आज से मैं वापस मृत्युंजय की कड़ियों की शुरुआत कर रहा हूँ, कोशिश करुँगा कि अब अंतराल न हो। |
एक बार अश्वत्थामा के साथ मैं यों ही राजभवन पर गया। राजभवन के सामने सरोवर के किनारे, दुर्योधन के मामा शकुनि बैठे हुए थे, उनके हाथ में एक श्वेत-शुभ्र राजहंस था। उस श्वेत पक्षी के प्रति मेरे मन में बड़ा आकर्षण था। पानी में अपने पैरों की डाँड़ चलाता हुआ गरदन को कितने शानदार झटके देता हुआ घूमता रहता है वह ! मानो जल-साम्राज्य का वह अकेला ही सम्राट हो। हम दोनों शकुनि मामा के पास गये। वे लगभग महाराज धृतराष्ट्र जैसे ही दिखाई पड़ते थे। लेकिन उनको एक आदत थी। बातें करते समय वे सदैब भौंहों को हिलाते रहते थे। उनसे बात करने वाले का ध्यान बार-बार उनकी छोटी-छोटी आँखों के ऊपर स्थित मोटी भौंहों की ओर जाता। हाथ में पकड़े राजहंस को सहलाते हुए उन्होंने अश्वत्थामा से पूछा, “क्यों अश्वत्थामा, सभी राजकुमार, युद्धशास्त्र में कहाँ तक बढ़े ?”
“अर्जुन धनुष में, दुर्योधन गदा में, भीम मल्लविद्या में, नकुल खड्ग में, दु:शासन मुष्टियुद्ध में, सहदेव चक्र में और युधिष्ठिर युद्धनीति में अत्यन्त निपुण हो गये हैं।” अश्वत्थामा ने उत्तर दिया।
“तब तो फ़िर जल्दी ही एक बार सबकी परीक्षा लेनी चाहिये।”
“जी हाँ, यही विचार पिताजी भी कर रहे हैं।” अश्वत्थामा ने कहा। इतने में ही एक सेवक पाषाण के पात्र में दूध ले आया। उसने वह पात्र तालाब के किनारे रख दिया। शकुनि मामा ने अश्वत्थामा के हाथ में देकर झुकते हुए सरोवर में से अंजलि भरकर पानी लिया और उस पाषाण-पात्र में डाल दिया।
“मामाजी, यह क्या दूध की बचत की जा रही है ?” अश्वत्थामा ने पूछा।
“नहीं। यह राजहंस है। इस पात्र में चाहे जितना पानी डाल दो परन्तु फ़िर भी यह पानी नहीं पियेगा।” उत्तरीय से हाथ पोंछते हुए शकुनि मामा ने भौंहे ऊँची करते हुए कहा।
“सो कैसे ?”
“अब साक्षात देख ही लो।” यह कहकर मामा ने राजहंस को धीरे से अश्वत्थामा के हाथ से लिया और उस पत्थर के पास बैठा दिया। तुरन्त ही उस पक्षी ने अपनी शानदार गरदन उस पत्थर के पात्र में डाल दी। चुर-चुर आवाज करता हुआ वह दूध पीने लगा। थोड़ी देर बाद उसने गरदन बाहर निकाली। उसने गरदन को एक बार झटका दिया। उसकी चोंच में अटके हुए दूध के चार कण निकल गये। हम सबने उत्सुक होकर झाँककर उस पत्थर के पात्र में देखा। उसमें अंजलि-भर पानी ज्यों का त्यों बचा रहा था। केवल शुद्ध पानी। शकुनि मामा ने उसको फ़िर तालाब में डाल दिया। और भौहों को हिलाया।
बहुत अच्छा लगा, इस उपन्यास-अंश को पढ कर. मृत्यंजय पढ के मैं तो रोमांचित हो गई थी. ऐसा उपन्यास जिसे बार-बार पढने का म करे. साधुवाद.
क्या बात है यह बाते तो हमे बिलकुल मालूम नही थी, लेकिन राजहंस ने पानी क्यो छोडा, यह आप ने नही बताया.
धन्यवाद
आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!