अश्वत्थामा पर मेरा जो प्रेम था, उसका रुपान्तर अब प्रगाढ़ स्नेह में हो गया था। समस्त हस्तिनापुर में वही एकमात्र मेरा प्राणप्रिय मित्र बन गया था।
एक बार हम दोनों गंगा के किनारे बैठे बातें कर रहे थे। अकस्मात सहज रुप में उसने कहा, “कर्ण, तुम मुझको अच्छे लगते हो, इसका कारण केवल तुम्हारा स्वभाव ही नहीं है, बल्कि तुम्हारा सुन्दर शरीर भी उसका एक कारण है।“
“तो क्या मैं इतना सुन्दर दिखाई देता हूँ ?”
“हाँ। तुमने यह स्वप्न में भी न सोचा होगा, लेकिन प्रतिदिन तुम जिस समय स्नान करके धूप चढ़ने पर गंगा से लौटा करते हो, उस समय सारे समाज के बन्धनों को ताक पर रखकर इस नगर की स्त्रियाँ कुछ न कुछ कारण निकालकर भवनों के गवाक्ष खोलती हैं। केवल तुमको देखने के लिए।“
“तुम यह क्या कह रहे हो अश्वत्थामा ? यदि यह सच है तो फ़िर आज से मुझको गंगा का मार्ग बदलना पड़ेगा।“
“यह सच है कर्ण! वृषभ-जैसे तुरे पुष्ट कन्धे, गुड़हल के फ़ूल-जैसे लाल गाल, उन गालों पर तेरे कानों के कुण्डलों के पड़नेवाले नीले-से दीप्त-वलय, खड़्ग की धार की तरह सरल और नोकदार नासिका, धनुष के दण्ड की तरह वक्र और सुन्दर भौंहें, कटेरी के फ़ूल-जैसे नीलवर्ण नयन, थाली-जैसा भव्य कपाल, गरदन पर होते हुए कन्धे पर झूलनेवाले, महाराजों के मुकुट के स्वर्ण को भी लजानेवाले तुम्हारे सुनहले घने घुँघराले बाल और रथ के खम्भे-जैसे शरीर के कसे हुए सबल स्नायु – यह समस्त स्वर्गीय वैभव होने के कारण तुम भला किसे अच्छे नहीं लगोगे ?”
“अश्वत्थामन, मुझको विश्वास है कि सच बात कहने पर तुम क्रुद्ध नहीं होगे।“
“कहो, कर्ण !”
“तुम्हारे पिताजी को क्यों इनमें से कोई बात कभी अच्छी नहीं लगी ? इन छह वर्षों में उनको और उनके लाड़ले अर्जुन को क्या यह मालूम है कि कर्ण कौन है, कहाँ है ?”
“यह सत्य है, कर्ण ! लेकिन ऐसे तुम अकेले ही नहीं हो। शस्त्र-विद्या सीखने के उद्देश्य से निषध पर्वत पर से सैकड़ों योजन पार करके आये हुए निषादराज हिरण्यधनु के पुत्र का – एकलव्य का – भी दुख यही है। तुम्हारे मन की बात सुनने के लिये कम से कम मैं तो हूँ यहाँ। परन्तु उस एकलव्य की मेरे पिताजी के बारे में क्या धारणा होगी, मैं सोच भी नहीं सकता। पिताजी ने क्यों ऐसा व्यवहार किया, यह मैं कैसे बताऊँ ? सभी पुत्र अपने पिता के अन्तरतम को नहीं जान सकते, वसु !”
उसका उत्तर सहज सत्य था और इसीलिए वह मुझको अत्यन्त अच्छा लगा। अधिरथ पिताजी के मन में क्या-क्या कल्पनाएँ हैं, यह बात क्या मैं कभी जान सकता था ? अश्वत्थामा ने मुझको एकलव्य का समरण करा दिया, इससे कभी न देखे हुए लेकिन एक समदुखी के रुप में एकलव्य के प्रति मेरे मन में अनजाने ही एक प्रकार का अननुभूत आदर उत्पन्न हो गया।
बहुत अच्छी प्रस्तुति। क्रिसमस पर्व की बहुत-बहुत शुभकामनाएं एवं बधाई।
आभार इस प्रस्तुति का!!क्रिसमस की बहुत शुभकामनाएं ..
बहुत सुंदर लेख लिखा आप ने