Tag Archives: कर्ण

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३२ [कर्ण का अन्तर्द्वन्द….]

clip_image001 विचारों के घोड़े मेरे मन के रथ को खींचने लगे। मनुष्य भी इस राजहंस की तरह ही नहीं होता है क्या ? उसको जिसकी आवश्यकता होती है, उसको ही ग्रहण करता है और शेष छोड़ देता है। मैंने भी ऐसा ही नहीं किया था क्या ? युवराज दुर्योधन और अश्वत्थामा इन दो को छोड़कर उस विशाल राजनगरी के अन्य किस व्यक्ति को मैं अपने निकट लाया था ? औरों के प्रति मेरे मन में अपनत्व क्यों नहीं था ? इसका उत्तर कैसे दिया जा सकता था ! वह राजहंस क्या कभी यह बता सकेगा कि उसने पानी छोड़कर ठीक दूध ही कैसे चुन लिया ? लेकिन इसमें मेरा भी क्या दोष है ! युवराज दुर्योधन ने स्नेह से मेरी पूछ-ताछ की इसलिए मैं भी उससे प्रेम करता हूँ ? मनुष्य का प्रेम धरती की तरह होता है। पहले एक दाना बोना पड़ता है। तभी धरती अनेक दानों से भरी हुई बालियाँ देती है। मनुष्य भी ऐसा ही होता है। प्रेम का एक शब्द मिलने पर वह उसके लिये मुक्त मन से प्रेम की शब्दगंगा बहाने को तैयार रहता है। इसीलिए दुर्योधन के प्रति मेरे मन में प्रेम था। अश्वत्थामा तो बड़ा भोला-भाला और निश्छल था। उसमें और शोण में मुझको कभी कोई अन्तर ही नहीं प्रतीत हुआ। अन्य किसी से मेरा परिचय ही नहीं था। सबसे परिचय करना सम्भव भी नहीं था, क्योंकि उतना समय मेरे पास कहाँ !

वह भीम तो हमेशा अपनी शक्ति के घमण्ड में चूर हुआ उस अखाड़े की मिट्टी में ही लोट मारता रहता था। जब वह अखाड़े के बाहर होता, तब कुछ न कुछ खाता ही रहता। उसके स्वर कितने भोंडे थे। उसके आँखें बड़ी-बड़ी टपकोड़े-सी थीं और जब वह सोता था तब आँधी की तरह खर्राटे भरता था। वह युवराज युधिष्ठिर तो घण्टों तक अश्वत्थामा से युद्ध, नीति, कर्तव्य आदि गूढ़ विषयों पर बातें करता रहता। नकुल और सहदेव केबारे में तो मुझको यह भी मालूम नहीं था कि ये कैसे हैं तथा क्या करते हैं ? युवराज दुर्योधन और दु:शासन को छोड़कर और सब व्यक्ति तो मुझको व्यर्थ ही फ़ैली हुई अमरबेल-जैसे लगते थे। क्या करना था उनसे परिचय करके! मनुष्य को उस राजहंस की तरह होना चाहिए। जो अपने मन को अच्छा लगे, वही लेना चाहिये, शेष छोड़ देना चाहिए। मुझको अबतक ऐसा ही लगता आया था।

मैं और अश्वत्थामा दोनों राजभवन से लौटे। आते समय अश्वत्थामा को कोई बात याद आ गयी। वह बीच में ही बोला, “कर्ण, मैंने मामा से तुम्हारे बारे में कुछ नहीं कहा।“

“उन्होंने तुमसे राजकुमारों की तैयारी पूछी थी। युद्धशाला के सभी शिष्यों की नहीं।“

“लेकिन फ़िर भी तुम्हारे बारे में मैं बहुत कुछ कह सकता था।“

“क्या-क्या कहते तुम मेरे बारे में ? इन कुण्डलों और कवच के बारे में ही न ? इनके विषय में अब नगर के सभी लोग जान गये हैं।“

“नहीं। मैंने कहा होता कि अर्जुन धनुष में, दुर्योधन गदा में, भीम मल्लविद्या में, नकुल खड़्ग में, दु:शासन मुष्टियुद्ध में, सहदेव चक्र में, युधिष्टिर युद्धनीति में और…और कर्ण इन सबके सब प्रकारों मे अत्यन्त प्रवीण हो गया है।“

वह मेरी स्तुति कर रहा था या सत्य कह रहा था – वह जानना कठिन था। क्योंकि प्रेम मनुष्य को अन्धा कर देता है। मैं उसका मित्र था। उसका मित्र – प्रेम क्या उसको अन्धा नहीं कर सकता था ? इसलिए मैंने कुछ भी न कहा।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३१ [अश्वत्थामा के साथ मेरी मामा शकुनि से मुलाकात और राजहंस का किस्सा….]

