Monthly Archives: November 2009

फ़ोरेनरों को उनके देश से पढ़ा के भेजा जाता है कि “भारतीय चोर होते हैं”, और वे खुद…

    क्या आपने कभी सुना है कि भारत का वीसा मिलने के बाद फ़ोरेनरों के लिये उनका दूतावास एक मोडरेशन क्लास लेता है और उसमें भारत में बरती जाने वाली सावधानियों के बारे में बताया जाता है और लगभग यह वाक्य हर बार दोहराया जाता है “कि भारतीय चोर होते हैं..”, और वे खुद..

    हम कल का टाईम्स ऑफ़ इंडिया आज सुबह पखाने में पढ़ रहे थे क्योंकि हमारा समाचार पत्र थोड़ा लेट आता है और हमको सुबह उठकर एकदम प्रेशर बन जाता है, तो कुछ समाचार वहीं पर इत्मिनान से पढ़ लेते हैं।

    तो उसमें एक खबर थी कि वकील अपना फ़ोन एटीएम में भूल गया और फ़ोरेनर ने उसे उठा लिया।

   हाईकोर्ट वकील एटीएम में पैसे निकालने गया और अपना कीमती ब्लैकबैरी मोबाईल एटीएम के ऊपर ही भूल गया, जब १५ मिनिट बाद उसे ध्यान आया कि मोबाईल तो एटीएम में ही भूल गया हूँ, लेकिन वापिस आने पर मोबाईल वहाँ नहीं मिला। उन्होंने पहले पुलिस में शिकायत दर्ज करवाई और फ़िर एचडीएफ़सी बैंक के वीडियो क्लिप देखने पर पता चला कि उनके बाद तीन फ़ोरेनरों ने एटीएम का उपयोग किया था और उसमें से एक उनका मोबाईल उठा कर ले गया मतलब कि चोरी की। वकील ने एचडीएफ़सी बैंक के चैन्नई ऑफ़िस से जानकारी निकाली तो पता चला कि चोर आस्ट्रेलिया का है। वहीं से उनको उसका नाम और बैंक एकाऊँट नंबर भी मिल गया जब मोबाईल को ट्रेस किया गया तो पता चला कि अभी वह दिल्ली में है, उससे ईमेल पर अपील भी की है कि मोबाईल वापिस दे दे और आस्ट्रेलियन दूतावास को भी ईमेल कर शिकायत कर दी गई है, पर अभी तक कुछ नहीं हुआ है, कोलाबा पुलिस मामले की छानबीन कर रही है।

    तो इस बात से ये तो साबित हो गया कि मुफ़्त की चीज सभी को अच्छी लगती है, चोरी के कीटाणु सभी में होते हैं बस किसी के एक्टीवेट होते हैं किसी के नहीं।

पूरा समाचार आप यहाँ पढ़ सकते हैं।

हमारी पिछली पोस्ट “हमने अपना फ़्लैट शिफ़्ट किया और मुंबई में लोगों को बहुत करीब से देखा देखिये और बताईये कि आपका नजरिया क्या है…. उत्तर भारतीय और मराठी मानुष” …. पर आई टिप्पणियों पर हमारे विचार…

 
राज भाटिय़ा जी ने लिखा है –

आप ने बहुत गुस्से मै यह पोस्ट लिखी है, ओर आप की बात से सहमत हुं, लेकिन फ़िर भी हमे ऎसा नही करना चाहिये, अगर हम सब ऎसा करने लग गये तो भारत के टुकडे टुकडे हो जायेगे,चारो तरफ़ खुन खरावा होगा, बल्कि हमे इन राजनीति करने वालो को घेरना चाहिये, लोगो को जागरुक करन चाहिये कि इन की बातो मै ना आये, वोट उसे दे जो साफ़ हो गुंडो मवालियो ओर चोर उच्चाको को मत दे अपना वोट चाहे बेकार चला जाये, जो धर्म भाषा, जात पात ओर राज्य की बात करे, अपनी ताकत की बात करे , जिस का चरित्र सब को पता हो, जो झुठे वादे करे मत दो उस कमीने को वोट, ओर बिरोध करे सब मिल कर.
अगर यह ठाकरे इअतन ही बलवान था तो क्यो नही उस समय अपनी बिल से निकला जब आतंकवादियो ने अपना भायंकर खेल खेला, कुछ बेवकुफ़ लोगो के लिये सब को बुरा मत कहो.

