकारा होना असम्भव था, इसलिये मैं भी राज की शान से बोला, “अमात्य, सभा का काम-काज सभा के सम्मुख प्रस्तुत करने की अनुज्ञा दी जाती है।“

मेरे सभी दोस्तों को (To All my friends…)

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Friendship is not about “I m sorry”  its about “अबे तेरी गलती है "

Friendship is not about “I m there for u” or “I missed u “  it’s about “कहाँ मर गया साले”

Friendship is not about “I understand “  its about “सब तेरी वजह से हुआ मनहूस”

Friendship is not about “I care for u  “  its about “कमीनों तुम्हें छोड़ के कहाँ जाऊँगा”

Friendship is not about “I m happy for ur success “its about “चल पार्टी दे साले

Friendship is not about “I love that girl“  its about “सालों इज्जत से देखो तुम्हारी भाभी है”

Friendship is not about “R u coming for outing tomorrow “ its about “ नौटंकी नहीं, हम कल बाहर जा रहे हैं”

Friendship is not about “Get well soon “ its about “ इतना पियेगा तो यही होगा साले”

Friendship is not about “All the best for ur career“ its about “ बहुत हुआ, अभी तो स्विच मार साले”

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ६

    हमारी पर्णकुटी के सामने एक बड़ा वट वृक्ष था। वृक्ष क्या, अनेक रंगों के और अनेक प्रकार की बोली बोलने वाले पक्षी जिस पर रहते थे, ऐसा छोटा-सा एक पक्षि-नगर ही था।

    मैं उस वृक्ष की ओर देख रहा था। उसका आकार गदा की तरह था। ऊपर शाखाओं का गोलाकार घेरा और नीचे सुदृढ़ तना। इतने में अजीब-सी ’खाड़’ आवाज हुई, इसलिए मैंने उस ओर देखा। हमारे पड़ोस में रहनेवाला भगदत्त नामक सारथी अपने हाथ में लगे हुए प्रतोद को फ़टकार रहा था। मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। हाथ में लगे प्रतोद को गरदन के चारों ओर लपेटता हुआ वह बोला, “क्यों वसु, क्या देख रहे हो?”

“कुछ नहीं, वह पक्षी देख रहा हूँ।“ मैंने उत्तर दिया।

     “इस वटवृक्ष पर क्या पक्षी देखते हो, पक्षी देखने हों तो अरण्य में अशोक-वृक्ष के पास जाकर देखो। इस वटवृक्ष पर अधिकतर कौए ही रहते हैं। सड़े पके फ़लों को खाने के लिए वे ही आते हैं।“ हाथ में लगे प्रतोद के डण्डे से नीचे पड़े हुए फ़लों को फ़ेंकता हुआ वह बोला।

“कौए ?”

“हाँ ! भारद्वाज, श्येन, कोकिल आदि पक्षी भूले-भटके भले ही आ जायें यहाँ। एकाध कोकिल आ जाता है, वह भी कोकिल की धूर्तता से।“

“धूर्तता कैसी ?” मैंने उत्सुकता से उससे पूछा।

     “अरे, कोकिला अपना अण्डा मादा कौआ की अनुपस्थिती में चुपचाप उसके घोंसले में लाकर रख देती है। अण्डे का रंग और आकार बिल्कुल मादा कौए के अण्डे जैसा ही होता है। इसलिए मादा कौआ को यह सन्देह ही नहीं होता कि अपने घर में किसी और का अण्डा रखा है। फ़िर मादा कौआ कोकिला के अण्डे को सेती है। उसके बाद सप्तस्वर में तान लेकर आस-पास के वातावरण को मुग्ध कर देने वाली कोकिल मादा कौआ के नीड़ में बड़ा होने लगता है।“ उसने प्रतोद को कण्ठ के चारों ओर लपेट लिया।

