“यह मेरा पुत्र कर्ण है ।“ पिता जी ने गुरुवर्य द्रोण से निवेदन किया।
मुझको पूरा विश्वास था कि अब वे मुझसे मेरे कानों के कुण्डलों के सम्बन्ध में कुछ अवश्य पूछेंगे, लेकिन निर्विकार भाव से उन्होंने केवल इतना ही कहा, “तुम्हारा पुत्र, अधिरथ ? फ़िर इसको आज युद्धशाला में कैसे लाये हो ?”
“आपके चरणों में डालने के लिए ।“
“मेरे चरणों में किसलिए ?”
“युवराजों के साथ यदि इसको भी थोड़ी-सी युद्धविद्या की शिक्षा मिल जाये तो …”
“युवराजों के साथ ? अधिरथ, युद्धविद्या केवल क्षत्रियों का कर्तव्य है। तुम चाहो तो अपने पुत्र को युद्धशाला में भरती कर दो, लेकिन वह युवराजों के साथ शिक्षा कैसे पा सकता है ?”
पिताजी का चेहरा क्षण-भर को निस्तेज हो गया। क्या कहें, यह थोड़ी देर तक उनकी समझ में नहीं आया, अन्त में वे जैसे-तैसे बोले, “गुरुदेव की जैसी आज्ञा ।“
गुरुदेव को पुन: अभिवादन कर हम लोग लौटने लगे। मार्ग में युवराज अर्जुन लक्ष्य में से बाण निकालकर लौटता हुआ हमें मिला। मैंने उसको ध्यान से देखा। उसका बर्ण आकाश की तरह नीला था। हनु भाले की नोक की तरह सिकुड़्ती हुई थी। उस्की तेजस्वी आँखें दोनों कनपटियों की ओर संकुचित होती गयी थीं। उसकी नाक ऋजु और तीक्ष्ण थी। मस्तक थाल की तरह भव्य था। भौंहें सुन्दर थीं । उसका पूरा चेहरा ही विलक्षण सुन्दर था। घण्टे की तरह मधुर ध्वनि में उसने पिताजी से पूछा, “क्यों काका, चम्पानगरी से आज ही आये हो क्या ?”
“हाँ । अपने इस पुत्र कर्ण को लेकर आया हूँ।“
अर्जुन ने मेरी ओर देखा। मेरी आँखों की अपेक्षा वह शायद मेरे कानों के कुण्डल को ही अधिक आश्चर्य से देख रहा था । वह मुझसे कुछ पूछने ही जा रहा था कि इतने में ही आकाश से एक कुण्डली-सी हम दोनों के बीच में आकर सर्र से गिरी। आकाश से गिरने के कारण सुन्न होकर वह सर्प थोड़ी देर तक वैसा ही पड़ा रहा और फ़िर जिधर अवसर मिला उधर ही दौड़ने लगा। विद्युत गति से युवराज अर्जुन ने हाथ में लगा बाण धनुष पर चढ़ा लिया और वह द्रुतगति से दौड़ते हुए सर्प पर निशाना लगाने लगा। इतने में ही चबूतरे से कोई चिल्लाया, “अर्जुन ! हाथ नीचे कर !” उस आवाज में अद्भुत शक्ति थी। युवराज अर्जुन ने एकदम हाथ नीचे कर लिया, मानो अग्नि का चटका लग गया हो। तीर की गति से भागता हुआ वह सर्प क्षण-भर में ही अखाड़े के पाषाण-प्राचीर में कहीं अदृश्य हो गया। चबूतरे पर से पुन: आवाज गूँजी, “युवराज, उस तुच्छ सर्प को मारने से पहले अपने भीतर के सर्प को मार डालो। क्रोध का सर्प बड़ा भयानक होता है। दुर्बल पर हाथ मत उठाओ।“
उस चबूतरे पर गुरुदेव द्रोण थे । एक युवक शीघ्रता से अर्जुन के पास आया और अर्जुन की पीठ पर हाथ रखकर उसने अत्यन्त मधुर स्वर में पूछा, “एकदम ही धनुष कैसे उठा लिया, पार्थ ?”
ये थे युवराज युधिष्ठिर ।
बहुत सुंदर कहानी चल रही है, बहुत आभार.
रामराम.
बहुत बढ़िया लिख रहे हैं ..जारी रखे….
एक चरित्र बन पाता युधिष्ठिर और अर्जुन का सम्यक! कितना सशक्त होता! या कितना दुर्बल?!
bahut hi badhiya aur gyanvardhak prasang sunaya………shukriya.