महाराज के रथ का सारथ्य बाबा ने अनेक वर्षों तक बड़े उत्तम ढंग से किया था। परन्तु आजकल वृद्धावस्था के कारण उनमें पहले-जैसी स्फ़ूर्ति नहीं रही थी। उनकी सहायता के लिये महाराज ने गवल्गण नामक सारथी के एक निपुण पुत्र को भी अपनी निजी सेवा के लिये नियुक्त कर रखा था। कभी-कभी महाराज उनको पुकारते थे, उसको सुनकर हम भी यह जान गये थे कि उनका नाम संजय है।
रथाशाला में वे और पिताजी उत्तम जाति के घोड़े, रथ का सबसे अधिक उपयोगी आँगने का तेल चक्र के लिए कौन-सी लकड़ी टिकाऊ रहती है, रथचक्रों के आरों की संख्या कम होनी चाहिए या अधिक, उनका गति पर क्या परिणाम होता है – आदि-आदि अनेक मनोरंजक विषयों पर चर्चा किया करते थे। मुझसे तो वे सदैव कहते, “कर्ण, तू सूतपुत्र है । तू सदैव यह ध्यान रखना कि उत्तम जाति का घोड़ा कभी धरती पर नहीं बैठता है रात में नींद के लिए भी । और कुलीन सारथी कभी रथनीड़ नहीं छोड़ता है प्राण जाने पर भी। एक बार जिस जगह पर बैठ गये, वहाँ से फ़िर हटना नहीं !”
“क्या कहते हैं काका ! घोड़ा कभी धरती पर नहीं बैठता है ?” मैं आश्चर्य से पूछता।
“हाँ । इतना ही नहीं, बल्कि खड़े-खड़े नींद लेनेवाला घोड़ा जब चार खुरों में से एक खुर उठाकर नींद लेने का प्रयत्न करे, तब यह समझ लेना चाहिए कि दीर्घ यात्रा के लिए वह निकम्मा हो चुका है? ध्यान रखो, घोड़ा सब प्राणियों में उत्तम प्राणी है ।“
“उत्तम !” मैं यों ही पूछता, क्योंकि मेरी इच्छा होती थी कि वे निरन्तर बोलते ही रहें। भारद्वाज पक्षी-जैसी उनकी वाणी भी ऐसी मधुर थी, उनको सतत सुनते रहने की इच्छा होती।
“केवल उत्तम ही नहीं, प्रयुत बुद्धिमान भी । कर्ण, घोड़े पर बैठकर कभी घने जंगल में जाना पड़े और फ़िर बाहर आने के लिए मार्ग न मिले तो निश्चिन्त होकर हाथ से वल्गा छोड़ दो। यह बुद्धिमान प्राणी तुझको ठीक उसी स्थान पर वापस ले आयेगा, जहाँ से तू चला होगा।“ घोड़ों की प्रकृति की ऐसी बहुत-सी बातें काका बातें करते समय बता जाते।
उनके मुख से घोड़ों की विविध प्रकृतियाँ, व्याधियाँ और चालें – इस सब बातों का वर्णन सुनते हुए हमारा समय आनन्द से व्यतीत होने लगा। सारथियों के कर्तव्य-कर्म, धार्मिक विधियाँ, सभागृह के नियम आदि की भी वे हमको सूक्ष्म जानकारी देने लगे।
संजय काका सारथ्य-कर्म की निपुणता की बारीकियाँ बताया करते थे।