संसार के तीन व्यक्तियों से मुझको अत्यन्त प्रेम था। एक अपनी माँ से, दूसरा पिताजी से और तीसरा शोण से। उसी तरह तीन बातों के प्रति मुझमें आकर्षण था। एक थी अपनी असंख्य लहरों के असंख्य मुखों से मुझसे घंटों तक बात करने वाली गंगामाता, दूसरे थे मेरे लिए सदैव उत्साह का प्रचण्ड प्रवाह लेकर आनेवाले आदित्यनारायण और तीसरी यह माँ की दी हुई एक छोटी-सी निशानी चाँदी की पेटिका। इस पेटिका के कारण मुझको चम्पानगरी की याद आयी। मेरे मन का बछड़ा मातृभूमि के थनों पर आघात करने लगा। उनसे स्मृतियों की अनेक मधुर दुग्धधाराएँ बहने लगीं उनकी मधुरता चखते-चखते मैं न जाने कब सो गया।
प्रत्युषा में पक्षियों की चहचहाहट से मैं जागा। क्षितिज की रेखाओं से अन्धकार हटने लगा था। समस्त हस्तिनापुर धीरे-धीरे जागृत हो रहा था। दूसरा एक सूखा उत्तरीय लेकर मैं कक्ष से बाहर निकला। इस समय वहाँ कोई न होगा, अत: गंगा के पानी में जी भर स्नान कर आऊँ, यह सोचकर मैं घाट की ओर चलने लगा। विचारों में डूबा मैं गंगा के घाट पर आ पहुँचा। मैंने उस अथाह पात्र को आदरपूर्वक नमस्कार किया और फ़िर दोनों हाथ आगे कर सिर के बल मैं पानी में कूद पड़ा। लगभग घण्टा-भर तक मैं उस पानी में मनमानी डुबकियाँ लगाता रहा। मैं पानी में से घाट की ओर पानी काटता हुआ आया। भीगा हुआ अधरीय बदला। भीगा वस्त्र पानी में डूबाकर, फ़िर निचोड़कर मैंने सीढ़ी पर रख दिया। दूर आकाश में सूर्यदेव धीरे-धीरे ऊपर उठ रहे थे। उनकी कोमल किरणें गंगा के पानी को गुदगुदाकर जगा रही थीं। अंजलि में पानी भरकर भक्तिभाव से उसका अर्ध्य मैंने सूर्यदेव को दिया।
शायद किसी ने मेरे कन्धों को स्पर्श किया। मेरे कन्धों को जोर से हिला रहा था। मैंने धीरे से आँख खोलीं और मुड़कर देखा। अत्यन्त शांत मुखाकृतिवाले एक वृद्ध मेरी ओर देख रहे थे। उनकी दाढ़ी के, सिर के और भौंहों के सभी केश सफ़ेद बादल की तरह श्वेत-शुभ्र थे। भव्य मस्तक पर भस्म की लम्बी रेखाएँ थीं। उनका हाथ मेरे कन्धे पर अब भी ज्यों का त्यों था। कौन है यह वृद्ध ? तत्क्षण मैं प्रश्नों के बाण मन के धनुष पर चढ़ाने लगा। लेकिन नहीं, मैंने इनको कहीं नहीं देखा।
अत्यन्त स्नेहासिक्त, स्वर में उन्होंने मुझसे पूछा, “वत्स, तुम कौन हो ?”
“मैं सूतपुत्र कर्ण ।“
“सूतपुत्र ! कौन-से सूत के पुत्र हो तुम ?”
“चम्पानगरी के अधिरथजी का ।“
“अधिरथ का ?”
“जी । लेकिन आप ?” मैंने बड़ी उत्सुकता से पूछा।
“मैं भीष्म हूँ ।“ उनकी दाढ़ी के बाल हवा के झोंकों से लहरा रहे थे।
भीष्म ! पितामह भीष्म ! कौरव-पाण्डवों के वन्दनीय भीष्म ! गंगा-पुत्र भीष्म ! कुरुवंश के मन्दिर के कलश भीष्म ! योद्धाओं के राज्य के ध्वज भीष्म ! क्षण-भर मेरा मन विमूढ़ हो गया। कुरुवंश का साक्षात पराक्रम मेरे सामने गंगा के किनारे खड़ा था।
प्रेरणादायक लेख!
wah wah, jin upmaon ka prayaog kiya gaya hai unhe samanya vyakti soch bhi nahin sakta…
बहुत आनंद आरहा है इस महान कृति के छोटे २ टुकडे यहां नित्य पढना.
रामराम.
हमारे महत्वपूर्ण पौराणिक आख्यानों पर आधारित इस उपन्यास अंश को पढ़वाने के लिए आभार।
aanand aa gaya ……..kitni gahan hai………adbhut.
वाह बहुत सुंदर रोजाना आप हमे यह पढा रहे है. धन्यवाद