मातृ देवो भव: ! पितृ देवो भव: !
आचार्य देवो भव: ! अतिथि देवो भव: !
माता पिता, गुरु और अतिथि – संसार में ये चार प्रत्यक्ष देव हैं । इनकी सेवा करनी चाहिये। इनमें भी माता का स्थान पहला, पिता का दूसरा, गुरु का तीसरा और अतिथि का चौथा है। माता – पिता में परमात्मा प्रत्यक्ष स्वरुप है। माता साक्षात लक्ष्मी होती है तो पिता नारायण। जिनको माता पिता में भगवद्भाव नहीं होते उनको मन्दिर या मूर्ति में भी कभी भगवान के दर्श्न नहीं होते।
माता – पिता में भी माँ का दर्जा अधिक ऊँचा है। शास्त्रों में भी माँ का दर्जा पिता से सौ गुणा अधिक ऊँचा बताया गया है। पिता तो धन – सम्पत्ति आदि से पुत्र का पालन पोषण करता है, पर माँ अपना शरीर देकर पुत्र का पालन पोषण करती है। बच्चे को गर्भ में नौ माह तक धारण करती है, जन्म देते समय प्रसव पीड़ा सहती है, अपना दूध पिलाती है एवं अपनी ममता की छाँव में उसका पालन पोषण करती है। ऐसी ममतामयी जननी का ऋण पुत्र नहीं चुका सकता। ऐसे ही पिता बिना कहे ही पुत्र का भरण पोषण का पूरा प्रबन्ध करता है, विद्याध्ययन करवाकर योग्य बनाता है, उसकी जीविका का प्रबन्ध करता है एवं विवाह कराता है। ऐसे पिता से भी उऋण होना बहुत कठिन है। रामायण में कहा गया है – “बड़े भाग मानुष तन पावा”। इस शरीर के मिलने में प्रारब्ध (कर्म) और भगवत़्कृपा तो निमित्त कारण है और माता पिता उपादान कारण हैं। उनके कारण ही हम इस संसार में आते हैं। इसलिये जीते जी उनकी आज्ञा का पालन करना, उनकी सेवा करना, उनको प्रसन्न रखकर उनका आशीर्वाद लेना और मरने के बाद उनके मोक्ष हेतु पिण्ड दान, श्राद्ध – तर्पण करना आदि पुत्र का विशेष कर्तव्य है। माता पिता की दुआ में दवा से भी हजार गुणा ज्यादा शक्ति होती है।
पुराणों में उल्लेख मिलता है कि जब देवराओं में यह होड़ लगी कि सबसे बड़ा कौन ? जो सबसे बड़ा होगा वही प्रथम पूज्य होगा। तब सर्वसम्मति से यह निर्णय लिया गया कि जो तीनों लोकों का तीन चक्कर लगा कर सबसे पहले आ जायेगा वही प्रथम पूज्य होगा। सभी देवता अपने अपने वाहनों पर चढ़ कर दौड़ पड़े तब गणेश जी बड़े चक्कर में पड़े कि मेरा वाहन चूहा सबसे छोटा है इस पर चढ़कर में कैसे सबसे पहले पहुंच सकता हूँ। अत: उन्होंने समाधिस्थ पिता शंकर के बगल में माँ पार्वती को बैठा दिया तथा स्वयं अपने वाहन पर चढ़ कर दोनों की तीन बार परिक्रमा की । माता पिता की परिक्रमा करते ही तीनों लोकों की परिक्रमा पूरी हो गई और वे प्रथम पूज्य घोषित हुए। आज भी बुद्धि के देवता के रुप में सर्वत्र प्रथम पूज्य हैं।
पहले की कुछ ओर कड़ियाँ परिवार के संदर्भ में –
- पत़्नी के कर्तव्य जो पत़्नी को निभाने चाहिये
- पति के कर्तव्य जो पति को निभाने चाहिये ..
- पति – पत्नि का संबंध
- संयुक्त परिवार कुछ महत्वपूर्ण बातें
- नई बहू का कुछ समय ससुराल में रहना जरुरी है !!
िस सुन्दर सार्थक आलेख के लिये धन्यवाद्
Poori tarah sahmat.
{ Treasurer-T & S }
आज के पुत्र माँ बाप को बोझ समझते हैं कोई पास रकना तो दूर बात तक इज्ज़त से नहीं करते और
घर की बहुए भी उनका ही अनुसरण करती हैं क्यूँ ना करें जब पुत्र ही पिता को सामान नहीं देता तो
वो क्यूँ दे क्यूंकि वो तो परिवार में अपना सुख भोगना चाहती है उसे क्या पड़ी क्यूँ सास ससुर की ब्यर्थ में सेवा करे उनका पुत्र ही जब नहीं करता तो वो क्यूँ ?