प्राचीमूले तनुमिव कलामात्रशेषां हिमांशो: – इस पर महिमसिंह गणी का कथन है कि – “कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां रात्रौ शेषकलामात्रस्य चन्द्रस्य दिड़्मुखे संभव:।” अर्थात कृष्णपक्ष की चतुर्दशी को चन्द्रमा पूर्व क्षितिज में एक ही कला के रुप में रह जाता है। यहाँ यक्ष-पत्नी की सेज की पूर्व दिशा के क्षितिज
से और यक्ष-पत्नी की कलामात्र शेष चन्द्रमा की मूर्ति से तुलना की गयी है।
विरहमहतीम़् – युवक और युवतियों को अपने प्रथम मिलन के दिनों में दिन और रात क्षण-क्षण के समान छोटे दिखायी पड़ते हैं, किन्तु विरह की अवस्था में उन्हें दिन-रात पहाड़ की तरह विशाल प्रतीत होने लगते हैं। यक्षिणी की भी यही स्थिति है।
पूर्वप्रीत्या – काव्यों में, संयोगवस्था में जो चन्द्रमा प्रियजनों को सुख प्रदान करता है और विरहावस्था में वही चन्द्रमा कष्टप्रद होता है, ऐसा वर्णन अनेक स्थलों पर मिलता है। यक्ष का विचार है कि उसकी प्रिया जब अपने प्रियतम के साथ लेटती थी, उसी अनुभव के आधार पर बड़े उत्साह से उसकी प्रिया चन्द्रमा की किरणों पर दृष्टि डालेगी, किन्तु विरह के कारण वह किरणें दु:ख प्रदान करने वाली होंगी; इसलिए वह उन पर से दृष्टि हटा लेगी।
शुद्धस्नानात़् – यहाँ शुद्ध स्नान से अभिप्राय तैल आदि सुगन्धित द्रव्यों से रहित, उबटन आदि से रहित स्नान से है; क्योंकि वह प्रोषितभर्तृका है, इसलिए पूज आदि करने से पूर्व साधारण स्नान ही कर सकती थी; क्योंकि उसे प्रसाधन का निषेध था।
मत्संभोग – यक्षिणी का प्रियतम उससे दूर है; अत: उससे साक्षात़् संभोग तो सम्भव नहीं है इसलिये यह सोचकर कि उससे स्वप्न में ही संभोग सम्भव हो जाये, इसी विचार से नींद लेने का प्रयास कर रही है, किन्तु आँखों में आँसू आ जाने के कारण निद्रा का अवसर नहीं मिलता।
मयोद्वेष्टनीयाम़् – प्राचीन समय में यह प्रथा थी कि वियोग के अवसर पर पति अपनी पत्नी के बालों को एक वेणी में गूँथता था और वियोग के बाद वही उसे खोलता था।
स्पर्शक्लिष्टाम़् – प्रोषितभर्तृकाएँ जिस वेणी को विरह के दिन गूँथती थीं, उसमें तेलादि न लगाने के कारण वह शुष्क हो जाती थीं जो स्पर्श करने में कष्ट देती थी।
कठिनविषमाम़् – बहुत समय से प्रसाधन न करने के कारण वेणी कठोर और उलझ जाती थी। विषम का अर्थ ऊँचा नीचा होता है, किन्तु यहाँ इसका अर्थ उलझा हुआ अधिक उपयुक्त है।
अयमुतनखेन – प्रोषितभर्तृकाएँ क्योंकि विरहावस्था में प्रसाधन नहीं करती थीं; इसलिए नाखून भी नहीं काटे थे, जिससे यक्षिणी के नाखून लम्बे-लम्बे हो गये थे।
आपके अध्ययन को प्रणाम करता हूं.
अजी मुझे पता नही इस बारे फ़िर भी हम आप के कहने से जरुर वोट करेगे, लेकिन,"रस्तोगी समाज का होने के नाते मैं “यथार्थ” को वोटिंग करने के लिये सबसे जोरदार अपील करता हूँ।" यह शव्द ना लिखते तो ज्यादा अच्छा था, एक तरफ़ तो हम गुट वाजी, ओर जात पात का विरोध करते है, ओर दुसरी ओर….
धन्यवाद
bahut hi rochak jankari di……..shukriya