सबका मालिक एक, पर सबके मन का मालिक कौन ? सब अपने मन की करना चाहते हैं, कोई भी एक दूसरे की भावनाओं को समझने का प्रयास ही नहीं करता, बस सब अपने मन की करते हैं या करना चाहते हैं, वे इस बात का तो कतई ध्यान नहीं रखते हैं कि उसकी किसी एक क्रिया की कितनी लोगों की कितनी प्रतिक्रियाएँ होती है, आपसी समझबूझ और सोच अब केवल किताबों में लिखे कुछ शब्द हैं जो वहीं कैद होकर रह गये हैं, क्योंकि सबके दिमाग के कपाट बंद हो चुके हैं, कुछ भी बोलो पर टस से मस नहीं होते, वो कहते हैं न चिकने घड़े पर पानी, बस वैसे ही कुछ हाल सभी के हैं, सबने अपने मन पर दूसरे की मोहर न लगाने देने की जिद पकड़ी है और मन के, घर के, दिल के ढक्कन हवाबंद कर रखे हैं कि दूसरों के क्या अपने विचार भी मन में सोचने की प्रक्रिया में न जा पायें और अगर मन में कोई प्रक्रिया नहीं होगी तो वह आगे तो किसी भी हालत में नहीं बड़ सकता पर हाँ यह बात सौ फीसदी सत्य है कि वह अपने आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा रहा है और दूसरों का तोड़ रहा है, वह सोच रहा है कि सब स्थिर हो जायेगा पर नहीं वह गलत है सब पीछे चला जायेगा नहीं वह अकेला जायेगा पीछे की ओर, कोई सम्भाल भी न पायेगा, पर ये तो निश्चित है कि वह अपने मन का मालिक नहीं है, उसका तो शैतान ही है, जिसके दुष्परिणाम हैं उसकी संवादहीनता, निम्नस्तरीय संवाद व दृढ पिछड़ी हुई मानसिकता, तो वही बताये वो नहीं तो उसके मन का मालिक कौन ?????
विवेक जी,
हिन्दी चिट्ठाकारों के परिवार मे आपका हार्दिक स्वागत है।किसी भी प्रकार की परेशानी आने पर याद कीजिएगा।