हाँ मैंने यह पोस्ट बहुत गुस्से में लिखी क्योंकि मैंने ये सब बहुत करीब से देखा है, और रोज ही देखता हूँ, ऐसा नहीं है कि सारे मराठी मानुष वैसे ही हैं, मेरे बहुत सारे अभिन्न मित्र मराठी हैं और बहुत मेहनत करते हैं मेरी पोस्ट उन लोगों के लिये हैं जो बात उछालकर राजनैतिक फ़ायदा ले रहे हैं और कहीं न कहीं वे लोग भी हैं जो मूक रहकर उन लोगों का समर्थन कर रहे हैं।

 
venus kesari जी ने लिखा है –

वाह वाह क्या बात है इलाहाबाद का नाम खूब रोशन हो रहा है 🙂

वीनस जी यह तो संयोग है कि सारे इलाहाबाद के मिले नहीं तो हमें तो रोज ही बिहार, उत्तरप्रदेश और भी अन्य राज्यों के लोग मिलते ही रहते हैं। वैसे इलाहाबादियों की भाषा में बहुत मिठास होती है।

बी एस पाबला जी ने लिखा है –

किसी भी क्षेत्र के स्थानीय निवासियों की बनिस्बत बाहरी व्यक्ति अपना स्थान व आजीविका सुरक्षित कर ही लेता है। फिर चाहे वह पंजाब हो या कनाडा, अमेरिका या फिर महाराष्ट्र!

क्योंकि बाहरी व्यक्ति अपना सर्वस्व छोड़कर कुछ कर दिखाने की तमन्ना से आया होता है इसलिये उसका परफ़ार्मेन्स हमेशा स्थानीय निवासियों से अच्छा होता है।

 
Udan Tashtari जी ने लिखा है –

बड़े गुस्से में हैं भाई!! खैर, है तो बात सरासर गलत. विरोध होना ही चाहिये।

समीर जी गुस्से में तो हैं पर इस गलत बात का विरोध तो करना ही होगा नहीं तो हम भी उस मूक भीड़ का हिस्सा हो जायेंगे जिनके विरोध के लिये हम मुखर हुए हैं।

 
Arvind Mishra जी ने लिखा है –

"अगर ये लोग उत्तर भारत के लोगों को मार रहे हैं तो उत्तर भारत के लोगों को मराठी लोगों को मारना चाहिये जो वहाँ रह रहे हैं और उनको महाराष्ट्र भेज देना चाहिये।"
1. आपकी पीड़ा समझी जा सकती है मगर यह कोई हल नहीं है !
2. यह मामला राज सरकार /केंद्र सरकार का है वह सख्ती से निपटे

पर इस राज सरकार पर केंद्र सरकार भी तो कोई कदम नहीं उठा रही है, क्योंकि इनके गुर्गे वहाँ पर भी हैं और गहरी पेठ जमा रखी है। इनके दिखाने के मुँह और ओर बोलने के कुछ ओर हैं।

 
संगीता पुरी जी ने लिखा है –

आपकी सोंच सही है .. मेरे ख्‍याल से भारत के सभी महानगर पूरे भारत के हैं .. जो भी उसे अपने प्रदेश का समझते हैं .. वो महानगर छोडकर उस प्रदेश के गांवों में चले जाएं .. इससे समस्‍या समाप्‍त हो सकती है !!

बिल्कुल सही है भारत के सभी महानगर पूरे भारत के हैं, पर ये लोग जो सवाल उठा रहे हैं ये लोग भी मराठी प्रदेश के किसी हिस्से से आये हैं और अब खुद को मुंबई का कर्ता धर्ता बताने में लगे हैं।

 
Suresh Chiplunkar जी ने लिखा है –

पहले भी मराठियों को "गोड़से" होने की वजह से 50 साल पहले मार-मार कर भगाया गया था, अब फ़िर से हिन्दी प्रदेशों से "ठाकरे" होने की वजह से मार-मार कर भगा दो भाई… कौन रोक सकता है… मूल समस्या को समझने की बजाय किसी एक व्यक्ति के कर्मों की सजा पूरे समुदाय को दे दो…।
नोट – "सरकारी कार्यालयों" में काम करने वाले सचमुच के "हरामखोरों" में से कितने प्रतिशत मराठी हैं यह भी पता करना पड़ेगा अब तो

सुरेश जी का दर्द उभर कर आया है मराठियों के लिये, पर सुरेशजी ये सभी मराठियों के लिये नहीं है आप देखें मैंने सबसे आखिरी में एक वाक्य लिखा है – “थू है मेरी ऐसे लोगों पर जो ये सब कर रहे हैं और जो इनको समर्थन कर रहे हैं। मैं अपना विरोध दर्ज करवाता हूँ।”

केवल एक या दो लोगों के कारण पूरे समुदाय को बिल्कुल सजा नहीं मिलनी चाहिये.. बिल्कुल सही कहा है, पर समुदाय के लोगों को खुलकर विरोध भी तो दर्ज करवाना चाहिये कि तुम लोग हमारे पूरे समुदाय को बदनाम कर रहे हो।

“अरे दम है तो रोको प्राईवेट बैंको को, व्यावसायिक संस्थाओं को, सॉफ़्टवेयर कंपनियों को जिनमें बाहर के लोग याने कि अधिकतर उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय लोग चला रहे हैं, वहाँ मराठियों का प्रतिशत देखो  तो इनको अपनी औकात पता चल जायेगी। ये वहाँ टिक नहीं पायेंगे क्योंकि इन लोगों को काम नहीं करना है केवल हरामखोरी करना है सरकारी कार्यालयों में।”

