कण्ठच्छवि: – कण्ठ के समान कान्ति वाला, यह विशेषण मेघ के लिये आया है। कहने का आशय यह है कि क्षीर सागर के मंथन के समय कालकूट नामक विष भी निकला था, जिसका पान शिव ने किया था। परिणामत: उनका कण्ठ विष के प्रभाव से नीला पड़ गया था। इसी कारण उन्हें नीलकण्ठ भी कहा जाता है।
चण्डिश्वरस्य पुण्यं धाम – यह कहने का अभिप्राय उज्जयिनी पुरी में स्थित महाकाल मंदिर
से है। कहीं-कहीं चण्डेश्वरस्य पाठ भी मिलता है। इसका अर्थ है – चण्डस्य ईश्वर: अर्थात चण़्उ नाम के गण स्वामी। यक्ष का मेघ से आग्रह है कि वह उज्जयिनी में स्थित शिव के महाकाल मन्दिर में अवश्य जाये। महाकाल को देखकर मुक्ति मिल जाती है, ऐसा भी प्रसिद्ध है –
आकाशे तारकं लिङ्गं पाताले हाटकेश्वरम़्।
मृत्युलोके महाकालं दृष्टवा मुक्तिमवाप्नुयात़्॥
महाकाल शिवलिङ्ग १२ ज्योतिर्लिङ्गों में से एक है। शिव पुराण में कहा गया है –
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम़्।
उज्जयिन्यां महाकालमो~ड्कारं परमेश्वरम़्॥
और कहा सन्ध्या समय तक वहीं महाकाल मंदिर में रुके रहना तथा सन्ध्या के समय होने वाली शिव की पूजा में सम्मिलित होकर गर्जन करके नगाड़े का कार्य करना, जिसमें तुम गर्जन के विशेष फ़ल को प्राप्त करोगे।
लेखनी प्रभावित करती है.
बहुत सुंदर श्रंखला है. शुभकामनाएं.
रामराम.
padh liya.
shukriya.
bahut hi badhiya.
उज्जैन में बहुधा घूमते मैने विक्रमादित्य, कालिदास और वाराहमिहिर को सूंघने का प्रयत्न किया है। और क्षिप्रा नदी तो बहुत बात करती प्रतीत होती थीं।
आप बहुत अच्छे विषय पर लिख रहे हैं!
कालिदास को ज्यादा पढा नहीं है, इसलिए ये सारी बातें नई ही लगीं।
शुक्रिया।
-Zakir Ali ‘Rajnish’
{ Secretary-TSALIIM & SBAI }
हमने तो बस कालिदास जी और मेघदूतम का नाम ही सुना था …और आज अगर आपके ब्लाग पर ना आते तो शायद इतना ही जान पाते……
आपके इस अमूल्य विषय की व्याख्या करने का जो बीडा उठाया है सराहनीय हैं…
ह्रदय से आभारी हैं आपके..
धन्यवाद..