     “कोकिल और वह मादा कौआ के घोंसले में ?” मैं विचार करने लगा। यह कैसे सम्भव हो सकता है ? भगदत्त की बात असत्य न होगी, इसका क्या प्रमाण है ? और थोड़ी देर के लिए यदि यह सत्य मान भी लिया जाये तो क्या हानि है। हो सकता है मादा कौआ के घर में कोकिल पलता हो। लेकिन वह कौआ बनकर थोड़े ही पलता है। वसन्त ऋतु का अवसर आते ही उसकी सप्तस्वरों की तान पक्षियों से स्पष्ट कह ही देती है कि, “मैं कोकिल हूँ। मैं कोकिल हूँ।“

एक मुलाकात ताऊ और सुरेश चिपलूनकर से

अभी हम दीवाली की छुट्टियों पर अपने घर उज्जैन गये थे, जिसमें हमारा इंदौर जाने का एक दिन के लिये पहले से प्लान था । इंदौर में हमारे बड़े चाचाजी सपरिवार रहते हैं, तो बस घर की साफ़ सफ़ाई के बाद वह दिन भी आ गया। एक दिन पहले शाम को टेक्सी के लिये फ़ोन कर दिया क्योंकि इंदौर मात्र ५५ कि.मी. है। और चाचीजी से फ़रमाईश भी कर दी कि स्पेशल हमारे लिये दाल बाफ़ले बनाये जायें, ताऊ से पहले ही बात कर ली थी कि हम इंदौर आने वाले हैं तो उन्होंने एकदम कहा कि मिलने जरुर आईयेगा, बहुत ही आत्मीय निमंत्रण था।

कुछ फ़ोटो इंदौर पहुंचने के पहले के –

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उज्जैन से इंदौर का फ़ोरलेन का कार्य प्रगति पर है।

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सांवेर में नरम और मीठे दाने के भुट्टे और बीच में ऊँटों का कारवां।

हम इंदौर पहुंच गये सुबह ही घर पर परिवार के साथ समय कैसे जाता है पता ही नहीं चला फ़िर हमने ताऊ से बात की तो वे बोले कि कभी भी आ जाइये कोई समस्या नहीं है, हमने ये सोचा था कि वे अपने कार्य में व्यस्त होंगे तो हमें टाइम दे पायेंगे या नहीं।

हम पहुंच गये ताऊ के यहाँ उन्होंने बहुत ही सरल तरीके से हमें अपना घर का पता बता दिया था तो हम बिना पूछताछ के ही सीधे उनके घर पहुंच गये। साथ में थीं हमारी धर्मपत्नीजी भी। ताऊ बोले कि ताई अभी दीवाली की खरीदी करने बाजार गई हैं नहीं तो आपको उनसे भी मिलवाते।

ताऊ ने घर पर ही अपना ओफ़िस बना रखा है, बिल्कुल जैसा सोचा था ताऊ वैसा ही निकला। फ़िर आपस में पहले परिचय हुआ (वो तो पहले से ही था) पर ठीक तरीके से, अपने अपने इतिहास को बताया कि पहले क्या करते थे अब क्या करते हैं।

ब्लोगजगत के बारे में बहुत सी चर्चा हुईं, हाँ उनकी बातों से ये जरुर लगा कि वे ब्लोग के लिये बहुत ही गंभीर रहते हैं और अपनी वरिष्ठता होने के साथ वे बहुत गंभीर भी हैं, अधिकतर ब्लोगर्स के सम्पर्क में रहते हैं और वे अपना सेलिब्रिटी स्टॆटस समझते हैं।

उन दिनों हमने ७ दिन का पोस्ट न लिखने का विरोध करा था, उस पर भी काफ़ी बात हुई वे भी बहुत दुखी थे, बहुत सारे ब्लोगर्स के बारे में बात हुई पर खुशी की बात यह है कि ताऊ केवल हिन्दी ब्लोग की तरक्की चाहते हैं और इसके लिये उनके कुछ सपने भी हैं, जो आने वाले दिनों में साकर करेंगे, सफ़लता के लिये हम कामना करते हैं। ताऊ से अल्प समय के इस मिलन में हमने ताऊ से बहुत सारे गुर सीखे।