यहाँ प्रतिशत निकालने की जरुरत नहीं है क्योंकि हरेक प्रदेश में प्रदेशवासियों के लिये अपना कोटा फ़िक्स होता है, ये जो मारा मारी हो रही है वो हो रही है केन्द्र की नौकरियों के लिये। प्राईवेट में इनका प्रतिशत देखिये सब बात साफ़ हो जायेगी। आप कभी कार्पोरेट्स में सर्वे करवाईये तो सब पता चल जायेगा।

वन्दना जी और डॉ टी एस दराल जी की बातों से भी सहमत हैं

 
निशाचर जी ने लिखा है –

हरामखोरी तो भाई इधर यू0 पी० और बिहार में भी कम नहीं है. यही लौंडे जो मुंबई, दिल्ली, अहमदाबाद, सूरत में जाकर ठेला-रिक्शा खींचते हैं, मजदूरी करते हैं, सब्जी- दूध बेचते हैं, यहाँ अपने खेतों में काम करते इनकी नानी मरती है. गाँव में मजदूर ढूंढें नहीं मिल रहे और यह जूता -गाली खाने चले जाते हैं मुंबई-दिल्ली. यहाँ अपने खेतों में काम करते शर्म आती है. खेत दे दिया है बटाई पर और बम्बई जाकर कलक्टरी कर रहें हैं.जिस कारण से पिट रहे हैं वो गलत है लेकिन हैं पिटने के काबिल ही।

निशाचर जी हरामखोरी तो कहीं भी कम नहीं है क्योंकि उसकी तुलना नहीं की जा सकती है, अब एक बात आप ही बताईये कि अगर वह अपने खेतों में काम भी करेगा तो वह कितना कमा लेगा, उसकी भी बहुत सी मजबूरियां होती हैं, जिसके कारण वह अपने परिवार से दूर रहकर ये सब काम करता है, अगर वहाँ कमायेगा तो कितना १५०० या ज्यादा से ज्यादा २००० पर यहाँ उतनी ही मेहनत करके वो १० से १२ हजार कमा लेता है, और आधे से ज्यादा पैसे अपने घर पर भेजकर अपना घर परिवार को सुकून देता है। हाँ ये लोग मुम्बई में आकर कलक्टरी नहीं कर रहे हैं पर अपने परिवार को वो सब दे पा रहे हैं जो वे वहाँ रहकर नहीं दे सकते थे। मैं रोज ही इन चीजों को बहुत करीब से देखता हूँ और उनका दर्द भी समझता हूँ। ये पिटने के काबिल हैं या नहीं ये तो समाज बता सकता है, और इस पर सार्थक बहस हो सकती है।

 
प्रवीण शाह जी लिखते हैं –

ऊपर जो कुछ उद्धरित किया है आपके आलेख से, अत्यंत आपत्तिजनक और निंदनीय है। आप पूरे मराठी समाज का ऐसा जनरलाइजेशन कैसे कर सकते है वह भी उस मराठी ट्रक ड्राईवर के बहाने। एक और बात आपके संज्ञान मेंलाना चाहूंगा कि ड्राईवर पुरे हिन्दुस्तान यहां तक कि फौज के भी एक मामले में एकमत हैं कि हम सामान उतारने चढ़ाने में हाथ नहीं बंटायेंगे।

मैंने केवल मराठी ट्रक ड्राईवर के बहाने मराठियों का जनरलाईजेशन नहीं किया है आपसे विनती है कि आप एक बार फ़िर पोस्ट को पढ़ लें, मैंने लिखा है उनके लिये जो ये कर रहे हैं और जो इस चीज का समर्थन कर रहे हैं और जो मूक रहकर भी इनका समर्थन कर रहे हैं।

 
Dr. Mahesh Sinha जी ने लिखा है –

कुछ गिने चुने स्वार्थी तत्वों के कारण सबको गाली देना कितना उचित है . यह देश की विडंबना है कि अपने प्रदेश में काम नहीं करना चाहते लेकिन बाहर जाकर सब करने को तैयार हैं. अपने क्षेत्र में लोगों को सिर्फ बरगलाना ही धंदा है।

महेश जी मैंने उन स्वार्थी तत्वों की ही भर्त्सना की है और उनके समर्थकों की, मैंने सभी मराठियों को बुरा नहीं कहा है।

 
रंजन जी ने लिखा है –

कुछ दिन बाद जब आप फिर से ये पोस्ट पढेगे तो लगेगा कि शायद आप गलत है… अच्छे बुरे हर प्रदेश/समाज/देश/जाती में होते है.. आप सामान्यकरण नहीं कर सकते…

रंजन जी मैंने कहीं भी सामान्यकरण नहीं किया है और अगर आप उससे जोड़कर देख रहे हैं तो कृप्या पोस्ट का मेरा आख्रिरी वाक्य भी पढ़ लीजिये।

हमने अपना फ़्लैट शिफ़्ट किया और मुंबई में लोगों को बहुत करीब से देखा देखिये और बताईये कि आपका नजरिया क्या है…. उत्तर भारतीय और मराठी मानुष ….

