“पिलाओ सांप को दूध..” आवाज बहुत सुनाई देती थी जब हम अपने छोटे से शहर में रहते थे, आज यह बात इसलिये याद आ गई जब बहुत सारी पोस्टें नागपंचमी के उपर पढ़ीं तो पता चला कि आज नागपंचमी है।
अलसुबह आवाज आना शुरु हो जाती थीं “पिलाओ सांप को दूध..” सपेरों की और वे अपने कपड़े की झोली में बांस की टोपली में सांप लेकर उनके मुंह को पकड़कर उनसे जबरदस्ती दूध पिलवाया करते थे, फ़िर सांप को उसी टोपली में छोड़कर बीन बजाकर सांप को हमला करने के लिये आमादा करते थे, ऐसे दृश्य हमने बचपन में बहुत देखे हैं।
एक बार हमने भी बीन बजाने की कोशिश की थी पर जब तक बराबर अभ्यास न हो कोई बजा नहीं सकता, जैसे शंख, बहुत जान लगाकर फ़ूँक मारना पड़ती है। पेट की अंतड़िया तक दुखने लगती है इतनी ताकत लगाना पड़ती है।
जब स्कूल और कालेज में पढ़ते थे तब मजाक में कहते थे एक दूसरे को कि मैं तेरे घर आने वाला हूँ दूध पीने के लिये, और दोस्त के घर पहुंचकर आवाज देते “पिलाओ सांप को दूध..”
महाकालेश्वर, उज्जैन में प्रथम मंजिल पर नागचंद्रेश्वर का मंदिर है जो कि पूरे वर्ष में केवल एक बार नागपंचमी के दिन ही खुलता है, जब हम पढाई करते थे तो लगभग हर वर्ष हम दर्शन करने जाते थे, कहते हैं स्वयं साक्षात तक्षक विराजमान हैं। साल दर साल जनसैलाब में वृद्धि होते देखी है, आस्था का व्यापार बड़ने लगा है, पहले जब लगभग हम रोज महाकाल में संध्या आरती में जाते थे तब शायद महाकाल के इतने भक्त नहीं थे जितने कि सिंहस्थ के बाद आने लगे, और हम आसानी से आरती में सक्रिय भूमिका निभाते थे नंदी गृह में बड़े घंटे बजाकर। पर आज संध्या आरती में जाना उतना ही मुश्किल ।
बिल्कुल सही कहा आपने. अब तो बाबा के दर्शन मुश्किल होगये. और नागपंचमी के दिन तक्षक महाराज के दर्शनों की लाईन मे लगने की अब हिम्मत नही रही.
रामराम.
हम एक बार बस गये हैं..अब हिम्मत नहीं..बाबा का आशीष लेकिन बना है, बहुत काफी है.
अच्छा प्रसंग है.