सृष्टि संहार के समय शिव द्वारा किया जाने वाला नृत्य प्रसिद्ध है, उसे ताण्डव नृत्य कहते हैं। नाट्यशास्त्रियों ने नृत्य और नृत्त में अन्तर किया है। दशरुपक में लिखा है – “अन्यद़् भावाश्रयं नृत्यं नृत्तं ताललयाश्रयम़्” अर्थात़् भाव पर आश्रित अंगसञ्चालन नृत्य कहलाता है तथा ताल व लय पर आश्रित हस्त-पाद के सञ्चालन को नृत्त कहते हैं।
पशुपते: – पशु के स्वामी। यहाँ पशु से अभिप्राय सामान्य पशु से नहीं है, अपितु शैव दर्शन के अनुसार
पदार्थ के तीन भेद हैं – पशु, पाश और पति। अविद्या रुपी पाश से बद्ध जीवात्मा को पशु, पाश के समान बन्धन करने के कारण अविद्या को पाश तथा अविद्यापाश से मुक्त शिव को पति कहते हैं।
गजासुर (गज का रुप धारण करने वाले असुर) को मारकर शिव ने रक्त से सने हुए चर्म को भुजाओं से धारण करते हुए ताण्डव नृत्य किया था। और यक्ष मेघ से कहता है कि तुम गजासुर की गीली चर्म बनकर शिव की इच्छा पूर्ति करना; क्योंकि गजासुर के गीले चर्म को शिव को ओढ़े हुए देख कर पार्वतीजी डर जाती हैं और वह ताण्डव नृत्य भी नहीं देख सकतीं। यदि तुम गीले चर्म का सा स्थान ले लो तो पार्वतीजी भी निर्भय होकर ताण्डव नृत्य देख सकेंगी। शिवपुराण में यह कथा रुद्र सं. – युद्ध खण्ड अ. ५७ में आयी है।
योषित – यह शब्द सामान्यत: साधारण स्त्री का वाचक है।
अभिसारिका – जो स्त्री रात के अन्धकार में अपने प्रियतम से मिलने उसके घर अथवा किसी विशेष संकेत स्थल पर जाती है। यक्ष मेघ को निर्देश देता है कि तुम अभिसारिकाओं को बिजली चमकाकर उन्हें मार्ग तो दिखलाना, परन्तु वर्षा या गर्जन करके उन्हें भयभीत न कर देना; क्योंकि वे अभिसारिकाएँ एक तो स्वभावत: ही डरपोक होती हैं तथा दूसरे छिपकर अपने प्रेमी के पास रमण करने जा रही हैं। इससे उन्हें लोक निन्दा आदि का भय बना रहता है। ऐसे में मेघ गर्जन आदि से और भी अधिक भयभीत हो जायेंगी।
सूचिभेद्य – इतना प्रगाढ़ अन्धकार जो कि सुई से छेदा जा सके। जब धागे में गाँठ पड़ जाती है, तब उसे सुईं की नोक से खोलते हैं। इससे गाँठ की सूक्ष्मता और घनिष्ठता सूचित होती है।
Bahut sunder tatha wishad wiwaran.
आपकी लेखन शैली का कायल हूँ. बधाई.
बहुत से ऐसे शब्द और सन्दर्भ प्रवहित हो रहे हैं कि समृद्ध हो रहा है मानस । आभार ।
वाह! एक बेहतरीन श्रृंखला! जारी रहिये.
हिमांशु ने ठीक कहा ! अभिसारिकाएं क्या रात में ही पिय मिलन को जा सकती हैं ?
@अरविंद जी – मैंने जहाँ तक पढ़ा है, उसमें अभिसारिकाओं का रात में ही पिय मिलन का वर्णन मिला है, कहीं भी समय भिन्न नहीं हुआ है।
यक्ष मेघ को निर्देश देता है कि तुम अभिसारिकाओं को बिजली चमकाकर उन्हें मार्ग तो दिखलाना, परन्तु वर्षा या गर्जन करके उन्हें भयभीत न कर देना; क्योंकि वे अभिसारिकाएँ एक तो स्वभावत: ही डरपोक होती हैं तथा दूसरे छिपकर अपने प्रेमी के पास रमण करने जा रही हैं। इससे उन्हें लोक निन्दा आदि का भय बना रहता है। ऐसे में मेघ गर्जन आदि से और भी अधिक भयभीत हो जायेंगी।
कालिदास के यक्ष की सदाशयता के कायल हो गए…
behtreen…………shukriya padhwane ka.
बहुत सुंदर, बडा आनन्द आरहा है इस ग्रंथ के बारे मे जानकर, यह श्रंखला जारी रखियेगा.
रामराम.
पहली बार आपके ब्लॉग पर आना हुआ..और लगा कि कितना कुछ miss कर दिया..ऐसी जानकारियाँ नेट पर अन्यत्र नही मिलती..आभार