   हमने अभी अपना फ़्लैट अपने बेटे के स्कूल के पास ले लिया है और घर बदलना मतलब बहुत माथाफ़ोड़ी का काम ।

   अब अपन तो कितनी भी दूरी तय कर लो ऑफ़िस के लिये पर बच्चे को ज्यादा दूर नहीं होना चाहिये इसलिये हमने आखिरकार अपना फ़्लैट बदल लिया और स्कूल के नजदीक ही फ़्लैट ले लिया। अब मेरे बेटे को स्कूल जाने में केवल पाँच मिनिट लगते हैं, और आने में भी, हम निश्चिंत हैं।

   जब अपना फ़्लैट शिफ़्ट किया तो तरह तरह के लोगों से सामना हुआ, सबसे पहले अपने फ़्लैट के ब्रोकर का (इस पर अलग से पोस्ट लिखेंगे) जो कि पंजाबी निकले और बहुत ही प्रेमी लोग हैं, एक अंकल और एक आंटी हैं पर स्वभाव से बहुत ही अच्छे। फ़िर हमारे फ़्लैट के मालिक वो निकले इलाहाबाद के मतलब हमारे ससुराल के। फ़िर हमारे एक आल इन वन मैन हैं जो कि सब काम कर देते हैं प्लंबिंग, कारपेन्टर, इलेक्ट्रीशियन और भी बहुत कुछ वो भी उत्तरप्रदेश से। (ऐसे आदमी को ढूँढ़ना मुंबई में बहुत मुश्किल है।) फ़िर हमारे अलमारी को खोलने और लगाने वाला @होम से जो शख्स आया वो भी इलाहाबाद से। जो मजदूर था हमारा समान को जिसने शिफ़्ट किया और हमने उसके साथ बराबार हाथ बंटाया वो भी इलाहाबाद से। ट्रक ड्रायवर मुंबई का ही था खालिस मराठी।

    अब हमने सबकी तुलना की उनके व्यक्त्तिव की तो हमने पाया जो मुंबई के बाहर के हैं उनमें काम करने की आग है और काम को अपने जिम्मेदारी से करते हैं और जो मुंबई के हैं वे काम को अहसान बताकर कर रहे हैं।

   बाहर का आदमी यहाँ पैसा कमाने आया है मजबूरी में आया है पर इनकी कोई मजबूरी नहीं है, इनकी मजबूरी है कि इन्हें केवल बिना काम के दारु मिलना चाहिये और अगर कोई उस काम को करे तो उसका विरोध करें। सीधी सी बात है न काम करेंगे न करने देंगे। भाव ऐसे खायेंगे कि पैसे लेकर काम करने पर भी अहसान कर रहे हैं, और कोई थोड़ा सा कुछ बोल दो तो बस इनकी त्यौरियाँ चढ़ जायेंगी।

    अरे दम है तो रोको प्राईवेट बैंको को, व्यावसायिक संस्थाओं को, सॉफ़्टवेयर कंपनियों को जिनमें बाहर के लोग याने कि अधिकतर उत्तर भारतीय या दक्षिण भारतीय लोग चला रहे हैं, वहाँ मराठियों का प्रतिशत देखो  तो इनको अपनी औकात पता चल जायेगी। ये वहाँ टिक नहीं पायेंगे क्योंकि इन लोगों को काम नहीं करना है केवल हरामखोरी करना है सरकारी कार्यालयों में।

    मैं इस विवादास्पद मुद्दे पर लिखने से बच रहा था पर क्या करुँ जो कसैलापन मन में भर गया है उसे दूर करना बहुत मुश्किल है। अगर ये लोग उत्तर भारत के लोगों को मार रहे हैं तो उत्तर भारत के लोगों को मराठी लोगों को मारना चाहिये जो वहाँ रह रहे हैं और उनको महाराष्ट्र भेज देना चाहिये। ऐसा लगता है कि राजनीति में ये लोग देश को भूल गये हैं और पाकिस्तान और हिन्दुस्तान की लड़ाई बना रहे हैं।

   थू है मेरी ऐसे लोगों पर जो ये सब कर रहे हैं और जो इनको समर्थन कर रहे हैं। मैं अपना विरोध दर्ज करवाता हूँ।

अगर आप भारतीय रेल में यात्रा करते हुए चाय पान कर रहे हैं तो सावधान… (IRCTC’s Worst…..)

