पहले पन्द्रह दिन तक मैं युद्धशाला के शास्त्रों का केवल परिचय प्राप्त करता रहा। क्योंकि मैं कुछ सीखने की स्थिति में ही नहीं था। गुरुवर्य द्रोण के विचित्र व्यवहार के कारण मेरा मन कहीं रम नहीं रहा था। कभी मन में आता कि युवराजों के इस कबाड़खाने में केवल सूतपुत्र के रुप में अपेक्षित होने से तो अच्छा है कि एकदम चम्पानगरी का मार्ग पकड़ लिया जाये। युद्ध-विद्या की शिक्षा लेकर आखिर मुझे क्या करना है ? अब कौन सा महायुद्ध होने वाला है ? और हो भी तो उसमें मेरा उपयोग ही क्या है ? केवल एक सारथी के रुप में न ? तो फ़िर सारथी को इस युद्ध-विद्या की शिक्षा की क्या आवश्यकता है ? उसको तो घोड़ों की परीक्षा करनी चाहिए और उसकी उच्छश्रंखल प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना सीखना चाहिए। क्या यह काम में चम्पानगरी में रहकर नहीं कर सकता ? दूसरे ही क्षण फ़िर यह विचार आता कि ऐसा करने से कैसे काम चलेगा ? युद्ध-विद्या क्या केवल युद्ध के लिये ही सीखी जाती है ? जिसकी भुजाओं में शक्ति होती है, वह सदैव श्रेष्ठ माना जाता है ? इस युद्धशाला में मैं शक्तिशाली बन सकूँगा ।
इस युवराज अर्जुन को भी दिखा दूँगा कि संसार में वही अकेला धनुर्धर नहीं है। लेकिन इस बेचारे अर्जुन ने मेरा क्या बिगाड़ा है ! उससे यह स्पर्धा क्यों करुँ ! स्पर्धा सदैव व्यक्ति को अन्धा कर देती है। गुरुवर्य उससे स्नेह करते हैं तो इसमें उसका क्या दोष है ! गुरु प्रेम करें – यह कौन शिष्य नहीं चाहेगा ! और कौन ऐसा गुरु है जो भली-भाँति परीक्षा लिये बिना शिष्य को इतने समीप कर लेगा ! यदि यही बात है, तो गुरुदेव ! मैं भी आपकी कसौटी पर खरा उतरुँगा । केवल एक धनुर्धर होने के कारण ही यदि आप उस अर्जुन को इतना स्नेह करते हैं, तो मैं उससे भी श्रेष्ठ धनुर्धर बनूँगा। परन्तु मैं यदि धनुर्धर हो भी जाऊँ तो उसका क्या उपयोग ! आप तो मुझको कभी अपना शिष्य मानेंगे ही नहीं।
यदि युवराज अर्जुन गुरुवर्य का इतना लाड़ला था, तो इसका बुरा उसके भाई मान सकते थे, बात मुझको क्यों लगती है ? मेरी और युवराज अर्जुन का ऐसा क्या सम्बन्ध है ? कुछ भी तो नहीं है । मैं एक सूतपुत्र हूँ । वह एक युवराज हैं । उसका मार्ग दूसरा है और मेरा दूसरा । जीवन के मार्ग पर चलने वाले हम दोनों ऐसे यात्री हैं जो एक-दूसरे से एकदम भिन्न हैं। जाओ, युवराज अर्जुन ! खूब बड़े बनो । अजेय धनुर्धर बनो, यदि कभी अवसर आया तो यह सूतपुत्र कर्ण तुम्हारे रथ के घोड़ों को सँभालने के लिये सारथ्य करेगा।
मैंने मन ही मन निश्चय कर लिया कि अर्जुन हो या कोई और हो, मैं किसी के प्रति भी विद्वेष नहीं रखूँगा। यहाँ के सभी युवराजों के और मेरे मार्ग भिन्न-भिन्न हैं। जन्म ने ही उनका निर्धारण कर दिया है। चूँकि मेरी बड़ी इच्छा है, केवल इसीलिए मैं धनुर्विद्या सीखूँगा। मेरी भी इच्छा होती है कि केवल ध्वनि की दिशा में कहीं भी बाण छोडूँ, एक ही समय असंख्य बाण दसों दिशाओं में छोडूँ। गुरु कौन है, इस बात का महत्व ही क्या है ? महत्व की बात तो वास्तव में यह है कि विद्या के प्रति शिष्य में कितनी लगन है ! मैं तन-मन एक कर दूँगा । विद्या के लिए विद्या ग्रहण करुँगा। मैंने पक्का निश्चय कर लिया।
हमेशा की तरह आभार इस प्रस्तुति के लिए.
बहुत सुंदर, इस निरंतरता के लिये आभार.
रामराम.
behtreen upanyaas se li gayee lajawaab panktiya …….. bahoot lajawaab ……
jitni karn ki sarahna ki jaye kam hai………us umra mein bhi kya bhav the.