ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ६ [मोबाईल का अलार्म, मवाली दंपत्ति की असलियत सामने आई]

    झांसी से ट्रेन चलने लगी, अब कंपार्टमेंट में हम तीन लोग ही बचे, मवाली दंपत्ति और मैं। मवाली श्रीमती जी के पास उनके मोबाईल पर फ़ोन पर फ़ोन आये जा रहे थे पर वे उठा नहीं रही थीं, इस पर वे उस मवाली से बोलीं कि देखो कितने फ़ोन आ रहे हैं, और मैं उठा भी नहीं सकती, तो लड़का बोला कि फ़ोन उठाकर बात तो कर ही लो, इस पर लड़की बोली कि फ़ोन उठाया तो ट्रेन की आवाज आयेगी और उनको पता चल जायेगा कि मैं तुम्हारे साथ ट्रेन में हूँ। सुबह किसी स्टेशन पर पहुँचकर फ़ोन करुँगी और बोल दूँगी कि फ़ोन नीचे कमरे में था और मैं छत पर घूम रही थी।
    हमने भी अपना खाना निकाल कर खाना शुरु कर दिया था और साथ में यह घटनाक्रम हो रहा था, अब तो हमें पक्का यकीन हो गया कि ये शादीशुदा नहीं हैं और ये लड़की इसके चक्कर में आ गई है, या पता नहीं कुछ और पर रात घिरने के साथ ही उनकी हरकतें बढ़ने लगीं। लड़का और लड़की इस तरीके से बैठे थे कि वे चेहरे को चूम सकें और चूम भी रहे थे, हम बेचारे खिड़की के बाहर अँधेरे में ट्रेन से मनोहारी दृश्य देख रहे थे।
    अपना खाना हो गया और हमने अपने बैग से चादर और तकिया निकाल लिया कि एकाध घंटा सो लिया जाये अब धौलपुर १ बजे के पहले तो नहीं आने वाला है, और अपने मोबाईल में अलार्म भी लगा लिया, ये जानते हुए भी कि अगर एक बार सो गये तो फ़िर अलार्म क्या कोई नहीं उठा सकता है, जब तक कि नींद पूरी नहीं हो जाये। चादर बिछाई, तकिये में हवा भरी और लोअर बर्थ पर ही सो लिये, मवाली दंपत्ति ओह माफ़ कीजियेगा अब दंपत्ति नहीं कहूँगा केवल मवाली कहूँगा, क्योंकि अब पता चल गया है कि वे दंपत्ति नहीं हैं, वे भी सोने की तैयारी करने लगे, लड़के ने चादर अपर बर्थ पर बिछा दी और लड़की सोने के लिये चली गई, लड़का बाहर सिगरेट फ़ूँकने।
    हमने उससे जाने से पहले बोला कि भई हमें ग्वालियर में उठा देना, नहीं तो पता नहीं कहाँ उतरेंगे। वो ओके बोलकर चल दिया। इसी दौरान हमारी आँख लग गई, थोड़ी देर मतलब कितनी देर वो हमें भी नहीं पता पर आँख थोड़ी से खुली तो देखा कि मवाली लड़का ऊपर बर्थ पर बैठा हुआ है और लड़की उसकी गोदी में सिर रखकर लेटी हुई है। मोबाईल पर बातें हो रहीं थीं और हाथ भी घूम रहे थे, हमने सोचा कि ये सब देखने से अच्छा है कि सो ही जायें, और वैसे भी हमारी आँखें खुलने का नाम नहीं ले रही थीं। हम फ़िर सो लिये।
    फ़िर आँख खुली तो पाया कि ट्रेन ग्वालियर में खड़ी है, और ये मवाली लोग अपने में ही मशगूल हैं, पर देखने लायक स्थिती में नहीं हैं, पता नहीं लोग घर पर ये सब क्यों नहीं करते हैं ? क्या ये आजादी सबको अच्छी लगती है ? ये प्रश्न खुद से था या किसी ओर से ये भी नहीं पता। क्योंकि इस तरह के दृश्य अवन्तिका एक्सप्रेस जो कि मुंबई से इंदौर चलती है आम होते हैं, कालेज से आई नये लड़के लड़कियों की फ़ौज किसी सोफ़्टवेयर कंपनी में रिक्रूट हुई होती है और जहाँ ३-४ दिन की छूट्टियाँ हुईं तो रिजर्वेशन की मारा मारी तो होती ही है, आरक्षित बर्थ कम होती हैं तो लड़के लड़कियाँ युगल बनाकर अपर बर्थ पर एक दूसरे से चिपककर सो जाते हैं, पता नहीं ये सब अपनी संस्कृति का कितना ध्यान रखते हैं, पर ये आजादी निश्चित ही ठीक नहीं है। हम इस संदर्भ में और कुछ लिखना नहीं चाह रहे हैं, इसलिये माफ़ी चाहते हैं, क्योंकि ये सब देखकर मन खिन्न हो जाता है, कि माँ बाप ने पता नहीं कितने अरमानों से इन लोगों को भविष्य संवारने के लिये यहाँ भेजा है और ये देखो पता नहीं क्या संवार रहे हैं।
