परिणतशरच्चन्द्रिकासु – भारतवर्ष में छ: ऋतुओं होती हैं। उसमें शरद का समय अश्विन और कार्तिक मास होता है, जैसा कि स्पष्ट किया गया है कि यक्ष के शाप का अन्त कार्तिक शुक्ल एकादशी को होगा तभी उसका अपनी प्रिया से मिलना सम्भव होगा, तब शरद ऋतु का ढलना स्वाभाविक ही है। क्योंकि कार्तिक की समाप्ति पर शरद़् भी समाप्त हो जाती है इसलिए कवि का कथन कि “ढली हुई शरद़् ऋतु
की चाँदनी वाली रातें” इसमें कोई असंगति नहीं बैठती।
सान्तर्हासम़् – यक्षिणी ने किसी रात सोते समय स्वप्न में यक्ष को किसी अन्य रमणी के साथ रमण करते देखा, तो वह एक दम जाग जाती है और यह देखकर कि उसे वह अपने गले लगाये हुए है तो कुछ लज्जित-सी होती है और अपनी गलती पर मन ही मन हँसी भी आती है।
कितव – जो नायक किसी अन्य में अनुरक्त हो और प्रकृत नायिका में भी बाहरी तौर पर अनुराग दिखलाये और गुप्तरुपेण उसका अप्रिय करे वह शठ कहलाता है। यहाँ यक्षिणी स्वप्न में यक्ष को किसी अन्य स्त्री के साथ देखकर उसे कितव (शठ) कहकर सम्बोधित करती है।
अभिज्ञानदानात़् – अभीज्ञान कहते हैं पहिचान का चिह्न अथवा निशानी। यक्ष मेघ को अभिज्ञान के रुप में एक ऐसा रहस्य बताता है जो यक्ष और यक्षिणी को ही पता है, उस रहस्य को सुनकर यक्षिणी जान जायेगी कि इस मेघ को यक्ष ने ही भेजा है।
उपचितरसा: प्रेमराशीभवन्ति – वियोग में अभिलाषा के बढ़ जाने पर स्नेह प्रेम के रुप में परिणत हो जाता है। रसरत्नाकार में संयोग की दर्शन, अभिलाषा, राग, स्नेह, प्रेम, रति और श्रृंगार ये सात अवस्थाएँ पृथक पृथक स्पष्ट की हैं –
प्रेक्षा दिदृक्षा रम्येषु तच्चिन्ता त्वभीलाषक:।रागस्तासड़्गबुद्धि: स्यात्स्नेहस्तत्प्रवणाक्रिया॥तद्वियोगऽसहं प्रेम, रतिस्तत्सहवर्तनम़्।श्रृड़्गारस्तत्समं क्रीड़ा संयोग: सप्तधा क्रमात़्॥
अर्थात सुन्दर पदार्थ को देखने की इच्छा को प्रेक्षा, सुन्दर पदार्थ को पाने की चिन्ता को अभिलाष, सुन्दर पदार्थ के साथ संसर्ग की बुद्धि को राग, उसके लिए कार्य करने को स्नेह, उस पदार्थ के साथ होने वाले वियोग को न सहने को प्रेम, अभीष्ट पदार्थ के साथ रहने को रति और उसके साथ क्रीड़ा को श्रृंगार कहते हैं।
कुन्दप्रसवशिथिलम़् – कुन्द पुष्प चमेली के पुष्प को कहते हैं, यह पुष्प शाम को खिलता है और प्रात:काल मुरझा जाता है; अत: महाकवि ने विरह पीड़ित प्राणों को प्रात:कालीन चमेली के पुष्पों के समान कहा है।
ते विद्युता विप्रयोग: मा भूत़् – विद्युत को मेघ की पत्नी बताया गया है। श्लोकार्द्ध में मेघ के प्रति मंगल कामना की गयी है कि वह अपनी प्रिया से क्षण भर के लिए भी वियुक्त न हो। वास्तव में यक्ष ने अपनी प्रिया से वियोग सहा है और वह जानता है कि वियोग कितना कष्टकारक होता है। इस प्रकार मेघदूत मार्मिक मंगल-वाक्य के साथ समाप्त होता है।
सटीक प्रस्तुति . दीपावली की हार्दिक शुभकामनाये
aapko deepawali ki haardik shubhkaamnayen……….