एक दिन मैं और शोण यों ही नगर घूमने गये थे। सदैव की भाँति घूमघामकर हम लौटने लगे। राजप्रासाद के समीप हम आ चुके थे। इतने में ही सामने से आता हुआ एक राजरथ हमको दिखाई दिया। उस रथ के चारों और झिलमिलाते हुए वस्त्रों के परदे लगे हुए थे। रथ के घोड़े श्वेत-शुभ्र थे। मुझको उनका रंग बहुत ही अच्छा लगा।
इतने में ही शोण अकस्मात मेरे हाथ में से अपना हाथ छुड़ाकर उस रथ की ओर ही दौड़ने लगा। मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि वह पागलों की तरह रथ की ओर क्यों दौड़ रहा था ? और वह रथ के सामने कूद पड़ा और बड़ी फ़ुर्ती से कोई काली सी चीज उठायी। शोण को देखकर सारथी ने अत्यन्त कुशलता से सभी घोड़ों को रोका। मैं हांफ़ता हुआ उसके पास गया मुझे देखते ही बोला “भैया यह देखो । यह अभी रथ के नीचे आ जाता !” मैंने देखा वह एक बिल्ली का बच्चा था। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि शोण से अब कहूँ तो क्या कहूँ ? उस पर क्रोध भी नहीं किया जा सकता था। मैं कुछ आश्चर्य से उसकी ओर देखने लगा। यह क्या वही शोण है जो हमारे रथ के पीछे रोता हुआ दौड़ता आया था ?
इतने में ही उस राजरथ के रथनीड़ पर बैठे हुए सारथी ने कहा, “जल्दी कीजिए, झटपट अलग हटिए । रथ में राजमाता कुन्तीदेवी हैं !”
“राजमाता कुन्तीदेवी !”
मैंने शोण की बाँह पकड़कर उसको झट से एक ओर खींच लिया। मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । उस रथ में छह घोड़े जोड़ने की भली-भाँति व्यवस्था होने पर भी केवल पाँच ही घोड़े जोड़े गये थे। एक घोड़े का स्थान यों ही रिक्त छोड़ दिया गया था।
“राजप्रासाद में घोड़े नहीं रहे हैं क्या ?” मैंने मन ही मन कहा।
बढ़िया अंश,,,आभार.
is baar bhi utna hi sundar… sunate rahiye hum barabar anusaran kar rahe hain… 🙂
Jai Hind…
bahut hi rochak aur sundar……sadhuwad.
bahut badiya ,kal fir padhne kay liye abhi say tayyar hu
आप ने ये पोस्ट ब्लॉग पर 15 oct 2009 ko 00:41:47 पर पोस्ट किया , इस जानकारी के लिए धन्यवाद मत देना