आज से मैं वापस मृत्युंजय की कड़ियों की
शुरुआत कर रहा हूँ, कोशिश करुँगा कि अब अंतराल न हो।

एक बार अश्वत्थामा के साथ मैं यों ही राजभवन पर गया। राजभवन के सामने सरोवर के किनारे, दुर्योधन के मामा शकुनि बैठे हुए थे, उनके हाथ में एक श्वेत-शुभ्र राजहंस था। उस श्वेत पक्षी के प्रति मेरे मन में बड़ा आकर्षण था। पानी में अपने पैरों की डाँड़ चलाता हुआ गरदन को कितने शानदार झटके देता हुआ घूमता रहता है वह ! मानो जल-साम्राज्य का वह अकेला ही सम्राट हो। हम दोनों शकुनि मामा के पास गये। वे लगभग महाराज धृतराष्ट्र जैसे ही दिखाई पड़ते थे। लेकिन उनको एक आदत थी। बातें करते समय वे सदैब भौंहों को हिलाते रहते थे। उनसे बात करने वाले का ध्यान बार-बार उनकी छोटी-छोटी आँखों के ऊपर स्थित मोटी भौंहों की ओर जाता। हाथ में पकड़े राजहंस को सहलाते हुए उन्होंने अश्वत्थामा से पूछा, “क्यों अश्वत्थामा, सभी राजकुमार, युद्धशास्त्र में कहाँ तक बढ़े ?”


“अर्जुन धनुष में, दुर्योधन गदा में, भीम मल्लविद्या में, नकुल खड्ग में, दु:शासन मुष्टियुद्ध में, सहदेव चक्र में और युधिष्ठिर युद्धनीति में अत्यन्त निपुण हो गये हैं।” अश्वत्थामा ने उत्तर दिया।

“तब तो फ़िर जल्दी ही एक बार सबकी परीक्षा लेनी चाहिये।”

“जी हाँ, यही विचार पिताजी भी कर रहे हैं।” अश्वत्थामा ने कहा। इतने में ही एक सेवक पाषाण के पात्र में दूध ले आया। उसने वह पात्र तालाब के किनारे रख दिया। शकुनि मामा ने अश्वत्थामा के हाथ में देकर झुकते हुए सरोवर में से अंजलि भरकर पानी लिया और उस पाषाण-पात्र में डाल दिया।

“मामाजी, यह क्या दूध की बचत की जा रही है ?” अश्वत्थामा ने पूछा।

“नहीं। यह राजहंस है। इस पात्र में चाहे जितना पानी डाल दो परन्तु फ़िर भी यह पानी नहीं पियेगा।” उत्तरीय से हाथ पोंछते हुए शकुनि मामा ने भौंहे ऊँची करते हुए कहा।

“सो कैसे ?”

“अब साक्षात देख ही लो।” यह कहकर मामा ने राजहंस को धीरे से अश्वत्थामा के हाथ से लिया और उस पत्थर के पास बैठा दिया। तुरन्त ही उस पक्षी ने अपनी शानदार गरदन उस पत्थर के पात्र में डाल दी। चुर-चुर आवाज करता हुआ वह दूध पीने लगा। थोड़ी देर बाद उसने गरदन बाहर निकाली। उसने गरदन को एक बार झटका दिया। उसकी चोंच में अटके हुए दूध के चार कण निकल गये। हम सबने उत्सुक होकर झाँककर उस पत्थर के पात्र में देखा। उसमें अंजलि-भर पानी ज्यों का त्यों बचा रहा था। केवल शुद्ध पानी। शकुनि मामा ने उसको फ़िर तालाब में डाल दिया। और भौहों को हिलाया।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – ३० [कर्ण का धनुर्विद्या का गुप्त अभ्यास…]

      उस दिन सन्ध्या समय मैं नगर में गया। मरे हुए पक्षियों में भूस भरकर बेचनेवाले एक व्यक्ति से भुस भरा हुआ एक पक्षी लिया और लौट आया। रात को चारों ओर स्तब्धता होते ही मैंने शोण को जगाया। हम दोनों अपने कक्ष से बाहर निकले। मेरे हाथ में वह पक्षी था। सम्पूर्ण युद्धशाला शान्त थी। दिन-भर शस्त्रों की झनकार से कम्पित रहनेवाला वह स्थान इस समय निस्तब्ध था। स्थान-स्थान पर इंगुदी के पलीते जलते हुए उस भव्य क्रीड़ांगण को धैर्य बँधा रहे थे। उनमें से एक पलीता मैंने हाथ में ले लिया और बीच के धनुर्वेद के पत्थर के चबूतरे पर चढ़ गया। सामने ही वह विशाल अशोक वृक्ष था। उसकी ओर अँगुलि से संकेत कर अपने हाथ में लगा पक्षी शोण के हाथ में देता हुआ मैं बोला, “इस पक्षी को उस वृक्ष पर किसी ऊँचे स्थान पर बाँध दो और तुम पलीता लेकर वहीं रुके रहो।“

   “किसलिए ?” उसने आश्चर्य से पूछा।

“वह बाद में बताऊँगा। जल्दी जाओ।“

      मेरे हाथ से पलीता और पक्षी लेकर वह वृक्ष की ओर गया। सरसर गिलहरी की तरह सरकता हुआ वह क्षण-भर में ही ऊपर चढ़ गया। थोड़ी देर बाद वह बोला, “भैया, यहाँ एक शाखा से एक धागा बँधा हुआ दिखाई देता है। यहीं बाँध दूँ क्या ?”

