हमारी पर्णकुटी के सामने एक बड़ा वट वृक्ष था। वृक्ष क्या, अनेक रंगों के और अनेक प्रकार की बोली बोलने वाले पक्षी जिस पर रहते थे, ऐसा छोटा-सा एक पक्षि-नगर ही था।
मैं उस वृक्ष की ओर देख रहा था। उसका आकार गदा की तरह था। ऊपर शाखाओं का गोलाकार घेरा और नीचे सुदृढ़ तना। इतने में अजीब-सी ’खाड़’ आवाज हुई, इसलिए मैंने उस ओर देखा। हमारे पड़ोस में रहनेवाला भगदत्त नामक सारथी अपने हाथ में लगे हुए प्रतोद को फ़टकार रहा था। मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा। हाथ में लगे प्रतोद को गरदन के चारों ओर लपेटता हुआ वह बोला, “क्यों वसु, क्या देख रहे हो?”
“कुछ नहीं, वह पक्षी देख रहा हूँ।“ मैंने उत्तर दिया।
“इस वटवृक्ष पर क्या पक्षी देखते हो, पक्षी देखने हों तो अरण्य में अशोक-वृक्ष के पास जाकर देखो। इस वटवृक्ष पर अधिकतर कौए ही रहते हैं। सड़े पके फ़लों को खाने के लिए वे ही आते हैं।“ हाथ में लगे प्रतोद के डण्डे से नीचे पड़े हुए फ़लों को फ़ेंकता हुआ वह बोला।
“कौए ?”
“हाँ ! भारद्वाज, श्येन, कोकिल आदि पक्षी भूले-भटके भले ही आ जायें यहाँ। एकाध कोकिल आ जाता है, वह भी कोकिल की धूर्तता से।“
“धूर्तता कैसी ?” मैंने उत्सुकता से उससे पूछा।
“अरे, कोकिला अपना अण्डा मादा कौआ की अनुपस्थिती में चुपचाप उसके घोंसले में लाकर रख देती है। अण्डे का रंग और आकार बिल्कुल मादा कौए के अण्डे जैसा ही होता है। इसलिए मादा कौआ को यह सन्देह ही नहीं होता कि अपने घर में किसी और का अण्डा रखा है। फ़िर मादा कौआ कोकिला के अण्डे को सेती है। उसके बाद सप्तस्वर में तान लेकर आस-पास के वातावरण को मुग्ध कर देने वाली कोकिल मादा कौआ के नीड़ में बड़ा होने लगता है।“ उसने प्रतोद को कण्ठ के चारों ओर लपेट लिया।
“कोकिल और वह मादा कौआ के घोंसले में ?” मैं विचार करने लगा। यह कैसे सम्भव हो सकता है ? भगदत्त की बात असत्य न होगी, इसका क्या प्रमाण है ? और थोड़ी देर के लिए यदि यह सत्य मान भी लिया जाये तो क्या हानि है। हो सकता है मादा कौआ के घर में कोकिल पलता हो। लेकिन वह कौआ बनकर थोड़े ही पलता है। वसन्त ऋतु का अवसर आते ही उसकी सप्तस्वरों की तान पक्षियों से स्पष्ट कह ही देती है कि, “मैं कोकिल हूँ। मैं कोकिल हूँ।“
बहुत सुंदर श्रंखला. किस्तों मे पुनरावृति हो रही है.
रामराम.
BAHUT BADHIYA……….JARI RAKHIN
पढ़कर अच्छा लगा