ह्रदयनिहितारम्भम़् – यक्षिणी अकेले में बैठकर प्रिय के काल्पनिक सहवास से मन बहलाती थी। आचार्य मल्लिनाथ ने यहाँ आरम्भ का अर्थ कार्य किया है, जिसका अर्थ है कि यक्षिणी पति के साथ चुम्बन, अलि़ड़्गन आदि कार्य वाले रति सुख का आन्नद
ले रही है। काम की दश अवस्थायें मानी गयी हैं यहाँ कवि ने तीसरी अवस्था का उल्लेख किया है। यहाँ सड्कल्पावस्था का वर्णन किया गया है।
सव्यापाराम़् – विरहिणी स्त्रियों का दिन तो किसी न किसी प्रकार काम आदि करते हुए व्यतीत हो जाता है, परन्तु रात्रि में कोई कार्य न होने के काराण उसे रात्रि व्यतीत करना कठिन हो जाता है।
सुखयितुम़् – वियोगिनियों को यदि प्रियतम का सन्देश प्राप्त हो जाये तो अत्यन्त सुख मिलता है।
अवनिशयनम़् – प्रोषितभर्तृका को सती धर्म का पालन करने के लिये पलंग पर सोने का निषेध होने से भूमि पर सोने का विधान है; अत: यक्षिणी भी पृथ्वी पर ही सोती है।
चौथी कामदशा जागरणावस्था होती है।
आधिक्षामाम़् – रोग दो प्रकार के बताये ग्ये हैं – आधि तथा व्याधि । आधि मानसिक तथा व्याधि शारीरिक रोग के लिये आता है, विरहिणी यक्षिणी आधि रोग से पीड़ित है; इसलिये यह अत्यन्त क्षीण हो गयी है।
संनिषण्णैकपार्श्वाम़् – प्राय: विरहिणी स्त्रियाँ रात्रि को करवट बदल-बदलकर व्यतीत करती हैं, किन्तु यक्षिणी एक करवट से पडी हुई रात्रि व्यतीत करती है। इसके दो कारण हो सकते हैं –
(१) यक्षिणी रात्रि में अपने प्रियतम के ध्यान में इतनी मग्न हो जाती है कि उसे अपने शारीरिक कष्ट का ध्यान नहीं रहता और वह करवट तक नहीं बदलती।
(२) वह विरह में इतनी दुर्बल हो गयी है कि करवट बदलने की सामर्थ्य ही उसमें नहीं रही हो; अत: सारी रात एक ही करवट से पड़ी रहती है।
मेघदूत पारिभाषिकी -आपका यह अवदान निघन्टू और भाष्यों की परम्परा में ही है -महनीय योगदान !
बहुत सुंदर.
रामराम.
bahut badhiya jankari……….jari rakhein.