    ग्वालियर में हम उठ कर बैठ गये क्योंकि अब हमारा सफ़र केवल ४५ मिनिट का था और हम सोने का खतरा मोल नहीं लेना नहीं चाहते थे, ट्रेन अपनी फ़ुल रफ़्तार से भागी जा रही थी और हम खिड़की के पास बैठकर बाहर से आती गरम हवा का लुत्फ़ ले रहे थे। डबरा निकला फ़िर आया मुरैना स्टेशन तो हमने भी फ़ोन करके बोला कि मुरैना निकल गया है स्टेशन लेने भेज दो, क्योंकि रात को १ बजे धौलपुर में स्टेशन से अकेले निकलना सुरक्षित नहीं रहता है, लूट होती ही रहती है। हालांकि हमारे पास ऐसा कुछ था नहीं परंतु डर तो डर ही होता है।
    हम अपना समान लेकर ट्रेन के दरवाजे के पास आ गये, वहाँ पर लोग अपनी चादर बिछाकर सोये हुए थे जिनको रिजर्वेशन नहीं मिला था, निकलने के लिये पूरी जगह छोड़ी हुई थी कि किसी को आने जाने में तकलीफ़ न हो। रात थी इसलिये चंबल की घाटियाँ दिख नहीं रही थीं पर हम उन्हें महसूस कर रहे थे, मैंने २-३ बार इन बीहड़ घाटियों को बहुत पास से देखा है, जहाँ प्रसिद्ध डाकुओं ने राज किया है, और आज भी बहुत डाकू हैं। फ़िर चंबल का पुल आया वहाँ से धौलपुर केवल ५ मिनिट का रास्ता होता है। आखिरकार ट्रेन स्टेशन पर रुकी और हम चल दिये घर की ओर अपने साले साहब के साथ।
    शाम को वापिस उज्जैन के लिये निकलना था, इसलिये बातचीत सुबह पर छोड़कर चुपचाप सो लिये। बातचीत होती रही, साथ हम सोते भी रहे थकान के कारण, दिन में कहीं मिलने जाना था तो २-३ घंटे बाजार में मिल भी आये। धौलपुर में तो अभी से ही दोपहर मॆं लू चलने लगी थी, बहुत दिनों बाद लू का अहसास हुआ था। शाम को हमारी ट्रेन ५.३० बजे थी देहरादून इंदौर, ३ ए.सी. में पहले से ही रिजर्वेशन था इसलिये निश्चिंत थे कि बस गर्मी थोड़ी देर और सहनी है। जब घर से निकले थे तब ट्रेन केवल ५ मिनिट लेट बतायी गयी थी, और धीरे धीरे पूरे ५० मिनिट लेट हो गयी। रेल्वे की संचार क्षमता पर हमें कोई शक नहीं परंतु कार्य करने वाले तो आदमी ही हैं ना, कितनी ही बार हमने इस बाबत झांसी मंडल में शिकायत भी की है, परंतु वही ढ़ांक के तीन पात। हर बार झांसी मंडल से एक पत्र आ जाता है कि शिकायत दुरुस्त की गई है, अब आगे से शिकायत नहीं होगी, अब तो खैर हमने शिकायत करना ही बंद कर दी है।



जारी….

6 thoughts on “ऐसे ही कुछ भी, कहीं से भी यात्रा वृत्तांत भाग – ६ [मोबाईल का अलार्म, मवाली दंपत्ति की असलियत सामने आई]

  1. @राज जी – वो तो मवाली था, वह कुछ भी कर सकता था, परंतु हमारी पढ़ी लिखी पीढ़ी वही करे वो भी सार्वजनिक स्थानों पर!!! हजम नहीं होता । स्थिती शोचनीय हो गई है, यह लैंगिक आजादी और आकर्षण कहीं इस पीढ़ी को गर्त में तो नहीं ढ़केल रहा है।

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