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बस तुम्हें… अच्छा लगता है.. मेरी कविता

मुझे पता है तुम

खुद को गाँधीवादी बताते हो,

पूँजीवाद पर बहस करते हो,

समाजवाद को सहलाते हो,

तुम चाहते क्या हो,

यह तुम्हें भी नहीं पता है,

बस तुम्हें

बहस करना अच्छा लगता है ।

जब तक हृदय में प्रेम,

किंचित है तुम्हारे,

लेशमात्र संदेह नहीं है,

भावनाओं में तुम्हारे,

प्रेम खादी का कपड़ा नहीं,

प्रेम तो अगन है,

बस तुम्हें

प्रेम करना अच्छा लगता है ।

आध्यात्म के मीठे बोल,

संस्कारों से पगी सत्यता,

मंदिर के जैसी पवित्रता,

जीवन की मिठास,

जीवन में सरसता,

चरखे से काती हुई कपास,

बस तुम्हें

सत्य का रास्ता अच्छा लगता है।

प्रेमपत्र.. मेरी कविता

वे प्रेमपत्र जो हमने

एक दूसरे को लिखे थे

कितना प्यार उमड़ता था

उन पत्रों में

तुम्हारा एक एक शब्द

कान में लहरी जैसा गूँजता रहता था

 

पहला प्रेमपत्र तब तक पढ़ता था

जब तक नये शब्द ना आ जायें

तुम्हारे प्रेमपत्रों से

ऊर्जा, संबल और शक्ति मिलते थे

कई बातें और शब्द तो अभी भी

मानस पटल पर अंकित हैं

 

तुम मेरे जीवन में

आग बनकर आयीं

जीवन प्रेम का  दावानल हो गया

आज भी तुम्हारी बातें, शब्द

मुझे उतने ही प्रिय हैं प्रिये

बस वक्त बदल गया है

 

मेरे प्रेमपत्र तुमने अभी भी

सँभाल कर रखे हैं

जिन्हें तुम आज भी पढ़ती हो

और अगर मैं गलती से पकड़ भी लेता हूँ

तो

वह शरमाना आँखें झुकाना

प्यारी सी लजाती हँसी

बेहद प्यारी लगती है

 

एक मैं हूँ

जो तुम्हारे प्रेमपत्र

पता नहीं कहाँ कब

आखिरी बार

रखे थे

पढ़े थे

पत्र भले ही मेरे पास ना हों

सारे शब्द आज भी

हृदय में अंकित हैं

 

एक निवेदन है

तुम फ़िर से प्रेमपत्र लिखो ना !!

मैं झूठ क्यों बोलने लगा हूँ

मैं झूठ क्यों बोलने लगा हूँ

कारण ढूँढ़ रहा हूँ,

पर जीवन के इन रंगों से अंजान हूँ,

बोझ हैं ये झूठ मेरे मन पर..

 

ऐसे गाढ़े विचलित रंग,

जीवन की डोर भी विचलित,

मन का आकाश भी,

और तेरा मेरा रिश्ता भी..

 

तुमसे छिपाना मेरी मजबूरी,

मेरी कमजोरी, मेरी लाचारी,

हासिल क्या होगा,

जीवन दोराहे पर है..

 

तुम पढ़कर विचलित ना होना

जीवन लंबा है,

कभी कहीं किसी आकाश में,

मेरा भी तारा होगा..

चाँद पूर्ण रूप में

चाँद जब रोटी सा गोल होता है,

पूर्ण श्वेत, अपने पूर्ण रूप में,

उसकी आभा और निखर आती है,

मिलते तो रोज हैं छत पर,

पर देखना तुम्हें केवल इसी दिन होता है,

काश की चाँद हर हफ़्ते पूर्ण हो,

महीने में एक बार तुम्हें देखना,

फ़िर दो पखवाड़े उसी सुरमई तस्वीर को,

सीने से चिपकाकर सोता हूँ,

तुम्हारी यादों में रहता हूँ,

तुम्हारे सपने बुनता हूँ,

तुमसे मिलने के लिये बेताब रहता हूँ,

कभी ऐसा लगता है चाँद,

तुम जल्दी आ जाते हो,

पर एक बात कहूँ,

अब मैं बहुत बैचेनी से इंतजार करता हूँ,

तुम मेरी जिंदगी का हिस्सा जो बन चुके हो..

दाम्पत्य जीवन के १२ सुनहरे वर्ष

जीवन निर्जीव था, बिल्कुल रेगिस्तान जैसा जहाँ आँधियाँ तो आती थीं, बबंडर तो आते थे, परंतु केवल रेत के, जहाँ कोई दूसरा उन उड़ती हुई रेत को नहीं देख पाता था, बस अकेला यह निर्जीव उन रेत के रेलों के बीच इधर से उधर बहता रहता था। ये रेत और रेगिस्तान बहुत लंपट होते हैं, जब कभी सोचने में आता कि शायद यहाँ जल होता पर मृगतृष्णा उन सपनों को साकार होने के पहले ही कहीं किसी दूर देस में विलीन कर देती। ये अंधड़ भी उन मृगतृष्णाओं से मिले हुए थे।

तभी कहीं से मेरी जिंदगी में एक सावन की फ़ुहार, बसंत की बयार आई, जहाँ मैं अपने ऊपर बीते हुए उन अंधड़ों के प्रकोप को भूल गया, केवल हर तरफ़ चारों ओर जीवन में स्नेहिल प्रेम की झिलमिल बारिश थी, कहीं पीले रंग के कहीं लाल रंग के कहीं ओर भी चटक रंग के फ़ूल कहीं से मेरी जिंदगी में प्रवेश कर चुके थे।