अगर आप भारतीय रेल में यात्रा करते हुए चाय पान कर रहे हैं तो सावधान…

भारतीय रेल (आईआरसीटीसी द्वारा प्रदत्त चाय) में चाय पीने के पहले सोचिये फ़िर पीने की हिम्मत कीजिये।

१. केटर्स चाय बनाने के लिये शौचालय के नल का पानी उपयोग में लेते हैं।

२. चाय शौचालय के पास की जगह पर बनायी जाती है।

३. Bath हीटर को दूध गरम करने के लिये उपयोग में लाया जाता है, चाय बनाने के लिये।

ये चित्र हमारे एक मित्र के मित्र द्वारा जनशताब्दी एक्सप्रेस में यात्रा करते समय लिये गये हैं, देखिये…

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मैं तो मर ही जाता अगर मुझे हनुमान चालीसा न याद होती…!!

पत्नी – शादी की रात तुमने जब मेरा घूँघट उठाया तो कैसी लगी थी…

पति – मैं तो मर ही जाता अगर मुझे हनुमान चालीसा न याद होती…!!

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क्यों प्रेमविवाह ज्यादा अच्छा है ????

क्योंकि “जाना हुए शैतान” अच्छा है एक “अज्ञात भूत” से।

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पत्नी – मैं तुम्हारी याद में बीस दिन में ही आधी हो गयी हूँ,

मुझे लेने कब आ रहे हो ?

पति – बीस दिन और रुक जाओ..

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पति होटल मैनेजर से – “जल्दी चलो ! मेरी बीबी  खिड़की से कूदकर जान देना चाहती है”

मैनेजर – “तो मैं क्या करुँ ?”

पति – “कमीने, खिड़की नहीं खुल रही है”

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हरेक आदमी “स्वतंत्रता सेनानी” होता है…. शादी के बाद !!

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वो कहते हैं कि तुम्हारी बीबी स्वर्ग की अप्सरा है,

हमने कहा खुशनसीब हो भाई, हमारी तो अभी जिंदा है….

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३० [कर्ण का धनुर्विद्या का गुप्त अभ्यास…]

      उस दिन सन्ध्या समय मैं नगर में गया। मरे हुए पक्षियों में भूस भरकर बेचनेवाले एक व्यक्ति से भुस भरा हुआ एक पक्षी लिया और लौट आया। रात को चारों ओर स्तब्धता होते ही मैंने शोण को जगाया। हम दोनों अपने कक्ष से बाहर निकले। मेरे हाथ में वह पक्षी था। सम्पूर्ण युद्धशाला शान्त थी। दिन-भर शस्त्रों की झनकार से कम्पित रहनेवाला वह स्थान इस समय निस्तब्ध था। स्थान-स्थान पर इंगुदी के पलीते जलते हुए उस भव्य क्रीड़ांगण को धैर्य बँधा रहे थे। उनमें से एक पलीता मैंने हाथ में ले लिया और बीच के धनुर्वेद के पत्थर के चबूतरे पर चढ़ गया। सामने ही वह विशाल अशोक वृक्ष था। उसकी ओर अँगुलि से संकेत कर अपने हाथ में लगा पक्षी शोण के हाथ में देता हुआ मैं बोला, “इस पक्षी को उस वृक्ष पर किसी ऊँचे स्थान पर बाँध दो और तुम पलीता लेकर वहीं रुके रहो।“

   “किसलिए ?” उसने आश्चर्य से पूछा।

“वह बाद में बताऊँगा। जल्दी जाओ।“

      मेरे हाथ से पलीता और पक्षी लेकर वह वृक्ष की ओर गया। सरसर गिलहरी की तरह सरकता हुआ वह क्षण-भर में ही ऊपर चढ़ गया। थोड़ी देर बाद वह बोला, “भैया, यहाँ एक शाखा से एक धागा बँधा हुआ दिखाई देता है। यहीं बाँध दूँ क्या ?”

“जितना सम्भव हो सके उतना ऊँचा जाओ अभी।“ मैं नीचे से चिल्लाया।

      वह वहाँ से और ऊँचा गया। इससे अधिक ऊँचाई पर वह अब जा ही नहीं सकता था। उसने हाथ में पकड़ा पक्षी एक डाल से बाँध दिया। वह एक अन्य शाखा पर बैठ गया। मैंने चिल्लाकर उससे कहा, “उस पलीते को इस तरह पकड़ो कि वह पक्षी मुझको दिखाई दे। तनिक भी हिलो-डुलो मत।“ उसने पलीता अच्छी तरह पकड़ लिया। मैंने धनुष उठाया और वीरासन लगाया। उस चबूतरे पर खड़े होकर ही मैंने सूर्यदेव को शिष्यत्व स्वीकार किया था। मेरा मन मुझसे कह रहा था, “याद रख, युवराज अर्जुन ने लक्ष्य की दिखाई देनेवाली एक आँख फ़ोड़ी थी। तुझको दोनों आँखें फ़ोड़नी हैं। दिखाई देनेवाली और दिखाई न देनेवाली। कैसे ? पहला बाण लगते ही वह पक्षी घूमेगा। उसका दूसरी ओर का हिस्सा सामने आ जायेगा। इतने में ही दूसरा बाण उसकी दूसरी आँख में घुसना चाहिए। ये दोनों बाण एक ही समय छोड़ने हैं और वे भी पलीते के धूमिल प्रकाश में।“