इंदौर के ब्लोगर्स के बारे में बात हुई तो ताऊ बोले कि केवल दिलीप कवठेकर जी ही हैं और तो किसी को जानता नहीं। फ़िर दो दिन पहले ही कीर्तिश भट्ट जी से बात हुई “बामुलाहिजा” वाले, वे बोले कि अगर हमें पहले से पता होता तो वे भी मिल लेते क्योंकि वे भी इंदौर में ही रहते हैं।

बस फ़ोटो खींचने का बिल्कुल याद ही नहीं रहा। कुछ दिन पहले अविनाश वाचस्पति जी से बात हुई थी तब उन्होंने याद दिलाया था कि किसी भी ब्लोगर से मिलें एक फ़ोटो जरुर खींच लें भले ही अपने मोबाईल से हो।

ये गलती हमने सुरेश चिपलूनकरजी से मिलने गये तो नहीं दोहराई।

हम सुरेशजी से मिलने पहुंचे तो हमने गॉगल लगा रखा था तो वे हमें पहचान ही नहीं पाये पर गॉगल उतारने पर एकदम पहिचान लिये। गले मिलकर दीवाली की हार्दिक शुभाकामनाएँ दी फ़िर बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ।

Suresh Chiplunkar and Vivek Rastogi

सुरेश चिपलूनकर जी और मैं विवेक रस्तोगी उनकी कर्मस्थली पर

बात शुरु हुई तो पता चला हमारे बहुत से कॉमन दोस्त और पारिवारिक मित्र हैं । फ़िर बात लेखन के ऊपर हुई तो यही कि प्रिंट मीडिया को तो छापने के लिये कुछ चाहिये और वे चोरी से भी परहेज नहीं करते, और अगर लेखक को कुछ दे भी दिया तो ये समझते हैं कि वे कंगाल हो जायेंगे। हमने बताया कि हम भी पहले ऐसे ही लिखते थे परंतु हालात अच्छॆ न देखकर लिखना ही बंद कर दिया।

फ़िर बात शुरु हुई  हमारे ७ दिन के पोस्ट न लिखने के ऊपर तो उनके विचार थे कि ये लोग कभी सुधर ही नहीं सकते इन सबसे अपना मन मत दुखाईये पर हम भी क्या करें हैं तो हम भी हाड़ मास के पुतले ही ना, कोई तो बात दिल को लगेगी ही ना।

सुरेश जी से भी बहुत सारे मुद्दों पर चर्चा हुई, तो उन्होंने कहा कि ब्लोग को एक विचारधारा पर रखकर ही आगे बड़ा जा सकता है, उनकी ये बात सौ फ़ीसदी सत्य है।

ब्लोग की व्यवहारिक कठिनाईयों के बारे में भी बात हुई वे बोले कि कुछ ब्लोगर्स मित्र हैं जो कि तकनीकी मदद करते हैं, क्योंकि हम तकनीकी रुप से उतने सक्षम नहीं हैं।

एग्रीगेटर के बारे में भी बात हुई कि कोई भी फ़्री की चीज पचा नहीं पा रहा है और हमले किये जा रहे हैं।

हमने उन्हें बताया कि हमें उनकी लेखन की कट्टरवादी शैली बहुत पसंद है जो कि राष्ट्रवाद और हिन्दुत्व की अलख हर दिल में जलाती है।

बहुत सारी बातें की फ़िर हमने उनसे विदा ली, बताईये कैसी लगी मुलाकात ताऊ और सुरेश चिपलूनकर से।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ५

    पर्णकुटी में पिताजी के लाये हुए अनेक प्रकार के और अनेक आकारों के धनुष थे। पता नहीं क्यों, लेकिन जब मैंने पहली-पहली बार उनमें से एक धनुष देखा था, और उसके प्रति मुझको जो आकर्षण लगा था, वह अद्भुत था। उसकी कपोत की ग्रीवा की तरह मुड़ी हुई कमान और नखमात्र से छे़ड़ देने पर ही टंकार करनेवाली प्रत्यंचा मुझको बहुत अच्छी लगी थी। पिताजी के हाथ से वह छीनकर उछलते हुए आँगन में घोड़े की पूँछ के बाल से क्रीड़ा करते हुए शोण के पास आया तो वह घोड़े की पूँछ के बाल निकालने में व्यस्त था, ये उसका प्रिय खेल था, मैं उसे बोला कि छोड़ अब इस खेल को, और धनुष दिखाते हुए बोला कि “देख ये है अपना नया खिलौना”।

    उत्सुकता से नाचता हुआ मेरे पास आकर मेरे हाथ से धनुष लेकर बड़ी बड़ी आँखें बनाकर बोलता है “यह तो बड़ा भारी है रे ?”

