५. मालविकाग्निमित्र – यह श्रंगार रस प्रधान ५ अंकों का नाटक है। यह कालिदास की प्रथम नाट्य कृति है; इसलिए इसमें वह लालित्य, माधुर्य एवं भावगाम्भीर्य दृष्टिगोचर नहीं होता तो विक्रमोर्वशीय अथवा अभिज्ञानशाकुन्तलम में है। विदिशा का राजा अग्निमित्र
इस नाटक का नायक है तथा विदर्भराज की भगिनी मालविका इसकी नायिका है। इस नाटक में इन दोनों की प्रणय कथा है। “वस्तुत: यह नाटक राजमहलों में चलने वाले प्रणय षड़्यन्त्रों का उन्मूलक है तथा इसमें नाट्यक्रिया का समग्र सूत्र विदूषक के हाथों में समर्पित है।”
कालिदास ने प्रारम्भ में ही सूत्रधार से कहलवाया है –
पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम़्।
सन्त: परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढ: परप्रत्ययनेयबुद्धि:॥
अर्थात पुरानी होने से ही न तो सभी वस्तुएँ अच्छी होती हैं और न नयी होने से बुरी तथा हेय। विवेकशील व्यक्ति अपनी बुद्धि से परीक्षा करके श्रेष्ठकर वस्तु को अंगीकार कर लेते हैं और मूर्ख लोग दूसरों को बताने पर ग्राह्य अथवा अग्राह्य का निर्णय करते हैं।
वस्तुत: यह नाटक नाट्य-साहित्य के वैभवशाली अध्याय का प्रथम पृष्ठ है।
६. विक्रमोर्वशीय – यह पाँच अंकों का एक त्रोटक (उपरुपक) है, इसमें राजा पुरुरवा तथा अप्सरा उर्वशी की प्रणय कथा वर्णित है। इसमें श्रंगार रस की प्रधानता है, पात्रों की संख्या कम है। इसकी कथा ऋग्वेद (१०/२५) तथा शतपथ ब्राह्मण (११/५/१) से ली गयी है। महाकवि कालिदास ने इस नाटक को मानवीय प्रेम की अत्यन्त मधुर एवं सुकुमार कहानी में परिणत कर दिया है। इसके प्राकृति दृश्य बड़े रमणीय हैं।
७. अभिज्ञानशाकुन्तलम़् – अभिज्ञानशाकुन्तलम़् न केवल संस्कृत-साहित्य का, अपितु विश्वसाहित्य का सर्वोत्कृष्ट नाटक है। यह कालिदास की अन्तिम रचना है। इसके सात अंकों में राजा दुष्यन्त और शकुन्तला की प्रणय-कथा निबद्ध है। इसका कथानक महाभारत के आदि पर्व के शकुन्तलोपाख्यान से लिया गया है। कण्व के माध्यम से एक पिता का पुत्री को दिया गया उपदेश आज २,००० वर्षों के बाद भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना उस समय में था।
भारतीय आलोचकों ने ’काव्येषु नाटकं रम्यं तत्र रम्या शकुन्तला’ कहकर इस नाटक की प्रशंसा की है। भारतीय आलोचकों के समान ही विदेशी आलोचकों ने भी इस नाटक की मुक्त कंठ से प्रशंसा की है। जब सन १७९१ में जार्जफ़ोस्टर ने इसका जर्मनी में अनुवाद किया, तो उसे देखकर जर्मन विद्वान गेटे इतने गद्गद हुए कि उन्होंने उसकी प्रशंसा में एक कविता लिख डाली थी।
राणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम़्।
सन्त: परीक्ष्यान्यतरद्भजन्ते मूढ: परप्रत्ययनेयबुद्धि:॥
वाह ,धन्य हैं कालिदास -विज्ञान पद्धति की इतनी सुन्दर और सारभूत अभीव्यक्ति दुर्लभ है -हिन्दी अनुवाद देकर आपने बहुत भला किया है !
आभार !
बहुत सुंदर लगा, लेकिन बुरी नही बल्कि बहुत अच्छी लगी.
धन्यवाद