    मैंने वृक्ष की ओर देखा। पलीते की फ़ड़फ़ड़ाती हुई ज्योति से हवा का अनुमान किया। समीप रखे तरकश में से दो सूची बाण झट से खींचकर हाथ में लिये। धनुष को सन्तुलित किया और वे दोनों बाण उस पर चढ़ा दिये। प्रत्यंचा खींची। अब मैं….मैं नहीं रहा था। मेरा शरीर, मन, दृष्टि, श्वास, बाणों की दोनों नोक और पक्षी की दोनों आँखें – सब एक हो गये। खींची हुई प्रत्यंचा पर दोनों ऊँगलियाँ स्थिर हो गयीं। दोनों अँगुलियों पर दो भिन्न-भिन्न प्रभाव थे। उनमें से एक बाण थोड़ा-सा आगे जाना चाहिए था और दूसरा तुरन्त ही उसके पीछे। क्षण-भर स्थिरता रही और फ़िर दोनों बाण सूँऽऽऽऽ करते हुए एक के बाद एक धनुष से छूटे । पहला आघाता लगा और वह पक्षी एकदम घूमा। इतने में ही दूसरे बाण का एक और आघात उसको लगा और गड़बड़ी में शोण द्वारा जैसे-तैसे बाँधा गया वह पक्षी धागा टूट जाने के कारण धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। हाथ में लगा धनुष फ़ेंककर, चबूतरे की चार-चार सीढ़ियाँ एकदम उतरकर मैं दौड़ता हुआ उस वृक्ष के नीचे गया। पक्षी हाथ में लेकर एक ओर लगे पलीते के पास ले जाकर मैंने देखा। उसकी दोनों आँखों की पुतलियों में दो बाण घुसे हुए थे। सफ़लता के आनन्द से मेरी आँखें चमकने लगीं। शोण वृक्ष से उतरकर नीचे आया। दूर कहीं रात में पहरा देनेवाले पहरेदार ने मध्यरात्रि की घटकाओं के टोले लौहपट्टिका पर मारे।

हम लौटकर कक्ष में सोने चले गये।

     उस दिन से लक्ष्य-भेद के कठिन-कठिन प्रकारों को हम दोनों गुप्तरुप से रात में करने लगे, जब अखाड़े में कोई नहीं होता था। क्योंकि नीरव निस्तब्ध रात में मन को बड़ी अच्छी तरह एकाग्र किया जा सकता था, कोई व्याघात नहीं डाल सकता था।

    इसी प्रकार अभ्यास करते हुए एक के बाद एक अनेक वर्ष कैसे बीत गये, इसका न मुझको पता चला, न शोण को। मल्लविद्या के हाथ सीखने के कारण मेरा शरीर सुदृढ़ हो गया। भुजदण्ड के स्नायुओं पर जोर से मुष्टि-प्रहार करता हुआ अश्वत्थामा मुझसे कहता, “कर्ण, यह मांस है या लोहा ?”

थोड़ी देर के लिये टेन्शन भगायें… [Tension Relievers…..] हँसे और हँसायें….

अपनी बीबी को अपनी १००% कमाई देने से १०% सुख मिलता है।

किसी दूसरी को अपनी कमाई का १०% देने पे १००% सुख मिलता है।

पैसा आपका … फ़ैसला आपका…

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अजीब बात है लेकिन सच है ये तथ्य..

औरत अपने भविष्य के लिये केवल तब तक ही सोचती है जब तक उसे पति नहीं मिल जाता,

आदमी अपने भविष्य के लिये कभी नहीं सोचता जब तक कि उसे पत्नी नहीं मिल जाती !!

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शादी के पहले – स्पाईडरमैन

शादी के बाद – जैन्टलमेन

५ साल बाद – वॉचमेन

१० साल बाद – अपने ही जाल में फ़ँस हुआ स्पाईडरमैन

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जिंदगी में हमेशा हँसते रहो, मुसकराते रहो, गाते रहो, गुनगुनाते रहो…

ताकि तुम्हें देख कर ही लोग समझ जायें कि …….

तुम … “कुँवारे” हो….

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पत्नी – अगर मैं खो गयी तो तुम क्या करोगे ?

पति – मैं टीवी और अखबार में विज्ञापन दूँगा कि जहाँ कहीं भी हो… खुश रहो

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २९ [गुरु द्रोण की परीक्षा और पक्षी की आँख..]