“जितना सम्भव हो सके उतना ऊँचा जाओ अभी।“ मैं नीचे से चिल्लाया।

      वह वहाँ से और ऊँचा गया। इससे अधिक ऊँचाई पर वह अब जा ही नहीं सकता था। उसने हाथ में पकड़ा पक्षी एक डाल से बाँध दिया। वह एक अन्य शाखा पर बैठ गया। मैंने चिल्लाकर उससे कहा, “उस पलीते को इस तरह पकड़ो कि वह पक्षी मुझको दिखाई दे। तनिक भी हिलो-डुलो मत।“ उसने पलीता अच्छी तरह पकड़ लिया। मैंने धनुष उठाया और वीरासन लगाया। उस चबूतरे पर खड़े होकर ही मैंने सूर्यदेव को शिष्यत्व स्वीकार किया था। मेरा मन मुझसे कह रहा था, “याद रख, युवराज अर्जुन ने लक्ष्य की दिखाई देनेवाली एक आँख फ़ोड़ी थी। तुझको दोनों आँखें फ़ोड़नी हैं। दिखाई देनेवाली और दिखाई न देनेवाली। कैसे ? पहला बाण लगते ही वह पक्षी घूमेगा। उसका दूसरी ओर का हिस्सा सामने आ जायेगा। इतने में ही दूसरा बाण उसकी दूसरी आँख में घुसना चाहिए। ये दोनों बाण एक ही समय छोड़ने हैं और वे भी पलीते के धूमिल प्रकाश में।“

    मैंने वृक्ष की ओर देखा। पलीते की फ़ड़फ़ड़ाती हुई ज्योति से हवा का अनुमान किया। समीप रखे तरकश में से दो सूची बाण झट से खींचकर हाथ में लिये। धनुष को सन्तुलित किया और वे दोनों बाण उस पर चढ़ा दिये। प्रत्यंचा खींची। अब मैं….मैं नहीं रहा था। मेरा शरीर, मन, दृष्टि, श्वास, बाणों की दोनों नोक और पक्षी की दोनों आँखें – सब एक हो गये। खींची हुई प्रत्यंचा पर दोनों ऊँगलियाँ स्थिर हो गयीं। दोनों अँगुलियों पर दो भिन्न-भिन्न प्रभाव थे। उनमें से एक बाण थोड़ा-सा आगे जाना चाहिए था और दूसरा तुरन्त ही उसके पीछे। क्षण-भर स्थिरता रही और फ़िर दोनों बाण सूँऽऽऽऽ करते हुए एक के बाद एक धनुष से छूटे । पहला आघाता लगा और वह पक्षी एकदम घूमा। इतने में ही दूसरे बाण का एक और आघात उसको लगा और गड़बड़ी में शोण द्वारा जैसे-तैसे बाँधा गया वह पक्षी धागा टूट जाने के कारण धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। हाथ में लगा धनुष फ़ेंककर, चबूतरे की चार-चार सीढ़ियाँ एकदम उतरकर मैं दौड़ता हुआ उस वृक्ष के नीचे गया। पक्षी हाथ में लेकर एक ओर लगे पलीते के पास ले जाकर मैंने देखा। उसकी दोनों आँखों की पुतलियों में दो बाण घुसे हुए थे। सफ़लता के आनन्द से मेरी आँखें चमकने लगीं। शोण वृक्ष से उतरकर नीचे आया। दूर कहीं रात में पहरा देनेवाले पहरेदार ने मध्यरात्रि की घटकाओं के टोले लौहपट्टिका पर मारे।

हम लौटकर कक्ष में सोने चले गये।

     उस दिन से लक्ष्य-भेद के कठिन-कठिन प्रकारों को हम दोनों गुप्तरुप से रात में करने लगे, जब अखाड़े में कोई नहीं होता था। क्योंकि नीरव निस्तब्ध रात में मन को बड़ी अच्छी तरह एकाग्र किया जा सकता था, कोई व्याघात नहीं डाल सकता था।

    इसी प्रकार अभ्यास करते हुए एक के बाद एक अनेक वर्ष कैसे बीत गये, इसका न मुझको पता चला, न शोण को। मल्लविद्या के हाथ सीखने के कारण मेरा शरीर सुदृढ़ हो गया। भुजदण्ड के स्नायुओं पर जोर से मुष्टि-प्रहार करता हुआ अश्वत्थामा मुझसे कहता, “कर्ण, यह मांस है या लोहा ?”

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २९ [गुरु द्रोण की परीक्षा और पक्षी की आँख..]

    बीच में एक बार मैं माता से मिलने के लिए चम्पानगरी गया था। आठ दिन बाद जब लौटा तब अश्वत्थामा से पता चला कि गुरु द्रोण ने अपने सभी शिष्यों की परीक्षा ली थी। उन्होंने एक अशोक वृक्ष की ऊँची डाल पर एक मरा हुआ पक्षी, जिसमें भूसा भरा हुआ था, टँगवा दिया था। उस पक्षी की बायीं आँख को ही अचूक भेदनेवाले को उनका प्रशंसात्मक साधुवाद मिलना था। उन्होंने सभी शिष्यों को एकत्र किया और एक-एक करके प्रत्येक को उस पत्थर के चबूतरे पर बुलाकर, उसके हाथ में धनुष देकर उससे निशाना लगाने को कहा। प्रत्येक व्यक्ति आता, धनुष उठाता, प्रत्यंचा चढ़ाता, इतने में ही गुरुवर्य उससे पूछते, “बाण छोड़ने से पहले तुझको क्या-क्या दिखाई दे रहा है ?”

