शोण हाथ उठाकर “भैया रुक जा ! भैया रुक जा ऽऽऽ – “ कहता हुआ रथ के पीछे दौड़ने लगा। माँ ने आगे बड़कर तत्क्षण उसको पकड़ लिया । मैंने सन्तोष की साँस ली। रथ आगे दौड़ने लगा । लेकिन शोण फ़िर माँ के हाथों से छूट गया था। दूर अन्तर पर उसकी छोटी-सी आकृति आगे बढ़ती हुई दिखाई दे रही थी। उत्तरीय सँवारता हुआ एक हाथ उठाये वह अब भी दौड़ रहा था।
हम लोग नगरी की सीमा तक आ पहुँचे। मैंने सोचा था कि शोण हारकर अन्त में वापस लौट जायेगा। लेकिन हाथ उठाकर वह अब भी दौड़ रहा था। मैंने पिताजी को रथ रोकने को कहा। हमको रुकते देख वह और जोर से दौड़ने लगा। परन्तु भोले-भाले बालक-जैसे लगने वाले शोण में भी कितना बड़ा साहस था ! वह मेरे साथ आना चाहता था, इसलिए वह सब कुछ भूलकर दौड़ लगा रहा था। कितना हठी था वह ! हठी क्यों, कितना स्वाभाविक और निश्छल प्रेम था उसका मुझपर ! थोड़ी देर में ही वह हाँफ़ता हुआ हमारे पास आ गया।
उसकी किशोर मुखाकृति स्वेद से तर हो गयी थी। वह बहुत थक गया था, लेकिन उस स्थिति में भी तत्क्षण आगे बढ़कर वह तेजी से उछलकर रथ में कूद पड़ा। रुआँसा होकर, हाँफ़ने के कारण टूटे-फ़ूटे शब्दों में, वह बोला, “मुझको छोड़कर जा रहा है ? क्यों रे भैया ? तू जायेगा तो…तो मैं भी तेरे साथ ही चलूँगा; वापस नहीं जाऊँगा मैं? मुझको शोण जैसा स्नेही भाई मिला था।
नगरी के आस-पास के परिचित स्थल पीछे छूटने लगे। अगल-बगल की घनी वनराजि में चम्पानगरी अदृश्य होने लगी। मेरा बचपन भी अदृश्य होने लगा। आस-पास की वह हरियाली, जिस पर मेरे बचपन के चिह्न अंकित थे, क्षण-प्रतिक्षण मेरी आँखों से ओझल होने लगी।
दो दिन पहले जिस पठार पर हमने राजसभा का खेल रचा था, नगरी के बाहर का वह पठार सामने आया। उस पर मध्य भाग में वह काल पाषाण एकाकी खड़ा-खड़ा तप रहा था। मुझको राजा के रुप में मान देनेवाला पाषाण का वह कल्पित सिंहासन – महाराज वसुसेन का वह सिंहासन – मुझको मौन भाषा में विदा करने लगा। हाथ उठाकर मैंने उसको और चम्पानगरी को वन्दन किया। मेरा जीवन बचपन की हरियाली छोड़कर दौड़ने लगा – चम्पानगरी से हस्तिनापुर की ओर ।
Kamaal ka upanyaas hai!!!!!!!!! lekin itna thoda thoda aap roz dete hain kabhi thoda sa jyada de dijiye Vivek sir…
Jai Hind…
गजब…बस जारी रहो!!
शोण का प्रेम अपने भाई कर्ण के लिये देखते ही बनता है।
और जब हम अपनी प्रिय नगरी या गृहनगर को छोड़ते हैं तो हमारे मन में भी यह भाव आते हैं जो कर्ण के मन में आ रहे हैं, क्योंकि उस जगह से हमारा भावनात्मक लगाव होता है।
दीपक भाई,
मैं अपने समय के कारण मजबूर हूँ और ज्यादा समय नहीं दे पाता हूँ, मुझे पता है कि यह एक बांधने वाला उपन्यास है, आप इसकी भाषा देखेंगे तो साहित्य की चपलता और साधारणता दोनों दिखाई पड़ेंगी। लेखक ने बहुत मेहनत से भाषा में गढ़ा है। मुझे तो कई बार ये लगता है कि कल मैं नया पोस्ट पब्लिश कर भी पाऊँगा या नहीं, क्षमा करें अभी तो मैं इतना ही कर पाऊँगा पर हाँ आपकी बात का ध्यान जरुर रखूँगा। और आगे ज्यादा लिखने का प्रयास करुँगा।
आपकी आत्मियता और टिप्पणी ही मेरे लिये संबल है।
कई बार तो मैं सोचता हूँ कि क्यों न ये सब बंद कर दिया जाये, क्योंकि इसमें समय आरक्षित करने से मेरे मौलिक लेखन पर असर है, पर मेरा उद्देश्य इस उपन्यास के अंश देने का कुछ और है जो कि आप इस कड़ी की पहली पोस्ट पर देख सकते हैं।
आपका प्रेम बना रहे, बस इतना ही ।
bahut hi mehnat ka kaam hai ye………..aap usmein se jo padhwa rahe hain uske liye hum aapke aabhari hain.
बहुत सुंदर.
रामराम.