    बीच में एक बार मैं माता से मिलने के लिए चम्पानगरी गया था। आठ दिन बाद जब लौटा तब अश्वत्थामा से पता चला कि गुरु द्रोण ने अपने सभी शिष्यों की परीक्षा ली थी। उन्होंने एक अशोक वृक्ष की ऊँची डाल पर एक मरा हुआ पक्षी, जिसमें भूसा भरा हुआ था, टँगवा दिया था। उस पक्षी की बायीं आँख को ही अचूक भेदनेवाले को उनका प्रशंसात्मक साधुवाद मिलना था। उन्होंने सभी शिष्यों को एकत्र किया और एक-एक करके प्रत्येक को उस पत्थर के चबूतरे पर बुलाकर, उसके हाथ में धनुष देकर उससे निशाना लगाने को कहा। प्रत्येक व्यक्ति आता, धनुष उठाता, प्रत्यंचा चढ़ाता, इतने में ही गुरुवर्य उससे पूछते, “बाण छोड़ने से पहले तुझको क्या-क्या दिखाई दे रहा है ?”

     अनेक जनों ने अनेक प्रकार के उत्तर दिये। उस मूर्ख भीम ने तो यह कहा कि, “मुझे परली ओर के हरे पहाड़ दिखाई पड़ रहे हैं।“ कोई कहता कि बादल दिखाई पड़ रहे हैं, कोई कहता कि पेड़ के हरे पत्ते दिखाई दे रहे हैं, कोई कहता कि वह पक्षी दिखाई दे रहा है।

    इससे गुरुदेव को सन्तोष नहीं होता । वे उस व्यक्ति को धनुष नीचे रखकर वापस जाने को कहते। सबके अन्त में अर्जुन आया। गुरुवर्य ने उससे पूछा, “अर्जुन, तुझे क्या-क्या दिखाई दे रहा है ?”

अर्जुन बोला, “मुझे केवल उस पक्षी की आँख ही दिखाई दे रही है।“

     गुरुवर्य प्रसन्न हो गये। उन्होंने पीठ पर थाप मारी और कहा, “बहुत अच्छे ! तो कर उस आँख का भेदन !” उसने तत्क्षण बाण छोड़कर उस आँख को भेद दिया। गुरुवर्य ने फ़िर उसकी पीठ पर थाप मारी।

    यह समस्त घटना मुझको अश्वत्थामा ने, अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को बीच-बीच में और बड़ी करते हुए, बतायी। अन्त में उसने मुझसे सहसा ही पूछा, “ कर्ण, यदि तू उस समय उपस्थित होता, तो तू पिताजी को क्या उत्तर देता ?”

    मैं थोड़ी देर चुप रहा। मन ही मन मैंने स्वयं को उस पत्थर के चबूतरे पर समझकर वीरासन लगाया और आँखों के सामने उस पक्षी की आँख पर दृष्टि स्थिर कर दी तथा उससे कहा, “अश्वत्थामा ! यदि मैं होता तो मैंने कहा होता, “मुझको कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। क्योंकि लक्ष्य सामने होने पर कर्ण फ़िर कर्ण रहता ही नहीं है। उसका सम्पूर्ण शरीर बाण बन जाता है। केवल बाण ही नहीं, बल्कि बाण की नोक और लक्ष्य-भेद का बिन्दु । मैंने कहा होता, मेरे नुकीले शरीर को एक तिल की जितनी जगह सामने दिखाई दे रही है।“

    मेरे इस उत्तर से आनन्दित होकर अश्वत्थामा ने मुझको अंक में भर लिया । वह बोला, “कर्ण, तू सबमें श्रेष्ठ धनुर्धर होगा।“ उसके बन्धन से अपने को छुड़ाता हुआ मैं मन ही मन निश्चय कर रहा था कि जिस युवराज अर्जुन की, उस पक्षी की आँख का भेद करने के कारण, गुरुवर्य ने इतनी प्रशंसा की थी; वही लक्ष्यभेद आज मैं करुँगा। यह करने पर गुरु द्रोण फ़िर कभी न कभी मुझको भी अपने निकट कर लेंगे। मेरी भी पीठ थपथपायेंगे।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २८ [अश्वत्थामा से मेरी निकटता और कुछ असंयमित बातें पाण्डवो से ….]

     राजप्रसाद से युद्धशाला बहुत दूर थी, इसलिए हम कुछ दिन बाद युद्धशाला में ही रहने लगे। अब राजप्रासाद से हमारा सम्बन्ध टूट गया था। वर्ष में एक बार शारदोत्सव के लिए हम राजभवन जाया करते। वह भी युवराज दुर्योधन के आग्रह के कारण। उसने और अमात्य वृषवर्मा ने हमारी अत्यधिक सहायता की थी। उसके निन्यानबे भाई थे, लेकिन अकेले दुर्योधन को छोड़कर और किसी ने कभी मेरा हालचाल नहीं पूछा था। मुझको भी औरों के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। उन सबके नाम कितने विचित्र थे! दुर्मर्ष, दुर्मुख, अन्त्यनार । यों तो मुझको एक और व्यक्ति भी अच्छा लगा था । वह था अश्वत्थामा। गुरु द्रोण का पुत्र । कितना सरल और ऋजु स्वभाव था उसका ! इतनी छोटी-सी अवस्था में ही धर्म, आत्मा, पराक्रम, प्रेम आदि विषयों पर वह कितने अधिकार से बोलता था ! अपन असमस्त अतिरिक्त समय मैं उसके साथ चर्चा करने में बिताता था। उसको मेरा केवल कर्ण नाम ही विदित था। मैं कौन हूँ, कहाँ का हूँ, यहाँ किस लिए आया हूँ, इस सम्बन्ध में उसने मुझसे कभी पूछ्ताछ नहीं की थी। इसीलिए वह मुझको सबसे अधिक अच्छा लगा था।

     एक दिन मैंने सहज ही उससे पूछा, “तुम्हारा नाम अश्वत्थामा तनिक विचित्र-सा है, तुमको नहीं लगता ?”