     अनेक जनों ने अनेक प्रकार के उत्तर दिये। उस मूर्ख भीम ने तो यह कहा कि, “मुझे परली ओर के हरे पहाड़ दिखाई पड़ रहे हैं।“ कोई कहता कि बादल दिखाई पड़ रहे हैं, कोई कहता कि पेड़ के हरे पत्ते दिखाई दे रहे हैं, कोई कहता कि वह पक्षी दिखाई दे रहा है।

    इससे गुरुदेव को सन्तोष नहीं होता । वे उस व्यक्ति को धनुष नीचे रखकर वापस जाने को कहते। सबके अन्त में अर्जुन आया। गुरुवर्य ने उससे पूछा, “अर्जुन, तुझे क्या-क्या दिखाई दे रहा है ?”

अर्जुन बोला, “मुझे केवल उस पक्षी की आँख ही दिखाई दे रही है।“

     गुरुवर्य प्रसन्न हो गये। उन्होंने पीठ पर थाप मारी और कहा, “बहुत अच्छे ! तो कर उस आँख का भेदन !” उसने तत्क्षण बाण छोड़कर उस आँख को भेद दिया। गुरुवर्य ने फ़िर उसकी पीठ पर थाप मारी।

    यह समस्त घटना मुझको अश्वत्थामा ने, अपनी बड़ी-बड़ी आँखों को बीच-बीच में और बड़ी करते हुए, बतायी। अन्त में उसने मुझसे सहसा ही पूछा, “ कर्ण, यदि तू उस समय उपस्थित होता, तो तू पिताजी को क्या उत्तर देता ?”

    मैं थोड़ी देर चुप रहा। मन ही मन मैंने स्वयं को उस पत्थर के चबूतरे पर समझकर वीरासन लगाया और आँखों के सामने उस पक्षी की आँख पर दृष्टि स्थिर कर दी तथा उससे कहा, “अश्वत्थामा ! यदि मैं होता तो मैंने कहा होता, “मुझको कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। क्योंकि लक्ष्य सामने होने पर कर्ण फ़िर कर्ण रहता ही नहीं है। उसका सम्पूर्ण शरीर बाण बन जाता है। केवल बाण ही नहीं, बल्कि बाण की नोक और लक्ष्य-भेद का बिन्दु । मैंने कहा होता, मेरे नुकीले शरीर को एक तिल की जितनी जगह सामने दिखाई दे रही है।“

    मेरे इस उत्तर से आनन्दित होकर अश्वत्थामा ने मुझको अंक में भर लिया । वह बोला, “कर्ण, तू सबमें श्रेष्ठ धनुर्धर होगा।“ उसके बन्धन से अपने को छुड़ाता हुआ मैं मन ही मन निश्चय कर रहा था कि जिस युवराज अर्जुन की, उस पक्षी की आँख का भेद करने के कारण, गुरुवर्य ने इतनी प्रशंसा की थी; वही लक्ष्यभेद आज मैं करुँगा। यह करने पर गुरु द्रोण फ़िर कभी न कभी मुझको भी अपने निकट कर लेंगे। मेरी भी पीठ थपथपायेंगे।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २८ [अश्वत्थामा से मेरी निकटता और कुछ असंयमित बातें पाण्डवो से ….]

     राजप्रसाद से युद्धशाला बहुत दूर थी, इसलिए हम कुछ दिन बाद युद्धशाला में ही रहने लगे। अब राजप्रासाद से हमारा सम्बन्ध टूट गया था। वर्ष में एक बार शारदोत्सव के लिए हम राजभवन जाया करते। वह भी युवराज दुर्योधन के आग्रह के कारण। उसने और अमात्य वृषवर्मा ने हमारी अत्यधिक सहायता की थी। उसके निन्यानबे भाई थे, लेकिन अकेले दुर्योधन को छोड़कर और किसी ने कभी मेरा हालचाल नहीं पूछा था। मुझको भी औरों के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। उन सबके नाम कितने विचित्र थे! दुर्मर्ष, दुर्मुख, अन्त्यनार । यों तो मुझको एक और व्यक्ति भी अच्छा लगा था । वह था अश्वत्थामा। गुरु द्रोण का पुत्र । कितना सरल और ऋजु स्वभाव था उसका ! इतनी छोटी-सी अवस्था में ही धर्म, आत्मा, पराक्रम, प्रेम आदि विषयों पर वह कितने अधिकार से बोलता था ! अपन असमस्त अतिरिक्त समय मैं उसके साथ चर्चा करने में बिताता था। उसको मेरा केवल कर्ण नाम ही विदित था। मैं कौन हूँ, कहाँ का हूँ, यहाँ किस लिए आया हूँ, इस सम्बन्ध में उसने मुझसे कभी पूछ्ताछ नहीं की थी। इसीलिए वह मुझको सबसे अधिक अच्छा लगा था।

     एक दिन मैंने सहज ही उससे पूछा, “तुम्हारा नाम अश्वत्थामा तनिक विचित्र-सा है, तुमको नहीं लगता ?”

    छोटे बालक की तरह खिलखिलाकर हँसता हुआ वह बोला, “तुम ठीक कह रहे हो। यह नाम मुझे भी खटकता है। लेकिन जब मैं अपने नाम के सम्बन्ध में लोगों से पूछता हूँ, तब वे क्या कहते हैं, जानते हो ?”