    और कर्ण के मन में यहीं से धनुर्विद्या के प्रति प्रेम और लगाव हुआ। वह पहले वट वृक्ष पर फ़िर हिलने वाली आम की डालियों के डण्ठल और एक साथ दो बाणों को भिन्न भिन्न लक्ष्यों का वेध करना। कर्ण सीखना चाहता था लक्ष्य को न देखते हुए आवाज की दिशा में बाण चलाना, जैसे साही नामक जन्तु रक्षा के लिये अपनी देह से सौ-दो सौ नलिकाएँ एक साथ छोड़ सकता है, उसी तरह से एक साथ असंख्य बाण छोड़ना सीखना चाहता था।

     कर्ण अकसर अपने कान के मांसल कुंडलों को हाथ लगाकर कुछ महसूस करने की कोशिश करता था। वैसे कुण्डलों के संबंध में कभी भी माँ से कोई भी सन्तोषप्रद उत्तर नहीं मिल सका था। एक बार तो उसने साफ़ साफ़ पूछा था “शोण और मैं – दोनों सगे भाई हैं न, फ़िर उसके क्यों नहीं है कुण्डल ?” भयभीत सी घबराहट में मेरे कुण्डलों की तरफ़ देखती और सचेत होकर कहती “मुझसे मत पूछो यह ! अपने पिताजी से पूछो।“

      मैं (कर्ण) उसी समय पिताजी के पास जाकर वही प्रश्न किया तो उन्होंने बड़ा ही विचित्र उत्तर दिया बोले “गंगामाता से पूछ इसका कारण ! कभी दिया तो इस प्रश्न का उत्तर वही तुझको देगी !” विचारमग्न सा चला गंगामाता भला कैसे उत्तर दे देगी ! क्या नदी कभी बोल सकेगी ? ओह, ये बड़े लोग कैसा व्यवहार करते हैं। छोटों से इस तरह की बातें क्यों करते हैं।

     उसी सायं सबकी दृष्टि से बचकर मैं अकेला ही गंगामाता के तट पर जाकर बैठ गया। उसकी लहर-लहर से मैंने प्रश्न पूछा, परन्तु एक भी लहर मेरे इस प्रश्न का उत्तर न दे सकी। उस दिन मुझको संसार के सभी बड़े लोग कपटी लगे। छोटों को अज्ञान के अन्धकार में रखने का काम वे ही करते हैं, नहीं तो फ़िर इतनी बड़ी गंगामाता चुप क्यों रही ?

      फ़िर वही प्रश्न अगले दिन खेलते समय मैंने शोण से किया, उसके उत्तर को सुनकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वह बोला “मैं भी यह बात नहीं जानता हूँ । लेकिन इतना अवश्य है कि तुम्हारे कुण्डल मुझको बहुत ही अच्छे लगते हैं। रात को जब तुम सो जाते हो, ये तारों की तरह अविरत जगमगाते रहते हैं। उनका नीला-सा प्रकाश तुम्हारे लाल गालों पर बिखरा रहता है।“

     मेरे मन में एकदम अनेक प्रश्न उमड़ आये। जो अन्य किसी के पास नहीं थे, ऐसे दो मांसल कुण्डल मेरे कानों में थे। इतना ही नहीं वे चमकते भी थे। मुझको यों ही क्यों मिले ? कौन हूँ मैं ? शोण के दोनों कन्धों को झकझोरते हुए मैंने तड़पकर उससे पूछा, “शोण मैं कौन हूँ ?”