आज ठीक १२  बरस हो गये हैं तुम्हें मेरी जिंदगी में आकर, और तुमने मेरे मन के रेगिस्तान को जो उपवन का रूप दिया है, वह मेरे लिये बहुत है, आज ही के दिन मेरी जिंदगी का नया चेप्टर शुरू हुआ था जिसकी शुरूआत तुमने की थी जिससे मैंने अपनी जिंदगी में एकदम कई नये रंगों का आना देखा, मेरी जिंदगी में १२ वर्ष पहले अचानक ही बसंत आ गया था जो कि कहीं बसंत पंचमी के आसपास था।

मैं तुम और जीवन (मेरी कविता …. विवेक रस्तोगी)

मैं तुम्हारी आत्मीयता से गदगद हूँ
मैं तुम्हारे प्रेम से ओतप्रोत हूँ
इस प्यार के अंकुर को और पनपने दो
तुममें विलीन होने को मैं तत्पर हूँ।तुम्हारे प्रेम से मुझे जो शक्ति मिली है
तुम्हें पाने से मुझे जो भक्ति मिली है
इस संसार को मैं कैसे बताऊँ
तुम्हें पाने के लिये मैंने कितनी मन्नतें की हैं।

जीवन के पलों को तुमने बाँध रखा है
जीवन की हर घड़ी को तुमने थाम रखा है
तुम्हें अपने में कैसे दिखलाऊँ
कि ये सारी पंक्तियाँ केवल तुम्हारे लिये लिखी हैं।

दिवास्वप्न बुरा या अच्छा … मेरी कविता .. विवेक रस्तोगी

एक दिवास्वपन आया मुझे

एक दिन..

श्री भगवान ने आशीर्वाद दिया,

सारे अच्छे लोग देवता रूपी

और

उनके पास हथियार भी वही,

सारे बुरे लोग राक्षस रूपी

और

उनके पास हथियार भी वही

समस्या यह हो गई

कि

देवता लोग कम

और

राक्षस ज्यादा हो गये

तब

श्री भगवान वापिस आये

और

देवता की परिभाषा ठीक की

फ़िर

देवता ज्यादा हो गये

और

राक्षस कम हो गये,

देवताओं ने राक्षसों पर कहर ढ़ाया

और

देवताओं का वास हो गया

फ़िर

कुछ देवता परेशान हो गये

क्योंकि

राक्षस गायब हो गये

तो

कुछ फ़िर से राक्षस बन गये।

जीवन तूफ़ानी दरिया, शून्यहीन चुप्पी और वीराने… मेरी कविता.. विवेक रस्तोगी

    जीवन कभी कभी तूफ़ानी दरिया लगता है और कभी बिल्कुल शुन्यहीन चुप्पी के साथ थमा हुआ दरिया लगता है। कभी लहरें आती हैं, कभी तूफ़ान आते हैं, कभी सन्नाटे आते हैं, कभी वीरानी आती है। जीवन के ये अजीब रंग सात रंगों से भी अजीब हैं, कौन से ये रंग हैं, कहाँ बनते हैं ये रंग, जो मौन भी हैं, जो मुखर भी हैं।

        वीरानों को ढूँढता हूँ, वीराने खुद ही पास आ जाते हैं, क्या मैं वीराने में रहता हूँ, यह उत्सव वीरानों में क्यों नहीं होते, ये उत्सव केवल तूफ़ानों में क्यों होते हैं, ज्यादा रंग केवल उत्सव में ही क्यों होते हैं, और वीराने में गहरे रंग क्यों ?

    क्या जीवन की कहानी है, क्या अंत की रवानी है, बस सब अब प्रपंच लगने लगा है, जीवन की गहराईयों में झांक रहे हैं, जहाँ तूफ़ान के बाद की शांति हो, जहाँ सन्नाटा और वीराना हो, और दो बातें लिखने के लिये अमिट स्याही हो –जिंदगी और वीराने

लम्हों में जिंदगी सिमट कर रह गयी है

बूँदें पानी की, बहता दरिया सी लगती हैं

आग के लिये तिनके कम पड़ने लगे हैं

साँसे थामे रखो, अब ये उखड़ने लगी हैं ।

तुम्हारे लिये, तुम कभी गुलाब होती थीं…. मेरी कविता… विवेक रस्तोगी

तुम कभी

गुलाब होती थीं

तुम कभी

नरम दिल होती थी

तुम कभी

बहुत प्यारी होती थी

तुम कभी

जन्नत होती थी

तुम कभी

खुशियों का खजाना होती थी

तुम कभी

शीतल होती थी

तुम कभी

कुछ और ही होती थी

तुम अभी भी

कभी जैसी ही हो

बस वैसी ही रहना और

आगे भी

तुम कभी, तुम अभी ही रहना।

बस बहुत हुआ… मेरी कविता.. विवेक रस्तोगी

बस बहुत हुआ, जीवन का उत्सव

अब जीवन जीने की इच्छा

क्षीण होने लगी है

जीवंत जीवन की गहराइयाँ

कम होने लगी हैं

अबल प्रबल मन की धाराएँ

प्रवाहित होने लगी हैं

कृतघ्नता प्रेम के साथ

दोषित होने लगी है