राजप्रसाद से युद्धशाला बहुत दूर थी, इसलिए हम कुछ दिन बाद युद्धशाला में ही रहने लगे। अब राजप्रासाद से हमारा सम्बन्ध टूट गया था। वर्ष में एक बार शारदोत्सव के लिए हम राजभवन जाया करते। वह भी युवराज दुर्योधन के आग्रह के कारण। उसने और अमात्य वृषवर्मा ने हमारी अत्यधिक सहायता की थी। उसके निन्यानबे भाई थे, लेकिन अकेले दुर्योधन को छोड़कर और किसी ने कभी मेरा हालचाल नहीं पूछा था। मुझको भी औरों के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। उन सबके नाम कितने विचित्र थे! दुर्मर्ष, दुर्मुख, अन्त्यनार । यों तो मुझको एक और व्यक्ति भी अच्छा लगा था । वह था अश्वत्थामा। गुरु द्रोण का पुत्र । कितना सरल और ऋजु स्वभाव था उसका ! इतनी छोटी-सी अवस्था में ही धर्म, आत्मा, पराक्रम, प्रेम आदि विषयों पर वह कितने अधिकार से बोलता था ! अपन असमस्त अतिरिक्त समय मैं उसके साथ चर्चा करने में बिताता था। उसको मेरा केवल कर्ण नाम ही विदित था। मैं कौन हूँ, कहाँ का हूँ, यहाँ किस लिए आया हूँ, इस सम्बन्ध में उसने मुझसे कभी पूछ्ताछ नहीं की थी। इसीलिए वह मुझको सबसे अधिक अच्छा लगा था।
एक दिन मैंने सहज ही उससे पूछा, “तुम्हारा नाम अश्वत्थामा तनिक विचित्र-सा है, तुमको नहीं लगता ?”
छोटे बालक की तरह खिलखिलाकर हँसता हुआ वह बोला, “तुम ठीक कह रहे हो। यह नाम मुझे भी खटकता है। लेकिन जब मैं अपने नाम के सम्बन्ध में लोगों से पूछता हूँ, तब वे क्या कहते हैं, जानते हो ?”
“और क्या कहेंगे ? तुम घोड़े की तरह रोबीले दिखाई पड़ते हो, ऐसा ही कुछ कहते होंगे ।“
“नहीं। ये लोग कहते हैं कि जन्म लेते ही मैं घोड़े की तरह हिनहिनाया था। और इसीलिए मेरा नाम अश्वत्थामा रखा गया है। लेकिन मुझे नहीं जँचती यह बात। कोई छोटा शिशु घोड़े की तरह हिनहिनाये – यह कभी सम्भव है क्या ? परन्तु सच बात तो यह है कि मुझको अपना नाम अच्छा लगता है। क्योंकि मेरे पिताजी मुझको ’अशू’ कहते हैं। लेकिन जब मैं अकेला होता हूँ तभी कहते हैं। सबके सामने तो वे मुझको अश्वत्थामा ही कहते हैं।“
उसकी संगति में मेरे दिन बड़े मजे में बीत रहे थे। वह मेरे कानों के कुण्डलों को छूकर कहता, “कर्ण, तुम्हारे ये कुण्डल दिन-ब-दिन और अधिक सुनहले रंग के होते जा रहे हैं। नगर के किस सुवर्णकार के पास जाकर इनपर यह सुनहला वर्क चढ़वाते हो ?”
“मेरे इन कुण्डलों को रँगनेवाला सुवर्णकार कौन है, यह मुझे भी भला कहाँ मालूम है ! नहीं तो मैं उससे अवश्य कहता कि मेरे मित्र अश्वत्थामा को भी सुनहले कुण्डलों की एक जोड़ी दे दो। बड़ा अच्छा है यह ।“
वह हँसकर कहता, “नहीं भाई, अपने कुण्डलों को तुम अपने ही पास रखो। कानों में सुनहले कुण्डल देखकर कोई चोर मुझ-जैसे पर्णकुटी में सोने वाले ऋषिकुमार का कान ही काटकर ले जायेगा। फ़िर तो न कुण्डल रहेंगे न कान।“ हम दोनों खिलखिलाकर हँस पड़ते और अपने-आपको भूल जाते। मैं सदैव मन में सोचा करता कि गुरु द्रोण का यह पुत्र कितना निष्पाप और निराग है। परन्तु उसके पिता कितने गम्भीर और शान्त हैं। उनके मन की थाह ही नहीं मिलती है। या कि उत्तरदायित्व मनुष्य को प्रौढ़ बना देता है ? य कि कुल लोग जन्म से ही प्रौढ़ होते हैं ? वह युधिष्ठिर नहीं है क्या – सदैव गम्भीर। क्या मजाल जो कभी भूलकर भी हँसे ? परन्तु इस शाला के सभी शिष्य उसका कितना सम्मान करते हैं ! और उसका भाई अर्जुन तो जैसे सबका प्राण ही है। जहाँ देखो वहाँ अर्जुन। इस अश्वत्थामा पर भी उतना प्रेम नहीं होगा जितना कि गुरु द्रोण उस अर्जुन पर करते हैं। अर्जुन को वे इतना क्यों मानते हैं ? वैसे देखा जाये तो अश्वत्थामा के बराबर श्रेष्ठ युवक युद्धशाला में कोई और नहीं था। लेकिन उस अर्जुन के अतिरिक्त यहाँ और किसी का सम्मान नहीं था। किसी व्यक्ति का इतना महत्व बढ़ा देना कहाँ तक उचित है ! इससे वह व्यक्ति क्या उन्मत्त नहीं हो जायेगा ? वह कौन-सी कसौटी है, जिसपर खरा उतरने के कारण अर्जुन को गुरुदेव ने अपने इतने समीप कर लिया है ? अनेक बार मेरे मन में यह इच्छा हुई थी कि अश्वत्थामा से यह प्रश्न पूछूँ, लेकिन बड़े संयम से मैंने वह बात टाल दी थी। कहीं इसमें वह अपने पिता का अपमान न समझ ले। इसलिए वह प्रश्न मैं इससे कभी नहीं पूछ सकता था।
bal man me bhedbhaav ko dekhkar uthne wale prashnon ka sundar warnan ….
Jai Hind…
इस रचना ने मन मोह लिया।
मन मोहक लेखन कार्य कर रहे है आप
बहुत मन मोहक, लगता है जेसे इस बात चीत मै हम भी शामिल हो.
धन्यवाद
bahut hi badhiya chal raha hai aur jitna padh rahe hain utni hi aage janne ki utkantha badh rahi hai.
मृत्युंजय से लिए अंशों को पढ़ कर बहुत अच्छा लग रहा है …… वैसे ये पुस्तक मेरी पढ़ी हुई है पर जितनी भी बार इसके प्रसंगों को पढ़ता हूँ लगता है नया ही पढ़ रहा हूँ …… आपका आभार है …..