कला, साहित्य और राजनीति तीनों पृथक कलायें हैं परन्तु इसके घालमेल से व्यक्ति सफलता के चरम शिखर तक जा पहुँचता है। संघर्ष हर कोई करता है, योग्यता भी हर किसी में होती है। निसंदेह कुछ लोगों को छोड़कर जो कि अपवाद होते हैं। परन्तु जो केवल एक ही चीज पकड़कर आगे बढ़ता है वह हमेशा ही संघर्ष करता रहता है। यह विचार कुछ लोगों में गफलत जरूर पैदा कर सकता है।
वैसे ही जब मैं किसी एक और विचार को सुन रहा था, जब एक वरिष्ठ साहित्यकार जो कि किसी बड़े सम्मान से नवाजे जा चुके थे और उन्होंने अपना घर पर पार्टी का आयोजन किया, तो सबसे पहले उनके घर पर एक बड़ी साहित्यकारा नेत्री पहुँच गईं, और उन दोनों की गुफ्तगू चल रही थी, साहित्यकार महोदय मद्यपान और धूम्रपान कर रहे थे, और सामने के सोफे पर ही नेत्री बैठी थीं। एक बात हमें बहुत मुद्दे की लगी, जब नेत्री ने कहा कि यह मुकाम आपने बहुत संघर्ष से पाया है, तब साहित्यकार महोदय कहते हैं कि नहीं आप गलत हैं, असल में आज जिस मुकाम पर मैं हूँ केवल अपनी चालाकी के कारण, तो नेत्री जी उनकी बात से असहमत थीं, तो साहित्यकार महोदय ने उनको कहा कि आप क्या सभी लोग असहमत होंगे परंतु सच यही है कि मैं केवल अपनी चालाकी के कारण यहाँ तक पहुँचा।
लेखक तो बहुत से लोग होते हैं, परंतु जो अपनी ही रौ में लिखता जाता है वह कभी कुछ नहीं पाता, लिखने के लिये बहुत सारे मुद्दे होते हैं, राजनैतिक, सामाजिक, चोरी, डकैती, प्यार मोहब्बत की कहानियाँ, पर मैंने हमेशा ही नई विचारधार, नये दौर के विचारों को, ट्रेंड को पकड़ा और उन पर लिखा तो मुझे शोहरत के साथ साथ, सम्मान और पैसा दोनों मिले। जो ये ट्रेंड नहीं पकड़ पाते हैं वे ज्यादा से ज्यादा केवल शोहरत ही पा जाते हैं, और फिर खो जाते हैं, उनका कोई नामलेवा नहीं होता। उनको हमेशा फांकों में ही गुजारा करना पड़ता है। जीवन के उजले पक्ष के पीछे बहुत ही स्याह अँधेरा होता है, और वह अँधेरा किसी को नहीं दिखता, क्योंकि वह इतना स्याह होता है कोई झाँकने की कोशिश भी करे तो उसे भी वह अँधेरा निगल लेता है।
इन बातों से मैं आज के कार्पोरेट कल्चर को जोड़ने की कोशिश कर रहा हूँ, बहुत से धागे जुड़ पाये हैं, बहुत से अभी बहुत ज्यादा उलझे हुए हैं, जिनको मैं जितना सुलझाने की कोशिश करता हूँ मैं उनमें उतना ही उलझता जाता हूँ। केवल कुछ होना ही काफी नहीं होता, उस कुछ होने से आगे बढ़ने के लिये या तो आपको अच्छी राजनीति आनी चाहिये या फिर चापलूसी, और कुछ लोग बहुत चाहकर भी ये दोनों गुण (दुर्गुण) नहीं अपना पाते, जो चाहते हैं कि कभी तो सत्य की विजय होगी। मुझे लगता है कि वे जरूर किसी बड़े अपार्टमेंट में न रहकर जरूर ही किसी गुफा में रहते होंगे और विशुद्ध रूप से सात्विक भोजन गृहण करते होंगे जिस कारण से उनको दुर्जनों के भांति विचार नहीं आते होंगे, जहाँ उनको सत्य की विजय के विचार आते होंगे।
बात बस हमारे सोचने की है कि हम किस कीमत पर अपने जीवन को जीना चाहते हैं, और उसका क्या मूल्य आगे चुकाना चाहेंगे, आपके आने वाले दौर में आप केवल एक नये बिकाऊ लेखक बनना चाहते हैं या क्लासिक लेखक, जिनको लगभग सारे बच्चे अपने विद्यालय में जबरदस्ती पढ़ते हैं और सोचते हैं कि ये क्लासिक लेखक क्यों और कैसे इतना अच्छा लिख लेते थे।
आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति ब्लॉग बुलेटिन – स्वर्गीय सुनील दत्त में शामिल किया गया है। सादर … अभिनन्दन।।
कल्पतरु ,शीर्षक कला,साहित्य और राजनीति को व्यवहारिक तौर से प्रस्तुत किया गया है। पाठकों
के ज्ञान वर्धन कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने
में मददगार हो । मेरा आदरणीय लेखक को नमन वंदन ।
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