   “और क्या कहेंगे ? तुम घोड़े की तरह रोबीले दिखाई पड़ते हो, ऐसा ही कुछ कहते होंगे ।“

    “नहीं। ये लोग कहते हैं कि जन्म लेते ही मैं घोड़े की तरह हिनहिनाया था। और इसीलिए मेरा नाम अश्वत्थामा रखा गया है। लेकिन मुझे नहीं जँचती यह बात। कोई छोटा शिशु घोड़े की तरह हिनहिनाये – यह कभी सम्भव है क्या ? परन्तु सच बात तो यह है कि मुझको अपना नाम अच्छा लगता है। क्योंकि मेरे पिताजी मुझको ’अशू’ कहते हैं। लेकिन जब मैं अकेला होता हूँ तभी कहते हैं। सबके सामने तो वे मुझको अश्वत्थामा ही कहते हैं।“

    उसकी संगति में मेरे दिन बड़े मजे में बीत रहे थे। वह मेरे कानों के कुण्डलों को छूकर कहता, “कर्ण, तुम्हारे ये कुण्डल दिन-ब-दिन और अधिक सुनहले रंग के होते जा रहे हैं। नगर के किस सुवर्णकार के पास जाकर इनपर यह सुनहला वर्क चढ़वाते हो ?”

    “मेरे इन कुण्डलों को रँगनेवाला सुवर्णकार कौन है, यह मुझे भी भला कहाँ मालूम है ! नहीं तो मैं उससे अवश्य कहता कि मेरे मित्र अश्वत्थामा को भी सुनहले कुण्डलों की एक जोड़ी दे दो। बड़ा अच्छा है यह ।“

    वह हँसकर कहता, “नहीं भाई, अपने कुण्डलों को तुम अपने ही पास रखो। कानों में सुनहले कुण्डल देखकर कोई चोर मुझ-जैसे पर्णकुटी में सोने वाले ऋषिकुमार का कान ही काटकर ले जायेगा। फ़िर तो न कुण्डल रहेंगे न कान।“ हम दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ते और अपने-आपको भूल जाते। मैं सदैव मन में सोचा करता कि गुरु द्रोण का यह पुत्र कितना निष्पाप और निराग है। परन्तु उसके पिता कितने गम्भीर और शान्त हैं। उनके मन की थाह ही नहीं मिलती है। या कि उत्तरदायित्व मनुष्य को प्रौढ़ बना देता है ? य कि कुल लोग जन्म से ही प्रौढ़ होते हैं ? वह युधिष्ठिर नहीं है क्या – सदैव गम्भीर। क्या मजाल जो कभी भूलकर भी हँसे ? परन्तु इस शाला के सभी शिष्य उसका कितना सम्मान करते हैं ! और उसका भाई अर्जुन तो जैसे सबका प्राण ही है। जहाँ देखो वहाँ अर्जुन। इस अश्वत्थामा पर भी उतना प्रेम नहीं होगा जितना कि गुरु द्रोण उस अर्जुन पर करते हैं। अर्जुन को वे इतना क्यों मानते हैं ? वैसे देखा जाये तो अश्वत्थामा के बराबर श्रेष्ठ युवक युद्धशाला में कोई और नहीं था। लेकिन उस अर्जुन के अतिरिक्त यहाँ और किसी का सम्मान नहीं था। किसी व्यक्ति का इतना महत्व बढ़ा देना कहाँ तक उचित है ! इससे वह व्यक्ति क्या उन्मत्त नहीं हो जायेगा ? वह कौन-सी कसौटी है, जिसपर खरा उतरने के कारण अर्जुन को गुरुदेव ने अपने इतने समीप कर लिया है ? अनेक बार मेरे मन में यह इच्छा हुई थी कि अश्वत्थामा से यह प्रश्न पूछूँ, लेकिन बड़े संयम से मैंने वह बात टाल दी थी। कहीं इसमें वह अपने पिता का अपमान न समझ ले। इसलिए वह प्रश्न मैं इससे कभी नहीं पूछ सकता था।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २७ [राजमाता कुन्तीदेवी का पाँच घोड़ों का रथा….]

    एक दिन मैं और शोण यों ही नगर घूमने गये थे। सदैव की भाँति घूमघामकर हम लौटने लगे। राजप्रासाद के समीप हम आ चुके थे। इतने में ही सामने से आता हुआ एक राजरथ हमको दिखाई दिया। उस रथ के चारों और झिलमिलाते हुए वस्त्रों के परदे लगे हुए थे। रथ के घोड़े श्वेत-शुभ्र थे। मुझको उनका रंग बहुत ही अच्छा लगा।

    इतने में ही शोण अकस्मात मेरे हाथ में से अपना हाथ छुड़ाकर उस रथ की ओर ही दौड़ने लगा। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि वह पागलों की तरह रथ की ओर क्यों दौड़ रहा था ? और वह रथ के सामने कूद पड़ा और बड़ी फ़ुर्ती से कोई काली सी चीज उठायी। शोण को देखकर सारथी ने अत्यन्त कुशलता से सभी घोड़ों को रोका। मैं हांफ़ता हुआ उसके पास गया मुझे देखते ही बोला “भैया यह देखो । यह अभी रथ के नीचे आ जाता !” मैंने देखा वह एक बिल्ली का बच्चा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि शोण से अब कहूँ तो क्या कहूँ ? उस पर क्रोध भी नहीं किया जा सकता था। मैं कुछ आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगा। यह क्या वही शोण है जो हमारे रथ के पीछे रोता हुआ दौड़ता आया था ?

