दूसरे दिन पिताजी ने मुझको हस्तिनापुर चलने के लिए तैयार रहने को कहा। मैं उनकी आज्ञानुसार आवश्यक एक-एक वस्तु एकत्रित करने लगा। मन में अनेक विचारों का जमघट लगा हुआ था। अब चम्पानगर छोड़ना पड़ेगा। यहाँ के आकाश से स्पर्धा करनेवाले किंशुक, सप्तपर्ण, डण्डणी, मधूक, पाटल और खादिर के वृक्ष अब मुझसे अलग होनेवाले थे। यहाँ के पत्ररथ, श्येन, कोकिल, क्रौंच, कपोत आदि पक्षियों से अब मैं बहुत दूर जानेवाला था।
ऐसी बहुत सी बातें कर्ण सोचने लगा और हस्तिनापुर के बारे में सोचने लगा कि वह कैसा होगा –
कैसा होगा वह हस्तिनापुर ! सुनते हैं, वहाँ बड़े-बड़े प्रासाद हैं। प्रचण्ड व्यायामशालाएँ, अनेक प्रकार के शस्त्रास्त्रों से ठसाठस भरी हुई शस्त्रशालाएँ, हिनहिनाते हुए विशालकाय घोड़ों की पंक्तियों से भरी हुई अश्वशालाएँ, सप्तवर्ण बृक्ष की तरह आकाश के गर्भ में जिनके कलश विराजमान हैं, ऐसे भव्य मन्दिर वहाँ हैं। और द्वार की किवाड़ों की तरह जिनके वक्षस्थल हैं, जिनकी भुजाएँऔर जंघाएँ शक्तिशाली हैं, ऐसे असंख्य योद्धाओं से वह हस्तिनापुर भरा हुआ है। सुनते हैं कि वह कुरुकुल के राजाओं की राजधानी है ! किस दिशा मॆं होगी वह ?
विचारों में लीन मैं, अपना समान रथ में रखता जा रहा था, शोण भी मेरी मदद कर रहा था, परंतु उसे अब भी यह पता नहीं था कि आज मैं भी जा रहा हूँ। “आज मैं तुझको छोड़कर जाऊँगा” यह बात उससे कैसे कहूँ, यही मेरी समझ में नहीं आ रहा था। जब जाने की तैयारी हो गई तो द्वार पर खड़ी राधामाता को झुककर वन्दन किया उसने मुझे ऊपर उठाते हुए मेरे मस्तक को आघ्राण किया। मुझको ह्र्दय से लगाकर शोक से अवसन्न हो बोली, “एक बात ध्यान रखना वसु ! गंगा के पानी में कभी गहराई में मत जाना !” उसकी आँखों से आँसुओं की झड़ी लग गयी । मेरे रक्त की एक-एक बूँद उन आँसुओं से अत्यन्त प्रेम से कह रही थी, “मात ! तुम्हारे इस उपदेश का मूल्य मैं कैसे सँभालकर रखूँ ? केवल इतना ही कहता हूँ कि साक्षात मृतु के आने पर भी तेरा वसु सत्य से तिल-भर भी कभी विचलित नहीं होगा !”
उसे कुछ याद आ गया, पुन: पर्णकुटी में गय़ी, और मेरे हाथ पर एक चाँदी की एक छोटी-सी पेटी रख दी। अत्यन्त दुख-भरे स्वर में वह बोली, “वसु, जब-जब तुझको मेरी याद आये, तब-तब तू इस पेटी का दर्शन किया करना । मेरे स्थान पर इसी को देखना ! यह तुम्हारी माँ ही है, यह समझकर इसको सँभालकर रखना !”
मैंने पेटी उत्तरीय में अच्छी तरह बाँध ली। माता को फ़िर एक बार वन्दन किया। उसने काँपते हाथ से दही की कुछ बूँदे मेरी हथेली पर डालीं। मैंने उनको ग्रहण किया। एकबार उस सम्पूर्ण पर्णकुटी पर दृष्टि डालकर मैंने उसको आँखों में भर लिया। पिताजी ने मुझसे रथ में बैठने को कहा।
जैसे ही रथ में मैं बैठा, शोण ने पिताजी से पूछा, “भैया कहाँ जा रहा है ?” अब तक उसकी आँखों में आकुलता थी। वे अब रुआँसी हो गयी थीं।
“मेरे साथ हस्तिनापुर जा रहा है। तू भीतर जा ।” पिताजी ने घोड़ों की वल्गाएँ अपने हाथ में लेकर एकदम उनकी पीठ पर जोर से कशाघात करते हुए कहा । घोड़े एकदम तेजी से उछले और तेजी से दौड़ने लगे।
bahut hi adbhut ……….har prasang dil ko choo raha hai.