पवनतनयम़् – हनुमान के पिता का नाम पवन तथा माता का नाम अञ्जना था; इसलिए हनुमान को पवनपुत्र, वायुपुत्र, मारुति, आञ्जनेय भी कहते हैं। उन्होंने सौ योजन समुद्र को लाँघकर सीता का पता लगाकर उन्हें राम की अँगूठी दी। जैसा व्यवहार हनुमान को देखकर सीता जी ने किया वैसा ही तुम्हें देखकर मेरी पत्नी करेगी। सीता और हनुमान को उपमान के रुप में प्रस्तुत करने से यक्ष-पत्नी का पातिव्रत्य और मेघ के दूत के गुण अभिव्यक्त होते हैं।
आयुष्मान – यक्ष ने मेघ को छोटा भाई माना है; इसलिये मेघ को आयुष्मान संबोधित करता है। छोटों के लिये आयुष्मान का प्रयोग दीर्घजीवी
के अर्थ में होता है और बड़ों के लिये “प्रशस्त जीवन वाले” अर्थ में होता है।
अड़्गेनाड़्गम़् – इसके द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि यक्ष और यक्षिणी दोनों की ही शारीरिक और मानसिक स्थिती एक जैसी है। दोनों ही दुर्बल हो गये हैं, संतप्त हैं और आँसू बहाते हैं, मिलने के लिये व्याकुल हैं, आहें भरकर नम का दु:ख कुछ कम करते हैं। यक्ष तो वहाँ सामने ही स्थित है और वह अपनी प्रिया की भी वैसी ही कल्पना करता है।
तै: सड़्कल्पै: – वे-वे मनोरथ जिनका यक्ष ने संभोगकाल में अनुभव कर रखा था और वे मनोरथ अब उससे ह्रदय में विरह के कारण जागृत हो रहे हैं।
आननस्पर्शलोभात़् – इससे यह भाव झलकता है कि यक्ष को अपनी पत्नी से इतना अधिक प्रेम था कि उसके शरीर के स्पर्श के लिये कोई ना कोई बहाना ढूँढता रहता था और जो बात सबके सामने कह सकता, उसे धीरे से उसके कान में कहता था, जिससे उसके अंगों को स्पर्श करने का अवसर मिल जाये।
चण्डि – विप्रलम्भ श्रंगार निम्न भेदों से चार प्रकार का होता है – पूर्वराग, मान, प्रवास तथा करुण । मान कोप को कहते हैं जो प्रणय से अथवा ईर्ष्या से उत्पन्न होता है। पति के अन्य स्त्री में आसक्ति देखकर या सुनकर स्त्रियों को ईर्ष्याजन्य मान होता है। यहाँ चण्डि पद से यह भाव झलकता है कि मैं तुम्हारे अंगों की समानता अन्य वस्तुओं में देखने का प्रयत्न कर रहा हूँ, इसलिये तुम कुपित हो जाओगी, किन्तु तुम्हारे कुपित होने की कोई बात नहीं है; क्योंकि उन वस्तुओं में किसी में भी तुम्हारी समानता नहीं मिलती।
बहुत सुंदर, शुभकामनाएं.
रामराम.
"इससे यह भाव झलकता है कि यक्ष को अपनी पत्नी से इतना अधिक प्रेम था कि उसके शरीर के स्पर्श के लिये कोई ना कोई बहाना ढूँढता रहता था और जो बात सबके सामने कह सकता, उसे धीरे से उसके कान में कहता था, जिससे उसके अंगों को स्पर्श करने का अवसर मिल जाये।"
समझ सकता हूँ ! कालिदास की चिरन्तनता !
sundar bhav .