    इतने में ही उस राजरथ के रथनीड़ पर बैठे हुए सारथी ने कहा, “जल्दी कीजिए, झटपट अलग हटिए । रथ में राजमाता कुन्तीदेवी हैं !”

“राजमाता कुन्तीदेवी !”

   मैंने शोण की बाँह पकड़कर उसको झट से एक ओर खींच लिया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । उस रथ में छह घोड़े जोड़ने की भली-भाँति व्यवस्था होने पर भी केवल पाँच ही घोड़े जोड़े गये थे। एक घोड़े का स्थान यों ही रिक्त छोड़ दिया गया था।

   “राजप्रासाद में घोड़े नहीं रहे हैं क्या ?” मैंने मन ही मन कहा।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २६ [संजय द्वारा कर्ण को सारथ्य के गुण सिखाना और घोड़ों की जानकारी….]

     महाराज के रथ का सारथ्य बाबा ने अनेक वर्षों तक बड़े उत्तम ढंग से किया था। परन्तु आजकल वृद्धावस्था के कारण उनमें पहले-जैसी स्फ़ूर्ति नहीं रही थी। उनकी सहायता के लिये महाराज ने गवल्गण नामक सारथी के एक निपुण पुत्र को भी अपनी निजी सेवा के लिये नियुक्त कर रखा था। कभी-कभी महाराज उनको पुकारते थे, उसको सुनकर हम भी यह जान गये थे कि उनका नाम संजय है।

    रथाशाला में वे और पिताजी उत्तम जाति के घोड़े, रथ का सबसे अधिक उपयोगी आँगने का तेल चक्र के लिए कौन-सी लकड़ी टिकाऊ रहती है, रथचक्रों के आरों की संख्या कम होनी चाहिए या अधिक, उनका गति पर क्या परिणाम होता है – आदि-आदि अनेक मनोरंजक विषयों पर चर्चा किया करते थे। मुझसे तो वे सदैव कहते, “कर्ण, तू सूतपुत्र है । तू सदैव यह ध्यान रखना कि उत्तम जाति का घोड़ा कभी धरती पर नहीं बैठता है रात में नींद के लिए भी । और कुलीन सारथी कभी रथनीड़ नहीं छोड़ता है प्राण जाने पर भी। एक बार जिस जगह पर बैठ गये, वहाँ से फ़िर हटना नहीं !”

    “क्या कहते हैं काका ! घोड़ा कभी धरती पर नहीं बैठता है ?” मैं आश्चर्य से पूछता।

   “हाँ । इतना ही नहीं, बल्कि खड़े-खड़े नींद लेनेवाला घोड़ा जब चार खुरों में से एक खुर उठाकर नींद लेने का प्रयत्न करे, तब यह समझ लेना चाहिए कि दीर्घ यात्रा के लिए वह निकम्मा हो चुका है? ध्यान रखो, घोड़ा सब प्राणियों में उत्तम प्राणी है ।“

   “उत्तम !” मैं यों ही पूछता, क्योंकि मेरी इच्छा होती थी कि वे निरन्तर बोलते ही रहें। भारद्वाज पक्षी-जैसी उनकी वाणी भी ऐसी मधुर थी, उनको सतत सुनते रहने की इच्छा होती।

    “केवल उत्तम ही नहीं, प्रयुत बुद्धिमान भी । कर्ण, घोड़े पर बैठकर कभी घने जंगल में जाना पड़े और फ़िर बाहर आने के लिए मार्ग न मिले तो निश्चिन्त होकर हाथ से वल्गा छोड़ दो। यह बुद्धिमान प्राणी तुझको ठीक उसी स्थान पर वापस ले आयेगा, जहाँ से तू चला होगा।“ घोड़ों की प्रकृति की ऐसी बहुत-सी बातें काका बातें करते समय बता जाते।

    उनके मुख से घोड़ों की विविध प्रकृतियाँ, व्याधियाँ और चालें – इस सब बातों का वर्णन सुनते हुए हमारा समय आनन्द से व्यतीत होने लगा। सारथियों के कर्तव्य-कर्म, धार्मिक विधियाँ, सभागृह के नियम आदि की भी वे हमको सूक्ष्म जानकारी देने लगे।

संजय काका सारथ्य-कर्म की निपुणता की बारीकियाँ बताया करते थे।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २५ [युद्धशाला में कर्ण के अस्त्र और बाणों के प्रकार….]

