एक दिन नगर के सभी बालक इकट्ठे होकर नगर के बाहर पठार पर खेल रहे थे। किसी ने राजसभा का खेल खेलने की कल्पना निकाली थी। राजसभा का चित्र गढ़ रखा था। पिताजी हस्तिनापुर से आये थे और मैं शोण को बुलाने गया था, वो सेनापति बना था। आते ही पिताजी ने एक बड़ी आनन्ददायक बात बतायी कि हस्तिनापुर वापिस जाते समय वे मुझको भी अपने साथ ले जाने वाले थे वहाँ द्रोण नामक अत्यन्त युद्ध-कुशल और विद्वान गुरुदेव हैं, पिताजी मुझको युद्ध-विद्या की शिक्षा प्राप्त करने के लिये उनकी देख-रेख में रखना चाहते थे। इसलिये मैं एकदम शोण को ढूँढ़ता हुआ आया कि मैं उसे समझा बुझाकर यह समाचार बताऊँगा। क्योंकि भय था कि समाचार सुनकर कहीं वह भी हस्तिनापुर चलने की हठ न कर बैठे ! उसको समझाना हम सबके लिये टेढ़ी खीर था।
पठार के पास जैसे ही मैं पहुँचा शोण ने जोर से पुकारा “वसु भैया, जल्दी आ।“ मैं झटपट उनके पास गया। जैसे ही वहाँ पहुँचा, सब मुझको घेर कर खड़े हो गये। सबके सब बहुत जोर-जोर से चिल्लाने लगे, इसलिए मैं तत्क्षण यह समझ ही नहीं पाया कि वे क्या कह रहे हैं ?
“राजा…वसु…कुण्डल…सेनापति” आदि विचित्र शब्द गूँजते हुए कानों से टकराने लगे। अन्त में मैं ही जोर से चिल्लाया , “पहले सब चुप तो हो जाओ !”
“हम सबने राजसभा तैयार की है। केवल योग्य राजा ही हमको नहीं मिल रहा था। तेरे कुण्डलों के कारण हमने तुझी को राजा बनाने का निश्चय किया है।“ सबकी और से ब्रह्मदत्त बोला और सबने एक साथ चिल्लाकर उसका समर्थन किया।
“अरे मैं तो शोण को बुलाने के लिये आया हूँ”। मैं बोला।
“ऊँहूँ, शोण नहीं, सेनापति ! और सेनापति को बुलाने के लिये महाराज नहीं जाया करते हैं। हम जैसे सेवकों को आज्ञा दी जाती है ।“ नटखट ब्रह्मदत्त धूर्तता से बोला।
“और आप हैं सेनापति ! आपको महाराज को इस प्रकार नाम लेकर बुलाना उचित है क्या ? कह रहे थे, ’अरे वसु इधर आ !’ सेनापति ही अनुशासन भंग करने लगेंगे तो फ़िर सेना क्या करेगी ?” अमात्य बने हुए ब्रह्मदत्त ने शोण को चेतावनी दी।
मुझे जबरदस्ती एकदम उस काले पत्थर के सिंहासन पर बैठा दिया और अत्यन्त आदर से झुकता हुआ ब्रह्मदत्त बोला, “चम्पानगराधिपति वसुसेन महाराज की……”
सबने अत्यन्त आनन्द से उसके प्रत्युत्तर में कहा, “जय हो !” सब नीचे बैठ गये। अब मेरा छुटकारा होना असम्भव था, इसलिये मैं भी राज की शान से बोला, “अमात्य, सभा का काम-काज सभा के सम्मुख प्रस्तुत करने की अनुज्ञा दी जाती है।“
बहुत सुंदर.
रामराम.
कर्ण मेरा प्रिय चरित्र है, जिसे समझ नहीं पाया हूँ।
और ईश्वर से अर्जुन बनने की प्रार्थना करता हूँ। कर्ण बनने की नहीं। उसकी महानता निभाना ज्यादा कठिन है।
बहुत ही बढिया आलेख्………………………शुक्रिया।