उस दिन सन्ध्या समय मैं नगर में गया। मरे हुए पक्षियों में भूस भरकर बेचनेवाले एक व्यक्ति से भुस भरा हुआ एक पक्षी लिया और लौट आया। रात को चारों ओर स्तब्धता होते ही मैंने शोण को जगाया। हम दोनों अपने कक्ष से बाहर निकले। मेरे हाथ में वह पक्षी था। सम्पूर्ण युद्धशाला शान्त थी। दिन-भर शस्त्रों की झनकार से कम्पित रहनेवाला वह स्थान इस समय निस्तब्ध था। स्थान-स्थान पर इंगुदी के पलीते जलते हुए उस भव्य क्रीड़ांगण को धैर्य बँधा रहे थे। उनमें से एक पलीता मैंने हाथ में ले लिया और बीच के धनुर्वेद के पत्थर के चबूतरे पर चढ़ गया। सामने ही वह विशाल अशोक वृक्ष था। उसकी ओर अँगुलि से संकेत कर अपने हाथ में लगा पक्षी शोण के हाथ में देता हुआ मैं बोला, “इस पक्षी को उस वृक्ष पर किसी ऊँचे स्थान पर बाँध दो और तुम पलीता लेकर वहीं रुके रहो।“
“किसलिए ?” उसने आश्चर्य से पूछा।
“वह बाद में बताऊँगा। जल्दी जाओ।“
मेरे हाथ से पलीता और पक्षी लेकर वह वृक्ष की ओर गया। सरसर गिलहरी की तरह सरकता हुआ वह क्षण-भर में ही ऊपर चढ़ गया। थोड़ी देर बाद वह बोला, “भैया, यहाँ एक शाखा से एक धागा बँधा हुआ दिखाई देता है। यहीं बाँध दूँ क्या ?”
“जितना सम्भव हो सके उतना ऊँचा जाओ अभी।“ मैं नीचे से चिल्लाया।
वह वहाँ से और ऊँचा गया। इससे अधिक ऊँचाई पर वह अब जा ही नहीं सकता था। उसने हाथ में पकड़ा पक्षी एक डाल से बाँध दिया। वह एक अन्य शाखा पर बैठ गया। मैंने चिल्लाकर उससे कहा, “उस पलीते को इस तरह पकड़ो कि वह पक्षी मुझको दिखाई दे। तनिक भी हिलो-डुलो मत।“ उसने पलीता अच्छी तरह पकड़ लिया। मैंने धनुष उठाया और वीरासन लगाया। उस चबूतरे पर खड़े होकर ही मैंने सूर्यदेव को शिष्यत्व स्वीकार किया था। मेरा मन मुझसे कह रहा था, “याद रख, युवराज अर्जुन ने लक्ष्य की दिखाई देनेवाली एक आँख फ़ोड़ी थी। तुझको दोनों आँखें फ़ोड़नी हैं। दिखाई देनेवाली और दिखाई न देनेवाली। कैसे ? पहला बाण लगते ही वह पक्षी घूमेगा। उसका दूसरी ओर का हिस्सा सामने आ जायेगा। इतने में ही दूसरा बाण उसकी दूसरी आँख में घुसना चाहिए। ये दोनों बाण एक ही समय छोड़ने हैं और वे भी पलीते के धूमिल प्रकाश में।“
मैंने वृक्ष की ओर देखा। पलीते की फ़ड़फ़ड़ाती हुई ज्योति से हवा का अनुमान किया। समीप रखे तरकश में से दो सूची बाण झट से खींचकर हाथ में लिये। धनुष को सन्तुलित किया और वे दोनों बाण उस पर चढ़ा दिये। प्रत्यंचा खींची। अब मैं….मैं नहीं रहा था। मेरा शरीर, मन, दृष्टि, श्वास, बाणों की दोनों नोक और पक्षी की दोनों आँखें – सब एक हो गये। खींची हुई प्रत्यंचा पर दोनों ऊँगलियाँ स्थिर हो गयीं। दोनों अँगुलियों पर दो भिन्न-भिन्न प्रभाव थे। उनमें से एक बाण थोड़ा-सा आगे जाना चाहिए था और दूसरा तुरन्त ही उसके पीछे। क्षण-भर स्थिरता रही और फ़िर दोनों बाण सूँऽऽऽऽ करते हुए एक के बाद एक धनुष से छूटे । पहला आघाता लगा और वह पक्षी एकदम घूमा। इतने में ही दूसरे बाण का एक और आघात उसको लगा और गड़बड़ी में शोण द्वारा जैसे-तैसे बाँधा गया वह पक्षी धागा टूट जाने के कारण धड़ाम से नीचे गिर पड़ा। हाथ में लगा धनुष फ़ेंककर, चबूतरे की चार-चार सीढ़ियाँ एकदम उतरकर मैं दौड़ता हुआ उस वृक्ष के नीचे गया। पक्षी हाथ में लेकर एक ओर लगे पलीते के पास ले जाकर मैंने देखा। उसकी दोनों आँखों की पुतलियों में दो बाण घुसे हुए थे। सफ़लता के आनन्द से मेरी आँखें चमकने लगीं। शोण वृक्ष से उतरकर नीचे आया। दूर कहीं रात में पहरा देनेवाले पहरेदार ने मध्यरात्रि की घटकाओं के टोले लौहपट्टिका पर मारे।
हम लौटकर कक्ष में सोने चले गये।
उस दिन से लक्ष्य-भेद के कठिन-कठिन प्रकारों को हम दोनों गुप्तरुप से रात में करने लगे, जब अखाड़े में कोई नहीं होता था। क्योंकि नीरव निस्तब्ध रात में मन को बड़ी अच्छी तरह एकाग्र किया जा सकता था, कोई व्याघात नहीं डाल सकता था।
इसी प्रकार अभ्यास करते हुए एक के बाद एक अनेक वर्ष कैसे बीत गये, इसका न मुझको पता चला, न शोण को। मल्लविद्या के हाथ सीखने के कारण मेरा शरीर सुदृढ़ हो गया। भुजदण्ड के स्नायुओं पर जोर से मुष्टि-प्रहार करता हुआ अश्वत्थामा मुझसे कहता, “कर्ण, यह मांस है या लोहा ?”
आज का लेख बहुत सुंदर लगा. धन्य्यवाद
आभार!!
karn ke jeevan ka ek ek pahlu ujagar ho raha hai ……..aabhar