     मेरा युद्धशाला का कार्यक्रम निश्चित हो गया था। एक महीने की भीतर ही मैंने शूल, तोमर, परिघ, प्रास, शतघ्नी, खड्ग, पट्टिश, भुशुण्डि, गदा, चक्र आदि अनेक शस्त्रों का परिचय प्राप्त कर लिया । धनुष की ओर मेरी विशेष रुचि होने के कारण धनुर्विद्या से सम्बन्धित सभी शस्त्रों का मैंने ध्यानपूर्वक अभ्यास किया। केवल बाण ही अनेक प्रकार के थे।

     कर्णी बाण में दो शूलाग्र होते थे। वह जब पेट में घुस जाता था, तब बाहर निकलते समय आँतें भी बाहर निकल आती थीं। नालीक बाण का फ़लक मोटा होता था तथा उसमें टेढ़े दाँते होते थे, इसलिए शरीर में घुसने पर जब वह बाण बाहर निकाला जाता था तब अपने आस-पास की शिराओं को तोड़कर ही वह बाहर निकलता था। लिप्त बाण के अग्रभाग में विषैली वनस्पति का रस लगा होने के कारण वह बड़ा दाहक होता था। बस्तिक बण शरीर में घुस जाता था। लेकिन बाहर खींचने पर उसका केवल द्ण्ड ही हाथ में आता था और समस्त फ़लक ज्यों का त्यों लक्ष्य के शरीर में रह जाता था। सूची बाण का अग्रभाग सूच्याकार और नुकीला होने के कारण अत्यन्त सूक्ष्म लक्ष्य भी उससे अचूक भेदा जा सकता था। विशेष रुप से आँख की पुतलि को इस बाण से अचूक भेदा जा सकता था। जिह्मा बाण जाता तो टेढ़ा-मेढ़ा था, लेकिन लक्ष्य में बिलकुल ठीक घुसता था। इसके अतिरिक्त गवास्थी अर्थात बैल के हाड़ का, गजास्थी अर्थात हाथी के हाड़ का, कपिश अर्थात काले रंग का, पूती अर्थात उग्र गन्धवाला, कंकमुख, सुवर्णपंख, नाराच, अश्वास्थी, आंजलिक, सन्न्तपर्व, सर्पमुखी आदि बाणों के अनेक प्रकार थे। इन सब बाणों को लक्ष्य पर छोड़ने की शिक्षा मैं मनोयोग से ग्रहण करने वाला था।

     अपनी शिष्यावस्था का एक-एक क्षण मुझको इसी कार्य में लगाना था। पहले तीन वस्तुओं पर मेरा प्रेम था। गंगामाता, सूर्यदेव और माता ने – राधामाता ने — अत्यन्त प्रेम से जो दी थी वह चाँदी की पेटिका; परन्तु युद्धशाला में आने के बाद उसमें एक वस्तु और सम्मिलित हो गयी। वह वस्तु थी धनुष और बाण!

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २४ [गुरु द्रोण का अर्जुन पर कर्ण के मन की कशमकश]

       पहले पन्द्रह दिन तक मैं युद्धशाला के शास्त्रों का केवल परिचय प्राप्त करता रहा। क्योंकि मैं कुछ सीखने की स्थिति में ही नहीं था। गुरुवर्य द्रोण के विचित्र व्यवहार के कारण मेरा मन कहीं रम नहीं रहा था। कभी मन में आता कि युवराजों के इस कबाड़खाने में केवल सूतपुत्र के रुप में अपेक्षित होने से तो अच्छा है कि एकदम चम्पानगरी का मार्ग पकड़ लिया जाये। युद्ध-विद्या की शिक्षा लेकर आखिर मुझे क्या करना है ? अब कौन सा महायुद्ध होने वाला है ? और हो भी तो उसमें मेरा उपयोग ही क्या है ? केवल एक सारथी के रुप में न ? तो फ़िर सारथी को इस युद्ध-विद्या की शिक्षा की क्या आवश्यकता है ? उसको तो घोड़ों की परीक्षा करनी चाहिए और उसकी उच्छश्रंखल प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना सीखना चाहिए। क्या यह काम में चम्पानगरी में रहकर नहीं कर सकता ? दूसरे ही क्षण फ़िर यह विचार आता कि ऐसा करने से कैसे काम चलेगा ? युद्ध-विद्या क्या केवल युद्ध के लिये ही सीखी जाती है ? जिसकी भुजाओं में शक्ति होती है, वह सदैव श्रेष्ठ माना जाता है ? इस युद्धशाला में मैं शक्तिशाली बन सकूँगा ।

     इस युवराज अर्जुन को भी दिखा दूँगा कि संसार में वही अकेला धनुर्धर नहीं है। लेकिन इस बेचारे अर्जुन ने मेरा क्या बिगाड़ा है ! उससे यह स्पर्धा क्यों करुँ ! स्पर्धा सदैव व्यक्ति को अन्धा कर देती है। गुरुवर्य उससे स्नेह करते हैं तो इसमें उसका क्या दोष है ! गुरु प्रेम करें – यह कौन शिष्य नहीं चाहेगा ! और कौन ऐसा गुरु है जो भली-भाँति परीक्षा लिये बिना शिष्य को इतने समीप कर लेगा ! यदि यही बात है, तो गुरुदेव ! मैं भी आपकी कसौटी पर खरा उतरुँगा । केवल एक धनुर्धर होने के कारण ही यदि आप उस अर्जुन को इतना स्नेह करते हैं, तो मैं उससे भी श्रेष्ठ धनुर्धर बनूँगा। परन्तु मैं यदि धनुर्धर हो भी जाऊँ तो उसका क्या उपयोग ! आप तो मुझको कभी अपना शिष्य मानेंगे ही नहीं।

