जो कुछ हुआ था, उसका पूरा हाल शाम को शोण ने मुझे सुनाया कि उस वृषभ ने मुझको परास्त करने का बहुत प्रयास किये थे, लेकिन मेरे आगे उसकी एक न चली। लगभग दो घण्टों तक वह उछल-उछलकर अपने सिर को झटकता रहा था। उसने अपने शरीर को बहुत-से विचित्र झटके दिये। बीच-बीच में वह जोर से कूदता, पैरों के खुरों से जमीन कुरेदता; लेकिन अन्त में वह थक गया और चुपचाप खड़ा हो गया। उसके मुँह से झाग निकलने लगा। वह लगातार ’फ़ूँ-फ़ँ’ कर रहा था। इतने में शोण भागते हुए गया और पिताजी को बुला लाया। उन्होंने ही उसके नाथ डाली, लेकिन मेरे हाथों की पकड़ छुड़ाते समय उन्हें बहुत ही परेशानी हुई। सुनते हैं कि मेरी देह के हाथ लगाते ही ऐसी जलन होती थी, जैसे कि आग को छू लिया हो।
मैं विचारम्ग्न हो गया। दो घंटे तक एक जंगली पशु से जूझते रहने पर भी मेरे शरीर पर कोई खरोंच तक नहीं आयी। क्यों ? मेरा शरीर इतना कैसे तप्त हो गया कि छूते ही छाला पड़ जाता था ?
मैंने उत्सुकतावश शोण से पूछा, “शोण, खेलते समय कभी तुझे चोट लगी है क्या ?”
वह बोला, “अनेक बार”।
शोण को चोट लगती है। उसकी देह से रक्त बहता है। तो फ़िर मेरी देह से भी वह बहना ही चाहिए। मैं झटपट उठा और सीधा पर्णकुटी में गया। वहाँ अनेक धनुष-बाण पंक्ति-बद्ध रखे हुए थे। सर्र से उनमें से एक बाण मैंने खींच लिया । निश्चय कर हाथ से उस बाण को मैंने सिर से ऊँचा उठाया कि अब उसकी तीक्ष्ण नोक ठीक पैर के पंजे पर आयेगी, और उस बाण को हाथ से छोड़ दिया। अब वह कच से मेरे पैर में घुस जायेगा, यह सोच सिहरकर मैंने तत्क्षण आँखें मीच लीं। बाण पैर पर पड़ा, लेकिन मुझको केवल इतना ही लगा जैसे कि घास की सींक-सी चुभ गयी हो ! बाण की नोक मेरे पैर की खाल में घुसी नहीं थी। मुझे लगा कि मैंने बाण छोड़ने में ही भूल कर दी है, इसलिये बार-बार मैंने वो बाण अपने पैरों पर गिराया। लेकिन एक बार भी उसकी नोक मेरे पैर की त्वचा में नहीं घुस पायी। मैंने गौर से अपने पैर की ओर देखा। वहाँ छोटा सा घाव तक नहीं हुआ था।
उत्सुकता और संदेह का राक्षस मेरे सामने अनेक प्रश्नों की लटें बिखारकर नाचने लगा। मैं अपने हाथ में लगे बाण को नोक को विक्षिप्त की तरह जंघा में, बाँहों में, छाती में, पेट में – जहाँ जगह मिली वहीं पूरी शक्ति से घुसाने का प्रयत्न करने लगा। लेकिन कहीं भी वह शरीर के भीतर तिल-भर भी नहीं घुस सका। क्यों नहीं घुस सका वह ? क्या मेरे शरीर की त्वचा अभेद्य है ? मन के आकाश में सन्देह की एक बिजली इस ओर से उस छोर तक चमक गयी। हाँ ! निश्चय ही मेरी सम्पूर्ण देह पर किसी से भी न टूट सकनेवाला अभेद्य कवच होना चाहिये। अभेद्य कवच ! वाह, दौड़ते हुए रथ में से भी यदि मैं कूद पड़ूँ तो मुझको कभी चोट नहीं लगेगी ! पत्थर, कंकड़ या किसी शस्त्र से भी मैं कभी घायल नहीं हो सकूँगा। घायल नहीं हो सकूँगा मतलब – मैं कभी मरुँगा नहीं। कभी नहीं मरुँगा। मेरी यह सुवर्ण रंगी त्वचा सदैव इसी तरह चमकती रहेगी। मैं अमर रहूँगा। मुझे कवच मिला है, मेरे कानों मे जगमगाते हुए कुण्डल हैं। अकेले मुझे ही क्यों मिले हैं ? मैं कौन हूँ ?
सन्देह की टिटहरी मेरे मन के आकाश में कर्कश स्वर में किकियाने लगी। ऐसा प्रतीत होने लगा कि मैं इन सबसे अलग कोई हूँ, इनमें और मुझमें बहुत बड़ा अन्तर है। लेकिन इन विचारों से स्वयं मुझको बहुत दुख होने लगा । जिस राधामाता का मैंने दूध पिया था, जिसके रक्त-मांस का उत्तराधिकार पाकर मैं बड़ा हुआ था, जिसने मेरे लिए कठिन परिश्रम के पर्वत को धारण किया, उसके प्रेम से – उपर्युक्त विचारों द्वारा क्या मैं कृतघ्न नहीं हो रहा था ? मेरा मन विद्रोह कर उठा और कठोर शब्दों में मुझको चेतावनी देने लगा, “मैं कौन हूँ ? मैं कौन हूँ ? – यह पागलों की तरह मत चिल्ला ! ध्यान रख कि तू तात अधिरथ और राधामाता का पुत्र है ! सूतपुत्र कर्ण है ! शोण का बड़ा भाई कर्ण है ! सारथियों के कुल का एक सारथी है ! एक सारथी !”
Bahut rochak gatha hai Vivek ji… prastut karne ke liye ek baar fir se aabhar..
रोचक आलेख.
बहुत सुंदर, अथक परिश्रम का कार्य कर रहे हैं आप. शुभकामनाएं.
रामराम.
यहाँ पर कर्ण का अन्तरद्वन्द चरम पर है, ओर सोचने को मजबूर है कि मैं बाकी दुनिया से अलग क्यों हूँ ।
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Mahabharat ke Pran Mahatma Karna by Prabhu Dutt Brahmchaari ji !
adbhut………karn ke antardwand ki adbhut vyakhya hai……..bahut badhiya chal raha hai prasang ……aage janne ki utkantha bani rahti hai.
नहीं जानता क्यों पर कर्ण क्यों इतने लोगो के प्रिय है ?मेरे भी ……विवेक जी आज से कई साल पहले इसी कलह के मोर्डन अवतार पे श्याम बेनेगल ने शशि कपूर के लिए एक फिल्म बनायीं थी "कलयुग ".जिसमे शशि कपूर ने कर्ण का रोल किया था .देखिएगा …