    छोटे बालक की तरह खिलखिलाकर हँसता हुआ वह बोला, “तुम ठीक कह रहे हो। यह नाम मुझे भी खटकता है। लेकिन जब मैं अपने नाम के सम्बन्ध में लोगों से पूछता हूँ, तब वे क्या कहते हैं, जानते हो ?”

   “और क्या कहेंगे ? तुम घोड़े की तरह रोबीले दिखाई पड़ते हो, ऐसा ही कुछ कहते होंगे ।“

    “नहीं। ये लोग कहते हैं कि जन्म लेते ही मैं घोड़े की तरह हिनहिनाया था। और इसीलिए मेरा नाम अश्वत्थामा रखा गया है। लेकिन मुझे नहीं जँचती यह बात। कोई छोटा शिशु घोड़े की तरह हिनहिनाये – यह कभी सम्भव है क्या ? परन्तु सच बात तो यह है कि मुझको अपना नाम अच्छा लगता है। क्योंकि मेरे पिताजी मुझको ’अशू’ कहते हैं। लेकिन जब मैं अकेला होता हूँ तभी कहते हैं। सबके सामने तो वे मुझको अश्वत्थामा ही कहते हैं।“

    उसकी संगति में मेरे दिन बड़े मजे में बीत रहे थे। वह मेरे कानों के कुण्डलों को छूकर कहता, “कर्ण, तुम्हारे ये कुण्डल दिन-ब-दिन और अधिक सुनहले रंग के होते जा रहे हैं। नगर के किस सुवर्णकार के पास जाकर इनपर यह सुनहला वर्क चढ़वाते हो ?”

    “मेरे इन कुण्डलों को रँगनेवाला सुवर्णकार कौन है, यह मुझे भी भला कहाँ मालूम है ! नहीं तो मैं उससे अवश्य कहता कि मेरे मित्र अश्वत्थामा को भी सुनहले कुण्डलों की एक जोड़ी दे दो। बड़ा अच्छा है यह ।“

    वह हँसकर कहता, “नहीं भाई, अपने कुण्डलों को तुम अपने ही पास रखो। कानों में सुनहले कुण्डल देखकर कोई चोर मुझ-जैसे पर्णकुटी में सोने वाले ऋषिकुमार का कान ही काटकर ले जायेगा। फ़िर तो न कुण्डल रहेंगे न कान।“ हम दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ते और अपने-आपको भूल जाते। मैं सदैव मन में सोचा करता कि गुरु द्रोण का यह पुत्र कितना निष्पाप और निराग है। परन्तु उसके पिता कितने गम्भीर और शान्त हैं। उनके मन की थाह ही नहीं मिलती है। या कि उत्तरदायित्व मनुष्य को प्रौढ़ बना देता है ? य कि कुल लोग जन्म से ही प्रौढ़ होते हैं ? वह युधिष्ठिर नहीं है क्या – सदैव गम्भीर। क्या मजाल जो कभी भूलकर भी हँसे ? परन्तु इस शाला के सभी शिष्य उसका कितना सम्मान करते हैं ! और उसका भाई अर्जुन तो जैसे सबका प्राण ही है। जहाँ देखो वहाँ अर्जुन। इस अश्वत्थामा पर भी उतना प्रेम नहीं होगा जितना कि गुरु द्रोण उस अर्जुन पर करते हैं। अर्जुन को वे इतना क्यों मानते हैं ? वैसे देखा जाये तो अश्वत्थामा के बराबर श्रेष्ठ युवक युद्धशाला में कोई और नहीं था। लेकिन उस अर्जुन के अतिरिक्त यहाँ और किसी का सम्मान नहीं था। किसी व्यक्ति का इतना महत्व बढ़ा देना कहाँ तक उचित है ! इससे वह व्यक्ति क्या उन्मत्त नहीं हो जायेगा ? वह कौन-सी कसौटी है, जिसपर खरा उतरने के कारण अर्जुन को गुरुदेव ने अपने इतने समीप कर लिया है ? अनेक बार मेरे मन में यह इच्छा हुई थी कि अश्वत्थामा से यह प्रश्न पूछूँ, लेकिन बड़े संयम से मैंने वह बात टाल दी थी। कहीं इसमें वह अपने पिता का अपमान न समझ ले। इसलिए वह प्रश्न मैं इससे कभी नहीं पूछ सकता था।