     यदि युवराज अर्जुन गुरुवर्य का इतना लाड़ला था, तो इसका बुरा उसके भाई मान सकते थे, बात मुझको क्यों लगती है ? मेरी और युवराज अर्जुन का ऐसा क्या सम्बन्ध है ? कुछ भी तो नहीं है । मैं एक सूतपुत्र हूँ । वह एक युवराज हैं । उसका मार्ग दूसरा है और मेरा दूसरा । जीवन के मार्ग पर चलने वाले हम दोनों ऐसे यात्री हैं जो एक-दूसरे से एकदम भिन्न हैं। जाओ, युवराज अर्जुन ! खूब बड़े बनो । अजेय धनुर्धर बनो, यदि कभी अवसर आया तो यह सूतपुत्र कर्ण तुम्हारे रथ के घोड़ों को सँभालने के लिये सारथ्य करेगा।

मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अर्जुन हो या कोई और हो, मैं किसी के प्रति भी विद्वेष नहीं रखूँगा। यहाँ के सभी युवराजों के और मेरे मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। जन्म ने ही उनका निर्धारण कर दिया है। चूँकि मेरी बड़ी इच्छा है, केवल इसीलिए मैं धनुर्विद्या सीखूँगा। मेरी भी इच्छा होती है कि केवल ध्वनि की दिशा में कहीं भी बाण छोडूँ, एक ही समय असंख्य बाण दसों दिशाओं में छोडूँ। गुरु कौन है, इस बात का महत्व ही क्या है ? महत्व की बात तो वास्तव में यह है कि विद्या के प्रति शिष्य में कितनी लगन है ! मैं तन-मन एक कर दूँगा । विद्या के लिए विद्या ग्रहण करुँगा। मैंने पक्का निश्चय कर लिया।

सूर्यपुत्र महारथी दानवीर कर्ण की अद्भुत जीवन गाथा “मृत्युंजय” शिवाजी सावन्त का कालजयी उपन्यास से कुछ अंश – २३ [कर्ण, कृपाचार्य, दु:शासन…]

    चबूतरे की सीढ़ियाँ उतरने लगे। मेरा मन अब शान्त हो गया था। सामने गुरुदेव द्रोण और युवराज अर्जुन चबूतरे की ओर आ रहे थे। अर्जुन मेरी ओर देखकर हँसा, लेकिन मुझको हँसी नहीं आयी। मुझको ऐसा लगा जैसे उसके हँसने में भी एक प्रकार का व्यंग्य है।

    मुझको पितामह भीष्म की याद आयी। इस अर्जुन के पितामह थे वे। लेकिन दोनों में कहीं समानता नहीं थी। दोनों के स्वभाव और व्यवहार में कितना अन्तर था। जाते-जाते कुछ पूछने के विचार से अर्जुन ने मुझसे पूछा, “यह कौन है ?”

“मेरा छोटा भाई !” मैंने अभिमानपूर्वक कहा।

“यह भी इस शाला में आयेगा क्या ?” गुरुदेव द्रोण ने पूछा।

“जी हाँ ।“ मैंने उत्तर दिया।

“जाओ उस ओर कृप हैं, उनके पथक में सम्मिलित हो जाओ।“

     मैंने कुछ भी न कहा। उनको नमस्कार करने की भी मेरी इच्छा न हुई। जाते-जाते मैंने अर्जुन की ओर मुड़कर देखा। वह तो आश्चर्य से मेरे कानों के कुण्डलों की ओर एकटक देख रहा था।

    हम कृपाचार्य के पथक में आये। कृपाचार्य द्रोणाचार्य जी के साले थे। उनकी देख-रेख में अनेक युवक धनुर्विद्या की शिक्षा प्राप्त कर रहे थे। क्षण-भर के लिए मेरे मन में यह विचार आया कि ये ढ़ेर सारे राजकुमार क्यों जहाँ-तहाँ अपनी अकड़ दिखा रहे हैं ? उस दुर्योधन का सा रोब एक में भी है क्या ? एक भी ऐसा है क्या, जिसकी चाल दुर्योधन की चाल की तरह शानदार हो ? है कोई ऐसा माई का लाल जिसकी दृष्टि उसकी दृष्टि की तरह भेदक हो ?

    इतने में युवराज दुर्योधन ही सामने से आता हुआ मुझको दिखाई दिया। उसके पास जायेंगे तो निश्चय ही हमारी कुशल-क्षेम पूछेगा – यह सोचकर मैं उसकी ओर चलने लगा। उसके पास भी गया, लेकिन युवराज दुर्योधन नहीं था। उसमें और दुर्योधन में अद्भुत समता थी। उसकी देह पर जो वस्त्र थे उससे यह तो निश्चित था कि वह युवराज था। लेकिन युवराज किनमें से था कौरवों में से या पाण्डवों में से, चूँकि दुर्योधन में और इसमें बड़ी समता है, इसलिए यह कौरवों में से ही होगा, लेकिन कौरवों मे से यह कौन है ? इतने में ही कृपाचार्य ने उसको पुकारा, “दु:शासन !” वह भी जल्दी-जल्दी उनकी ओर चला गया। तो वह दु:शासन था ? अहा, दुर्योधन में और उसमें कितनी समानता थी। एक को छिपाइये और दूसरे को दिखाइए। युवराज दुर्योधन और युवराज दु:शासन। दोनों की चाल में वही शान थी। दोनों की दृष्टि में वही भेदकता थी। कहीं दु:शासन दुर्योधन की प्रतिच्छाया ही तो नहीं था ?